रविवार, 30 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य



"सेतु साहित्य" के पाठकों को
नव वर्ष 2008 की हार्दिक शुभकामनाएं !

इस अंक में "अनूदित साहित्य" के अंतर्गत प्रस्तुत हैं - पंजाबी के प्रसिद्ध कवि मोहनजीत की तीन कविताओं का हिंदी रूपांतर –

तीन पंजाबी कविताएं/ मोहनजीत
हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव


(1) माँ

मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी

हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-
क्या लिखा है?
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!

गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते
माथे को छूते- सवेर होती
दूधभरी छातियों को स्पर्श करते
तो चाँद निकलता

पता नहीं गीत का कितना हिस्सा
पहले का था
कितना माँ का

माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते
चलती तो एक लय बनती

माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर
'रबाब' भी कह लेती थी

पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है
और आह के साथ जो हूक निकलती है
उससे कौन-सा साज़ बना
माँ नहीं जानती थी

माँ कहाँ खोजनहार थी !
चरखा कातते-कातते सो जाती
उठती तो चक्की पर बैठ जाती

भीगी रात का माँ को क्या पता !
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती

मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ
इतना ही तो जानता हूँ
माँ सांस लेती तो लगता
रब जीवित है!


(2) चलना ही बनता है

आ जाओ ! बैठो !
पर दो पल रुको
कि अभी पवन से गुफ़्तगू में हूँ
सुबह से,संध्या से और चुप पसरी रात से
और उस सबसे जो नज़र के सामने है
और नज़र से परे भी

सोचता हूँ- फूल और खुशबू में क्या सांझ है !
मन और काल का क्या रिश्ता है !
प्यार हर जगह एक-सा है !
दोस्ती का दर्द क्यों डसता है !

तो क्या यों ही बैठा रहूँ
पहाड़ की तरह
प्रतीक्षा की तरह
या फिर चल पड़ूँ
पानी के बहाव की तरह
वक्त की सांस की तरह

मूल का क्या पता- कहाँ है
और अंत है कहाँ

अगर राह से वास्ता है
तो चलना ही बनता है।


(3) संवाद

वो तो एक पीर था
जो दूजे पीर से मिला
एक के पास दूध का कटोरा था- मुँह तक भरा
दूसरे के पास चमेली का फूल
माथों के तेज से
वस्तुएं अर्थों में बदल गईं

हम तो चलते हुए राह हैं
किसी मोड़, किसी चौराहे पर मिलते हैं
एक-दूजे के पास से गुजर जाते हैं
या एक-दूजे से बिछुड़ जाते हैं

वो भी एक चुप का दूसरी चुप से संवाद था
यह भी एक चुप का दूसरी चुप से संवाद है


कवि संपर्क :
सी-22, सेक्टर-18
मिलेनियम अपार्टमेंट
रोहिणी, दिल्ली-110085
दूरभाष : 09811398223

ई मेल : snehambar@yahoo.com

शनिवार, 22 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य


दलित चेतना और संवेदना के प्रमुख
पंजाबी कवि बलबीर माधोपुरी की तीन कविताएं
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव


(1) अभिलाषा


ज़िन्दगी-
मैं तेरे संग ऐसे जीना चाहता हूँ
जैसे मिट्टी संग पौधा
पत्ते संग हरियाली
और आँखों संग दृश्य ।

ज़िन्दगी-
मैं तेरे साथ रखना चाहता हूँ
ऐसा मोह
जैसे सागर संग मछली
सूरज संग गरमाहट
फूल संग खुशबू ।

ज़िन्दगी-
मैं ढलानों को, शिखरों को
यूँ करना चाहता हूँ पार
जैसे सागर की लहरों को किश्ती
ऊँची-ऊँची पहाडि़यों को
कोई पहाड़ी गडरिया ।

ज़िन्दगी-
मैं चाहता हूँ रात-दिन
कि तपते मरुस्थल पर
छा जाऊँ बादल बन कर
गरमाहट भरे पंख बन जाऊँ
ठिठुरते-सिकुड़ते बोटों के लिए ।

ज़िन्दगी-
मैं इस तरह विशाल होना चाहता हूँ
जैसे सात समुन्दरों का एक रूप
सतरंगी किरनों की एक धूप
अनेक टहनियों-पत्तों वाला
हरा-भरा एक पेड़ ।

ज़िन्दगी-
मैं तेरे संग ऐसे जीना चाहता हूँ
जैसे मिट्टी संग पौधा,
पत्ते संग हरियाली
और आँखों संग दृश्य !


