"सेतु साहित्य" के पाठकों को
नव वर्ष 2008 की हार्दिक शुभकामनाएं !
इस अंक में "अनूदित साहित्य" के अंतर्गत प्रस्तुत हैं - पंजाबी के प्रसिद्ध कवि मोहनजीत की तीन कविताओं का हिंदी रूपांतर –
तीन पंजाबी कविताएं/ मोहनजीत
हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव
(1) माँ
मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी
हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-
क्या लिखा है?
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!
गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते
माथे को छूते- सवेर होती
दूधभरी छातियों को स्पर्श करते
तो चाँद निकलता
पता नहीं गीत का कितना हिस्सा
पहले का था
कितना माँ का
माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते
चलती तो एक लय बनती
माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर
'रबाब' भी कह लेती थी
पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है
और आह के साथ जो हूक निकलती है
उससे कौन-सा साज़ बना
माँ नहीं जानती थी
माँ कहाँ खोजनहार थी !
चरखा कातते-कातते सो जाती
उठती तो चक्की पर बैठ जाती
भीगी रात का माँ को क्या पता !
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती
मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ
इतना ही तो जानता हूँ
माँ सांस लेती तो लगता
रब जीवित है!
(2) चलना ही बनता है
आ जाओ ! बैठो !
पर दो पल रुको
कि अभी पवन से गुफ़्तगू में हूँ
सुबह से,संध्या से और चुप पसरी रात से
और उस सबसे जो नज़र के सामने है
और नज़र से परे भी
सोचता हूँ- फूल और खुशबू में क्या सांझ है !
मन और काल का क्या रिश्ता है !
प्यार हर जगह एक-सा है !
दोस्ती का दर्द क्यों डसता है !
तो क्या यों ही बैठा रहूँ
पहाड़ की तरह
प्रतीक्षा की तरह
या फिर चल पड़ूँ
पानी के बहाव की तरह
वक्त की सांस की तरह
मूल का क्या पता- कहाँ है
और अंत है कहाँ
अगर राह से वास्ता है
तो चलना ही बनता है।
(3) संवाद
वो तो एक पीर था
जो दूजे पीर से मिला
एक के पास दूध का कटोरा था- मुँह तक भरा
दूसरे के पास चमेली का फूल
माथों के तेज से
वस्तुएं अर्थों में बदल गईं
हम तो चलते हुए राह हैं
किसी मोड़, किसी चौराहे पर मिलते हैं
एक-दूजे के पास से गुजर जाते हैं
या एक-दूजे से बिछुड़ जाते हैं
वो भी एक चुप का दूसरी चुप से संवाद था
यह भी एक चुप का दूसरी चुप से संवाद है।
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