शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

अनूदित साहित्य


प्रिय मित्रो
गत 20 जनवरी 2011 को मेरे चार ब्लॉग्स – “सेतु-साहित्य”, “वाटिका”, “गवाक्ष” और “साहित्य-सृजन” एकाएक गायब हो गए। डैशबोर्ड पर केवल वही ब्लॉग्स दिख रहे थे जो मेरे नहीं थे लेकिन मैं शेयर कर रहा था। हैरत हुई और एक गहरा आघात भी लगा कि ऐसा कैसे हो गया। लगा कि पिछले ढाई-तीन वर्षों के मेरे श्रम पर पानी फिर गया हो। कम्प्यूटर और नेट की दुनिया का अच्छा ज्ञान रखने वाले अपने कुछ मित्रो से अपनी इस समस्या को साझा किया। तथ्यों का पता लगाने कि कोशिश की गई कि ऐसा क्यों हुआ? और अब ये ब्लॉग्स कैसे रेस्टोर हो सकते हैं? भाई रवि रतलामी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु और कनिष्क कश्यप ने आगे बढ़कर मेरी इस समस्या को सुलझाने की पुरज़ोर कोशिश की। यह उन्हीं की कोशिशों का नतीजा है कि 3 फरवरी 2011 को मेरे उक्त ब्लॉग्स पुन: जीवित हो उठे। इन्हें पुन: पाकर मुझे जो अपार खुशी हुई है, उसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। मैं भाई रवि रतलामी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु और कनिष्क कश्यप का हृदय से कृतज्ञ हूँ।

जिन दिनों मेरे उक्त ब्लॉग्स गायब थे, उन्हीं दिनों भाई यादवेन्द्र जी ने मुझे अमेरिकी कवयित्री निक्की जियोवानी की कुछ प्रेम कविताओं का बहुत खूबसूरत हिंदी अनुवाद “सेतु साहित्य” में प्रकाशित करने के लिए प्रेषित किया था। उन्हीं कविताओं में से कुछ कविताएं मैं भाई यादवेन्द्र जी की टिप्पणी के संग ‘सेतु साहित्य’ के इस अंक में आपके समक्ष रख रहा हूँ, इस उम्मीद के साथ कि आपको भी निक्की की ये प्रेम कविताएं अवश्य पसन्द आएंगी…
-सुभाष नीरव


अमेरिका की प्रमुख और बेहद मुखर अश्वेत कवयित्री
निक्की जिओवानी की कुछ प्रेम कवितायेँ
प्रस्तुति एवं हिंदी अनुवाद : यादवेन्द्र

निक्की जियोवानी अमेरिका की बेहद संजीदा, प्रतिष्ठित और विवादास्पद अश्वेत कवयित्री, विचारक और मानव अधिकार एक्टिविस्ट हैं. उनके तीस से ज्यादा संकलन प्रकाशित हैं.
हाल में छपी अपनी किताब “बाईसाइकिल्स” में निक्की जियोवानी ने अपनी 65 प्रेम कवितायेँ संकलित की हैं जो उनके 65वें जन्मदिन के प्रतीक हैं. उनका मानना है कि ‘साइकिलें’ भरोसे और संतुलन का सबसे सटीक प्रतिरूप हैं और प्रेम इसी को कहते हैं. अपनी मुखर प्रेम कविताओं के लिए विख्यात निक्की जियोवानी प्रेम कवितायेँ लिखने के बारे में बेबाकी से कहती हैं: ‘अच्छी प्रेम कविता लिखना उतना ही नाजुक काम है जैसे अच्छा प्रेमी होना. आपको देह को छूने और चूम कर स्वाद चखने के साथ-साथ गहरे इत्मीनान के साथ इसकी सच्चाई को परखने के विभिन्न चरणों से गुजरना पड़ता है… क्योंकि प्रेम में आप न तो हड़बड़ी कर सकते हैं और न ही इसका दिखावा कर सकते हैं.’

उन्होंने प्रेम कविता लिखने के पांच सूत्र बताये हैं-
- यदि कोई आपके लिए प्रेम कविता लिखे तो आपको मुंहफट होकर कहना पड़ेगा कि कविता अच्छी नहीं है. यह वैसा ही होगा जैसे कोई आपसे बोले कि फलाँ ड्रेस आपके ऊपर खूब फबती है और आप तुरंत जवाब दे दो कि अरे, तो आप उस बरसों पुरानी ड्रेस की बाबत बात कर रहे थे? वाजिब ढंग तो ये होगा कि आप उसकी ओर मुखातिब होकर मुस्कुरा दें और शुक्रिया अदा करें. यदि आपके मन में भी प्रेम के भाव हैं तो आपके मुंह पर लज्जा भरी लालिमा आ ही जाएगी.