(2) काव्य-इच्छा

मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
बरसाती नालों की भाँति
किसी नदी में गिर कर
खो बैठें अपनी पहचान ।

मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसके धर्मग्रंथ
एक विशाल खेत को
बाँटते हैं टुकड़ों में
मखमली घास की हरियाली
आरक्षित करते हैं चोटी-टोपी के लिए
वर्जित करते हैं तीसरा नेत्र खोलना
मेरे जैसे लाखे रंग के लोगों के लिए ।

मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उन परिन्दों के नाम हों
जो गाँव की बस्तियों-मुहल्लों को पार कर
चुग्गा चुगने के लिए उतर आते हैं
इन-उन आँगनों में
घरों की ऊँची-नीची
छतों की परवाह किए बगैर ।

बस, मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसमें एकलव्य, बंदाबहादुर की वीर गाथाएँ हैं
पीर बुद्धूशाह का जूझना हैपाब्लो नेरूदा की वेदना है ।




(3) तिनके से हल्का आदमी

कई बार
सरकलम किए पेड़ की तरह
हो जाता हूँ बौना
जिसके ऊपर से गुज़रती है
बिजली की तार ।

छांग दिया जाता हूँ बेमौसम
जब अकस्मात ही
कोई पूछ लेता है मेरा धर्म ।

कई बार
पानी से भी पतला
हो जाता है माटी का यह पुतला ।

शब्द–
जुबान का छोड़ जाते हैं साथ
जैसे पतझड़ में पेड़ों से पत्ते ।

सिर पर से गुज़र जाता है पानी
धरती देती नहीं जगह
जब अचानक ही
कोई पूछ लेता है मेरी जात ।

कई बार
मन के आकाश पर
चढ़ आते हैं
घोर उदासियों के बादल
जब महानगरीय हवा में
पंख समेट कर बैठ जाता है
उड़ाने भरता, कल्लोल करता
चुग्गा चुगने आया कोई परिंदा
पूछे जब कोई सहसा
उसका मूल प्रदेश
पहले गाँव, फिर मुहल्ला ।

कई बार क्या, अक्सर ही
बिंध जाता है उड़ता हुआ परिंदा
कभी धर्म, कभी जात, कभी मुहल्ले से
तो कभी
अवर्ण के बाण से ।

कवि सम्पर्क :
आर ज़ैड ए-44, महावीर विहार
पालम, नई दिल्ली-110045
ई मेल : madhopuri@yahoo.co.in.
दूरभाष : 011-25088112(निवास)
09350548100(मोबाइल)


एक सूचना

सेतु साहित्यसाप्ताहिक को जनवरी 2008 से मासिक किया जा रहा है। जनवरी 2008 से अब यह माह में एक बार पोस्ट हुआ करेगा।

शनिवार, 15 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य

दो संथाली कविताएं/निर्मला पुतुल
हिंदी अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा


क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकान्त ?

घर, प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन
के बारे में बता सकते हो तुम ?

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता ?

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री ?

सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने-आपसे लड़ते ?

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गांठें खोल कर
कभी पढ़ा है
तुमने उसके भीतर का
खेलता इतिहास ?
पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा के उसके चेहरे को ?

उसके अन्दर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर ?

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण ?

बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा ?

अगर नहीं
तो फिर क्या जानते हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...?

बिटिया मुर्मू के लिए कविता

वे दबे पांव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में
वे तुम्हारे नृत्य की बड़ाई करते हैं
वे तुम्हारी आँखों की प्रशंसा में
कसीदे पढ़ते हैं

वे कौन है...?

सौदागर हैं वे... समझो...
पहचानो उन्हें बिटिया मुर्मू... पहचानो !
पहाड़ों पर आग वे ही लगाते हैं
उन्हीं की दूकानों पर तुम्हारे बच्चों का
बचपन चीत्कारता है
उन्हीं की गाड़ियों पर
तुम्हारी लड़कियाँ सब्ज़बाग़ देखने
कलकत्ता और नेपाल के बाजारों में उतरती हैं
नगाड़े की आवाज़ें
कितनी असमर्थ बना दी गई हैं
जानो उसे...।

(
अनामिका द्वारा संपादित और इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित पुस्तक "कहती हैं औरतें" से साभार)

शनिवार, 8 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य

दो पंजाबी कविताएं/ देवेन्द्र सैफ़ी
हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी
मुझे उस औरत जैसी लगी
जिसने चढ़ती उम्र में
'मरियम' बनने का सपना देखा हो।

फिर पूरी जवानी
जिसने मर्द बदलने में बिता दी हो
और अब बूढ़ी होकर
एक कोने में टूटी हुई चारपाई पर लेटी
तिनके से धरती पर लकीरें खींचती
जवानी में बदले हुए मर्दों के नाम गिनती
शर्मसार हो रही हो !

