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सोमवार, 1 नवंबर 2010

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

बदला
डा. श्यामसुंदर दीप्ति
हिंदी अनुवाद : स्वयं लेखक द्वारा

“देख ! तू हर बात पर जिद मत किया कर। जो काम करने का होता है, वह तू करती नहीं।” उमा ने रचना को झिड़कते हुए कहा।
“करती तो हूँ सारा काम। सब्जी बनाने के लिए टमाटर नहीं लाके दिए थे ! आपके साथ कपड़े भी तो धुलवाये थे।” रचना ने मम्मी को दलील दी।
“यही काम तो नहीं करने होते। पढ़ भी लिया कर।” उमा को और गुस्सा आ गया।
“कर तो लिया स्कूल का काम।” रचना ने अपना स्पष्टीकरण दिया।
“अच्छा ! ज्यादा बातें मत कर और एक तरफ़ होकर बैठ।” रचना सिलाई-मशीन के कपड़े को पकड़ने लगी। उमा को गुस्सा आ गया और उसने थप्पड़ जमा दिया।
“अब अगर जो हाथ आ जाता मशीन में !”
रचना रोने लगी।
“अब रोना आ गया, चुप कर, नहीं तो और लगेगी एक। अच्छी बातें नहीं सीखनी, कोई कहना नहीं मानना।”
थोड़ी देर में दरवाजा खटका। उमा ने रचना से कहा, “अच्छा ! जाकर देख, कौन है बाहर?”
पहले तो वह बैठी रही और गुस्से से मम्मी की तरफ़ देखती रही, पर फिर दुबारा कहने पर उठी और दरवाजा खोला। रचना के पापा का कोई दोस्त था।
रचना दरवाजा खोलकर लौट आई।
“कौन था ?” रमा ने पूछा।
“अंकल थे।” रचना ने रूखा-सा जवाब दिया और साथ ही बोली, “मैंने अंकल को नमस्ते भी नहीं की।”

(उक्त लघुकथा किताब घर, नई दिल्ली से प्रकाशित सुकेश साहनी एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ द्बारा संपादित पुस्तक “बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ” से साभार ली गई है)

लेखक संपर्क :
97, गुरू नानक एवेन्यू,
मजीठा रोड
अमृतसर- 143004
दूरभाष: 098158-08506

रविवार, 27 जून 2010

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

सोच
धर्मपाल साहिल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

मैं अपना चैकअप करवाने के लिए मैटरनिटी होम गई तो कई महीनों के बाद अचानक वहाँ अपनी कुआँरी सहेली मीना को जच्चा-बच्चा वार्ड में दाख़िल पाकर मैंने हैरान होकर पूछा- “मीना तू यहाँ ? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई थी तेरे साथ?”
“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। बस, मैंने खुद ही अपनी कोख किराये पर दे दी थी।” उसने ज़र्द चेहरे पर मुस्कराहट लाकर कहा।
“यह भला क्यों किया तूने ?” मैंने हैरानी में पूछा।
“तुझे तो मालूम ही है कि मेरा एक सपना था कि मेरी आलीशान कोठी हो, अपनी कार हो और ऐशो-आराम की हर चीज़ हो।”
“फिर यह सब कैसे किया ?”
“मैंने अख़बार में इश्तहार पढ़ा। पार्टी से मुलाकात की। एग्रीमेंट हुआ। नौ महीने के लिए कोख का किराया एक लाख रुपये प्रति महीने के हिसाब से। बच्चा होने तक मेरी सेहत और निगरानी का खर्चा भी उन्हीं का।”
“इसलिए तू ग़ैर मर्द के साथ…”
“नहीं-नहीं, डॉक्टरों ने फर्टीलाइज्ड ऐग आपरेशन करके मेरी कोख में रख दिया। समय-समय पर चैकअप करवाते रहे। आज ही पूरी पेमेंट देकर बच्चा ले गए हैं।”
“न, अपनी कोख से जन्में बच्चे के लिए तेरी ममता ज़रा भी नहीं मचली। तुझे ज़रा भी दु:ख नहीं हुआ ?”
पर मीना ने मेरी बात हँसी में उड़ाते हुए कहा, “.बस इतना भर दु:ख हुआ, जितना एक किरायेदार द्वारा मकान छोड़ कर चले जाने पर होता है।”
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जन्म : 9 अगस्त 1958
शिक्षा : एम. एस. सी., एम. एड.
प्रकाशित पुस्तकें : अक्क दे बीं(लघुकथा संग्रह), नींह दे पत्थर (कहानी संग्रह), किन्नौर तों कारगिल (सफ़रनामा), धीयां मरजाणियां (उपन्यास)- सभी पंजाबी में।

संप्रति : डिस्ट्रिक्ट ऐजुसैट कोर्डिनेटर, पंजाब शिक्षा विभाग, होशियारपुर (पंजाब)
पता : पंचवटी, एकता एन्कलेव, लेन नंबर- 2, पोस्ट ऑफिस- साधु आश्रम, होशियारपुर (पंजाब)
ई मेल : vidha_talwara@yahoo.com
फोन : 018882-228936(घर), 09876156964(मोबाइल)