- किसी भी प्रेम कविता में एक आतंरिक लय होनी ही चाहिए… इतनी प्रखर कि कामनाएं खुद-ब-खुद प्रस्फुटित होने लगें. बहुत सारे लोग गलती ये करते हैं कि कविता की पीठ पर विचारों की भारी गठरी लाद देते हैं...मन की बेचैनी और लालसा को सहज रूप में बाहर आने देने में मददगार छवियों तक पहुँच पाना सबसे जरुरी है.

- ऐसी कविताओं को लिखने में सबसे बड़ी बाधा होती है- उलझी हुई जटिलता. कोई पाठक इनके बीच हाथ पाँव मार कर आपका मंतव्य समझने की मशक्कत नहीं करना चाहता...न ही आपकी प्रेमिका को ये मकड़जाल मंजूर होगा. अपनी बात सीधे बेलाग लपेट ढंग से कहना जरुरी है.

- प्रेम और जीवन दोनों के लिए सरलता सबसे जरुरी शर्त होती है… मन में सबसे पहले ये संकल्प करना चाहिए कि आप जो भी कहेंगे साफ़-साफ़ और भरपूर समझ के साथ कहेंगे. मन की बेचैनी, तलाश और लालसा को महसूस किया जाना जरुरी है.

- यदि प्रेम कविता लिखने के बारे में मुझे इकलौती सलाह देने को कहा जाये तो मैं कवियों को आगाह करुँगी कि प्रेम, प्रेम करने वाले को मुखातिब होता है न कि प्रेम प्राप्त करने वाले को. आपके लिए यह जरुरी है कि प्रेम करने के दौरान आप अपने मनोभावों को महसूस करें, न कि इस पर गौर करें कि प्रेम लेने वाला किस तरह की प्रतिक्रिया देता है. यदि आप ऐसा करने के लिए अपने मन को मुक्त छोड़ देंगे तो यह ख़ुशी से पागल होकर नाचने लगेगा...दुनिया में ऐसा कोई माई का लाल नहीं है जो इसको काबू में कर सके.
-यादवेन्द्र


साइकिलें

आधी रात लिखी जानेवाली कवितायेँ
साइकिलें होती हैं
ये हमें ऐसी निरापद यात्राओं पर ले जाती हैं
जो जेट उड़ानों से भी ज्यादा सुरक्षित हैं
ऐसी झटपट यात्राओं पर ले जाती हैं
जो पैदल चलने से भी ज्यादा द्रुत हैं...
पर उतनी मनमोहक तो नहीं होतीं ये यात्रायें
जैसे रजाई के अंदर ही अंदर
मेरी नंगी पीठ को छू कर
कर लेते हो तुम.

आधी रात लिखी जाने वाली कवितायेँ
छेड़ती रहतीं हैं मधुर-मधुर तान
बार-बार ये दुहराते हुए
कि उचित और बिलकुल सही हो रहा है
यहाँ पर सब कुछ.
यहाँ पर सब कुछ
हम दोनों के लिए ही है
मैं हाथ बढ़ाती हूँ
और पकड़ लाती हूँ खिलखिलाहटें
पास बैठे कुत्ते को लगता है
जैसे मैं यहाँ-वहां तलाश रही हूँ
कोई चुम्बन.

साइकिलें आगे बढती हैं
अपनी सहज गति के साथ
धरती के ऊपर जैसे
तैरते रहते हैं बादल
गुमसुम शरद ऋतु में
जैसे कोन के अंदर जमाई हुई
रसीली आइसक्रीम चूस ले कोई..
जैसे तुम्हें जानना पहचानना
ऐसे ही अपनी पहुँच में रहेगा
सदा-सदा के लिए.

दिन भर बेसब्री से
मैं सूरज डूबने की राह देखती हूँ
कब उगेगा पहला तारा
और कब सिर पर आ खड़ा होगा चाँद.