ज़िन्दगी
मुझे उस आदमी जैसी लगी
जो 'हीर की चूरी' की तलाश में निकला हो
और राहों में ठोकरें खाते-खाते
बेहोश हो गया हो
होश आने पर

वेश्या की सीढ़ियाँ उतर रहा हो।

मुर्गियाँ

हमारा पहला मालिक
हमें 'कुड़-कुड़' नहीं करने देता था
जब उसका दिल करता
हमें मार कर खा जाता था

नया मालिक
हमें दड़बे में रखेगा
हमारी 'कुड़-कुड़' पर
पाबन्दी नहीं लगायेगा
रोज़ हमारे अंडे लेकर जायेगा
पर हमें नहीं खायेगा

हम नाचती हैं
ऐसे मालिक के स्वागत में
हम नये युग की
समझदार मुर्गियाँ हैं।

सम्पर्क :
गांव– मोरांवाली
जि़ला– फरीदकोट, पंजाब(भारत)
फोन : 094174-26954

रविवार, 2 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य

तीन नेपाली कविताएं/मुकुल दाहाल
मूल नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी

देवलोक

मैं सिमेंट-सुरक्षित पर्याय में
सिमेंट-सभ्य जीवन के
खोखली शर्तों के
चक्रब्यूह में फँसा हूं।

बिजलीवाला पर्दा
चूस रहा है सुबह-शाम
मेरी आँखों का पानी।

सड़क के मानव-तूफान
और सवारियों के समुद्र में
बना हूं मैं एक कौवा।

मैं पानी की वह एक बूंद
जिसे रेत पी चूका होता है।

इसी बीच
दूर के धूमिल गांव से
एक लिफाफा आया है
एक चिट्ठी लेकर।

चिट्ठी में तीस साल पहले का
एक बालक
मुझसे बतिया रहा है।

वक्त वाष्पीकृत हो गया है
दूरी सिमट गयी है, भूगोल की।

दो बालक हम
नदी किनारों की पीठ पर चढ़ते हैं
पानी के गालों पर
थप्पड़ रसीद करते हैं।

त्योहार बने हैं रेत
पर्व बने हैं किनारे
उत्सव बने हैं पत्थर
फिर देवलोक बना है जीवन।

कविता के जन्मदिन पर

आंगन में
अंधेरा साँड़
बनता रहा

चेहरे पे
काली रात
आकर सोती रही

स्वाद का अर्थ
जिह्वा में
न लिखा गया

बदन
सर्वांग न छिप सका आजीवन
वस्त्र में

सफाई
कौन सी सुविधा है
कौन सा चमत्कार है
मालूम न पड़ा

ऐसे परिवार में
जन्म लिया एक दिन
मेरी कविता ने

वह नहीं रोई
आदमी जैसे
जन्म लेने पर

वह जन्मी
परिपक्व, पूर्ण

अर्थ लिए
आवाज लिए
स्वर लिए

मेरे घाव
मेरे दर्द

मेरे सब वंशज गुण लेकर
वह मर्यादित
जीती गई

मैं प्रत्येक जन्मदिन के
ढलान पर लुढ़कता रहा,

टकराता रहा
और नीला पड़ता गया

हर जन्मदिन के सोपान पर
वह चढ़ती रही आकाश की तरफ

और वयस्क बनती रही

मैं हर जन्मदिन में
लोगों की भीड़
लादता रहा

बिखरते हुए जीवनपिंड से
भागने के लिए

वह एकदम तन्हा
बेखौफ़ है जैसे ‘आज’

क्योंकि
आज उसका जन्मदिन है

मैं उसकी
दीप्त जीवन की आभा
महसूस कर रहा हूं

वह मुझे चोंच मारके
मेरी ही ठंडी आंख से
मुझे देख रही है

मुझे ज्ञात हो रहा है
मेरा रिसता हुआ
जीवन का रस
उसकी लम्बी आयु के
अर्थवत्ता से छोटा है
संकीर्ण है।

क्रोध

क्रोध में
शेर बन गये मुर्गे
घड़ियाल बन गए केचुए
सदा जीभ के नीचे दबने वाले स्वर
गर्जन बन गए

क्रोध ने विवेक का
रथ भेदन किया
दृष्टिभ्रम किया

हाथ में पैना
हथियार थमा दिया

और दिया आदेश
प्रहार का ।

सम्पर्क :
द्वारा श्री कुमुद अधिकारी
प्रधान संपादक
हिंदी साहित्य सरिता
ई-मेल :kumudadhikari@gmail.com