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

दोस्त
गुरमेल सिंह चहल
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव


आज सुबह ही पति-पत्नी के बीच छोटी-सी बात से हुई तकरार ने बड़ा रूप धारण कर लिया था। पति चुपचाप बिना कुछ खाये-पिये तैयार होकर दफ्तर पहुँच गया। दफ्तर पहुँचकर उसने पत्नी को मैसेज कर दिया, ''मैंने आज से रात की डयूटी करवा ली है।''
प्रत्युत्तर में पत्नी ने मैसेज से जवाब दे दिया, ''मैं भी यही चाहती थी, अच्छा किया।''
उन्होंने कई दिन न तो एक-दूजे को बुलाया और न ही एक दूजे को मिले। सुबह पति घर आता तो पत्नी दफ्तर चली जाती और शाम को पत्नी घर लौटती तो पति जा चुका होता। लेकिन घर के सारे कामकाज मैसेज के द्वारा ही हो रहे थे।
आज पत्नी का जन्मदिन था। पति ने सवेरे ही मैसेज द्वारा 'हैप्पी बर्थ डे टू यू' कह दिया। पत्नी ने भी मैसेज से ही 'थैंक यू।' कह दिया।
पति ने शाम को तीन बजे मैसेज भेज दिया, ''मैंने तेरे लिए गिफ्ट अल्मारी में बायीं ओर रखा है, ले लेना।''
उधर पत्नी ने मैसेज भेज दिया, ''तुम्हारे लिए केक फ्रिज में पड़ा है, मेरा नाम लेकर खा लेना।''
पाँच बजे पति ने मैसेज कर दिया, ''दिन कैसे बीतते हैं ?''
''बहुत बढ़िया ।'' पत्नी ने मैसेज भेजकर जवाब दे दिया।
''और रातें ?'' पति ने एक और मैसेज कर दिया।
''जहाँ अच्छे दोस्त साथ मिल जाएँ, फिर रातें भी बढ़िया गुजर जाती हैं।''
यह मैसेज पढ़ते ही पति आगबबूला हो उठा। वह झट दफ्तर से निकला और सीधा घर पहुँच गया।
''सीमा ! किस दोस्त की बात कर रही हो ?'' पति महीने बाद चुप को तोड़ता हुआ बोला।
''अपने दोस्त की जिसके सहारे इतने दिनों से मैं अकेलापन काट रही हूँ।''
''कहाँ है तेरा वो दोस्त ?'' पति बोला।
''बैड पर रजाई में पड़ा होगा।''
''यहाँ तो कोई नहीं।'' पति ने बैड पर से रजाई उठाते हुए पूछा।
''कोई क्यों नहीं, तुम्हारे सामने सिरहाने पर तो पड़ा है।''
''यह तो मोबाइल है।'' पति ने सिरहाने पर निगाह मारते हुए कहा।
''बस, यही तो मेरा दोस्त है। कभी गाने सुन लेती हूँ, कभी गेम खेल लेती हूँ। कभी तुम्हें मैसेज भेज देती हूँ और कभी तुम्हारा मैसेज पढ़ लेती हूँ। बस, इस तरह रात कट जाती है।'' आँसू पोंछती हुई पत्नी ने पति को आलिंगन में ले लिया।
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जन्म : 15 जनवरी 1971
शिक्षा : बी ए
कृतियाँ : अल्ले ज़ख्म(लघुकथा संग्रह-2004)
टिडा पंडित(बाल कहानी संग्रह- प्रकाशनाधीन)
चंगे बच्चे(बाल गीत- प्रकाशनाधीन)
संप्रति : स्टेट बैंक आफ इंडिया में कार्यरत।
सम्पर्क : 12/415, नानक नगर,मक्खू रोड
जीरा, जिला-फिराजपुर
फोन : 01682-251893(घर)
09463381196(मोबाइल)
ई मेल : gurgaganchahal@yahoo.com
Allejakham2004@yahoo.com

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

डॉ. दलीप कौर टिवाणा की लघुकथा


डॉ. दलीप कौर टिवाणा पंजाबी की एक प्रतिष्ठित और बहु-चर्चित लेखिका हैं जिनके अब तक दो दर्जन से अधिक उपन्यास, अनेक कहानी संग्रह, कई आलोचनात्मक पुस्तकें, एक आत्मकथा ‘नंगे पैरों का सफ़र’ तथा एक साहित्यिक स्व-जीवनी ‘पूछ्ते हो तो सुनो’ पंजाबी में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी अनेक रचनाएं कई भाषाओं में अनूदित होकर लोकप्रिय हो चुकी हैं। डॉ. टिवाणा पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में प्रोफ़ेसर हैं और अपने पंजाबी साहित्य लेखन के लिए अनेक प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवार्डों से विभूषित हो चुकी हैं। प्रस्तुत लघुकथा उनकी पंजाबी पुस्तक ‘मेरियाँ सारियां कहाणियाँ’ में से साभार ली गई है। पुस्तक में यह एक कहानी के रूप में प्रकाशित है, परन्तु मुझे यह एक श्रेष्ठ लघुकथा के अधिक करीब लगी, इसलिए यहाँ एक लघुकथा के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ…