फिर पलक झपकते ही मैं पहुँच जाती हूँ
आधी रात में लिखी जाने वाली कविता के पास
इसको तुम्हारा नाम देती हूँ
मालूम है जो लपक कर थाम लेगी
मुझे जैसे ही सामने आ जाएगी कोई अनहोनी विपत्ति।


दोस्ती की कविता

हम प्रेमी नहीं हैं
सिर्फ इसलिए कि
हम टूटकर कर लेते हैं प्रेम
बल्कि इसलिए हैं कि
हमें एक दूसरे से प्यार है भरपूर.
हम दोस्त नहीं हैं
सिर्फ इसलिए कि
एक दूसरे पर लुटा देते हैं
ढेर सारी हँसी
बल्कि इसलिए हैं कि
साथ-साथ होकर बचा लेते हैं
हम ढेर सारे आँसू.

मैं आना नहीं चाहती निकट तुम्हारे
महज इसलिए कि मिलती है हमारी ज्यादातर सोच
बल्कि आना इसलिए चाहती हूँ कि
बहुतेरे शब्द हैं हमारे बीच
साथ रहते हुए पड़ती नहीं दरकार
जिन्हें बोलने की...कभी भी.

मैं कभी भूल नहीं पाउंगी तुम्हे
सोचते हुए कि क्या-क्या किया हमने साथ मिलकर
बल्कि याद करुँगी इसलिए कि बन जाते थे
हम क्या से क्या एक दूसरे के साथ होकर.

मैं अकेली कहाँ हूँ

मैं अकेली कहाँ हूँ
अलग थलग अलसाती उनींदी-सी
तुम समझते हो मुझे लगता है डर
पर अब मैं बड़ी हो गयी हूँ
अब मैं न रोती हूँ, न बिसूरती हूँ.
मेरे पास एक बड़ा-सा बिस्तर है
लपेट कर रखने को
बड़ी-सी जगह में
अब मैं बुरे सपने भी नहीं देखती आये दिन
सोच-सोच कर कि तुम मुझे छोड़ कर
अलग जा रहे हो.
अब जब तुम चले गए
मैं सपने नहीं देखती
और कोई फर्क नहीं पड़ता
कि तुम क्या सोचा करते हो मेरे बारे में
मैं अकेली कहाँ हूँ
सोते हुए भी
अलग थलग.


तुम भी आ गए

मैं भीड़ में शामिल हुई कि ढूंढ़ लूँ दोस्ती
मैं भीड़ में शामिल हुई कि ढूंढ़ लूँ प्यार
मैं भीड़ में शामिल हुई कि ढूंढ़ लूँ समझ
और मुझे तुम मिल गए.

मैं भीड़ में शामिल हुई कि रो सकूँ
मैं भीड़ में शामिल हुई कि हँस सकूँ
तुमने पोंछ दिए मेरे आंसू
तुमने साझा कर लिए मेरे सुख

मैंने भीड़ से बाहर निकल कर तुम्हे ढूंढा
मैंने भीड़ से बाहर निकला कर खुद को ढूंढा
और निकल आई भीड़ से बाहर
सदा-सदा के लिए.

मेरे पीछे-पीछे
तुम भी आ गए.


मेरा देना

मैं कामना हूँ
तुम्हारे दीपों की लौ के ऊपर तैरती हुई
जब वे गाते हैं
जन्मदिन के कोरस...
मैं तुम्हारी हूँ
वह सब कुछ तुम्हें देती हुई
जिनकी तुम्हें दरकार होती है.
अब तुम्हीं बताओ
ऐसा क्यों होता है
कि इन सबके बाद भी
तुम खुश नहीं होते?


तुम्हारा शॉवर

मेरी चाह है
कि बन जाऊं तुम्हारा बाथरूम का शॉवर
खूब मल-मल कर साबुन से
साफ़ करूँ तुम्हारे केश
छेड़ते गुदगुदाते हुए
पहुँच जाऊं तुम्हारे होंठों तक
फिर चढ़ जाऊं तुम्हारे कन्धों पर
फिसलती हुई तुम्हारी पीठ से
कमर को लपेट लूँ चारों ओर से
घुटनों को थपथपा-गुदगुदाते
गिर पडूं तुम्हारे पैर की
उँगलियों की नोंक पर...
इसके बाद शुरू करूँ
वापसी की यात्रा
बार-बार
गुनगुनी गीली तरबतर
चिपचिपी लुभावनी और मोहक
ऊपर की ओर और नीचे की ओर
लिपटती हुई चारों ओर
लिपटती हुई चारों ओर
लिपटती हुई चारों ओर
तब तक अनवरत
कि रीत न जाये
सारा गुनगुना पानी
जब तक.