मंगलवार, 26 जनवरी 2010

अनूदित साहित्य


गत 9 जनवरी 2010 को आकाशवाणी की ओर से 'सर्वभाषा कवि सम्मेलन-2010' गुवाहटी(असम) में आयोजित किया गया। इसमें 22 प्रान्तीय भाषाओं के मूल कवियों ने अपनी एक एक कविता का मंच से पाठ किया जिसका हिंदी अनुवाद भी मंच पर पढ़ा गया। हिंदी के दो वरिष्ठ कवियों -डा। बलदेव वंशी और किशन सरोज द्वारा भी हिंदी में एक-एक कविता पढ़ी गई। इस अवसर पर मलयालम कवि दिवाकरन विष्णुमंगलम् ने अपनी प्रसिद्ध कविता ''वृक्षगीत'' अपने सुमधुर स्वर में सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इस कविता का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद सुभाष नीरव ने प्रस्तुत किया। उसी हिंदी अनुवाद को 'सेतु साहित्य' के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें खुशी का अनुभव हो रहा है। आशा है, यह कविता 'सेतु साहित्य' के पाठकों को अवश्य आकर्षित करेगी। आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है...


मलयालम कविता

वृक्षगीत

मूल कवि : दिवाकरन विष्णुमंगलम्
अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


हे पथिक !
लौट आए क्या पुन: तुम
प्यासी ऑंखों से
आश्रय और छाँव तकते ?
लौट आए क्या पुन: तुम
धधकते अंगारों-सी राह में
झुलसते ?

हे पथिक !
देह और मन से थके पूर्वज तुम्हारे
सिर टिका कर मेरी जड़ों पर
और फैलाकर देह को
छाया में लम्बा
नींद लेते थे और पाते थे शान्ति
दु:ख के पलों में
चेतना का भाल छूते थे अलौकिक
चीरकर तम की तहों को

हैं वो जीवित सब तुम्हारी स्मृतियों में...

झड़े पत्तों की इन शाखाओं वाले
वृक्ष का चीरकर कलेजा
अश्रूपूरित ऑंखों से
टटोलते मनहूस अंधेरे को
जब तुम्हारी पीढ़ी की चाहतों का
सूख रहा है सोता
तब तुम आए पथिक
शरणार्थी बनकर मेरे पास।

मैं तुम्हें एक रहस्य बताता हूँ।

ध्यान से सुनो
अपने हृदय में उमड़ते शोकगीत और स्वर-लहरियाँ
शिराओं में बहती जीवन की प्यास
मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ

मेरे जीवन की अन्तर्वेदना से
अपरिचित हो तुम।

संताप के डंक से दंशित
घाव की जलन को मरहम लगाने के लिए
जब तुम जड़ी-बूटियों की दवा को तरसते रहे
तब तुम्हारे सहोदरों ने
मेरी उदारता को लूटा
महसूस कर सकते हो तो करो
कैसे उनके विषाक्त लहराते बादलों ने
छीन ली मुझसे मेरे हिस्से की धूप।

हाँ, मैं मर रहा हूँ,
लेकिन बावजूद इसके
अपनी प्रकृति के अनुरूप
मैं सौंप रहा हूँ तुम्हें
अपने अन्तर में पलती
हरी-हरी कोंपलें
बस, इतनी सी प्यारी भेंट।

करो ग्रहण इसे, ले जाओ
अपने घर-ऑंगन में
करुणा और प्रेम की खाद से
करो इसे पल्लवित और पुष्पित।
यह तुम्हारी धरती को
जल-प्रवाह के कटाव से बचाकर
अपनी जड़ों के बन्धन में
रखेगी उसे सुरक्षित।

इसी में है
प्रेम की ऊष्मा से झिलमिलाती
दूध की नदियों सी बहती खुशहाली
इसी में है तुम्हारे कुटुम्ब के
भरण पोषण के लिए भर पेट अन्न
इसी में है जीवन-अमृत का पवित्र स्तुति गान
इसी में हैं जीवन-श्वांस
इसी में हैं इसकी करुणा और स्वप्न का रिमझिम संगीत
इसी में हैं दुनिया की जिजीविषा को बचाये रखने की शक्ति।

होने दो अंकुरित इन्हें
कि तरंग सा पवन के पंखों पर करें नृत्य
नेकियाँ केसर बनकर रंगोलियाँ सजायें
पर-परागण फैलें ऐसे दूर दूर कि
वन की हरीतिमा को चमकायें
तब इसकी शाखाओं पर नन्हा सुग्गा
गाएगा प्रेम राग,
जगत का सच्चा जीवन राग
सुनकर जिसे तुम्हारे हृदय में
परमानंद की होगी बरसात।

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कवि परिचय
जन्म : 05 मार्च 1965, विष्णुमंगलम्, अंजनूर, जिला-कसारागोड(केरल)
शिक्षा : एम.एससी(जियोलोजी)
संप्रति : जियोलोजिस्ट।
प्रकाशित पुस्तकें : निर्वाचनम्(कविता)- 1994
पदावली(कविता)- 2004
जीवन्ते बटन( कविता)-2006
सम्मान/पुरस्कार : वी.टी. कुमारन स्मारिका कविता अवार्ड( 1989)
महाकवि कुट्टामथ अवार्ड (1995)
केरल साहित्य अकादमी कनकश्री इंडोमेंट अवार्ड (1996)
वलोप्पिली अवार्ड (1997)
इडासेरी अवार्ड (2005)
ज्वाला अवार्ड मुम्बई (2006)
आबूदाबी सक्ति अवार्ड(2007)
सम्पर्क : हरिपुरम पी.ओ. , आनन्दाश्रम, वाया कसरागोड डिस्ट्रिक, केरल -671531
दूरभाष : 0467-2266688 (घर), 09446339708( मोबाइल)