एक्सीडेंट
डॉ. दलीप कौर टिवाणा
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

बस एकदम रुक गई। आगे बहुत भीड़ थी। ठेले का और कार का एक्सीडेंट हो गया था। हमारी बस की सवारियाँ भी देखने के लिए उतर गईं। मैं अपनी सीट पर बैठी रही। ऐसे दृश्य देख कर मेरा दिल घबराने लग जाता है।
मेरे से अगली सीट वाली औरत और मर्द भी नहीं उतरे।
मर्द ने औरत के पीछे की टेक पर अपनी बांह रखी हुई थी और औरत से बहुत सटकर बैठा हुआ था। औरत की गोद में बच्चा था। वह थोड़ा-सा घूम कर बच्चे को दूध पिलाने लगी। मर्द ने गौर से दूध पीते बच्चे की ओर देखा। मूंछों पर हाथ फेरा। पैरों में पड़ी गठरी को ठीक करके वह सरक कर औरत के और करीब हो गया और दूसरी तरफ़ झांकने लग पड़ा।
औरत ने मर्द की ओर झांक कर बच्चे को हल्की-सी चपत लगाते हुए कहा- “हरामी ! दांत काटता है ?” इसके साथ ही उसने उसके मुँह में से स्तन निकाल कर उसे सहलाया और फिर उसके मुँह में दे दिया।
“टब्बर कहाँ है ?” औरत ने मर्द का जायज़ा लेते हुए पूछा।
“पठानकोट।”
“कितने दिन बाद आ जाते हो ?”
“दो चार महीने के बाद।” मर्द ने यूँ बेदिली से जवाब दिया मानो परिवार और परिवारवालों की बातों में उसे कोई दिलचस्पी न हो।
“टब्बर को पास ही रखना चाहिए, ज़माना खराब है। बंदे की बुद्धि भ्रष्ट होने में कौन-सी देर लगती है।” औरत अपनी पीठ को छूती मर्द की बांह से बिलकुल अनजान बनते हुए कहने लगी।
“बात तो ठीक है, पर तुम्हारे जैसा बंदा तो कहीं भी रहे, किसी की क्या मजाल है।” मर्द ने औरत पर झुकते हुए खिड़की में से बाहर वाले एक्सीडेंट की ओर देखते हुए कहा।
“तुम्हारा बच्चा बड़ा शरारती है।” मर्द ने खिड़की में से सिर अन्दर करते हुए दूध चूँघते बच्चे की तरफ़ देखकर कहा।
“मुझे तो यही डर है कि कहीं बाप पर ही न चला जाए। वह तो निरा ही झुड्डू है।” औरत खुश होकर बोली।
“तुम्हें तो हर आदमी ही झुड्डू लगता होगा।”
“नहीं।” औरत ने हँसकर कहा।
“लाओ, काका मुझे पकड़ा दो। थक गए होगे इतने सफ़र में।”
बच्चे को लेते हुए मर्द ने औरत का हाथ बीच में ही दबाया और हँस पड़ा।
औरत भी हँस पड़ी और साथ ही, अपने बेटे के कपड़े संवारती हुई कहने लगी, “बेटा, पेशाब न कर देना अपने मामा पर।”
मर्द ने दूसरी खिड़की में से झांक कर देखा, लोग लौट आए थे। रास्ता साफ़ हो गया था और बस पुन: अपनी राह पर चलने को तैयार थी।
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रविवार, 28 अक्टूबर 2007

अनूदित साहित्य


गंदा नाला
सतिपाल खुल्लर
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल

बस से उतर कर उसने बस-स्टैण्ड की ओर उड़ती-सी नज़र डाली। बस-स्टैण्ड पर अभी पूरी तरह चहल-पहल नहीं हुई थी। फिर वह मुख्य सड़क पर आ गई। सड़क के किनारे आकर उसने दायें-बायें देखा। सड़क बिलकुल वीरान थी। उसने सड़क पार की और सड़क के बाईं ओर साथ-साथ चलने लगी। वह बाज़ार की ओर जा रही थी। बाज़ार शुरू होते ही वह कुछ संभल कर चलने लगी।
आठ वर्ष से अस्सी वर्ष तक की उम्र की प्रत्येक नज़र ने उसे मैली आँख से देखा। उसके बदन का भूगोल परखा। कइयों ने द्वि-अर्थी आवाज़ें कसीं। लेकिन वह सजग हुई चलती रही। उसका दफ़्तर बाज़ार के पार, उत्तर की ओर स्टेशन की तरफ था। वह चलती गई। गंदी आवाज़ें सारी राह छींटे बनकर उससे टकराती रहीं।
"तुम पर बलिहारी जाऊँ…" एक बौने-से दुकानदार ने मेंढ़क की तरह टर्र-टर्र की।
"ले गई रे, कलेजा निकाल कर, सुबह-सुबह।" एक रेहड़ी वाले ने कछुए की तरह गर्दन बाहर निकाल कर कहा।
नंगी आवाज़ों की जैसे बाढ़-सी आ गई। लेकिन, लड़की अपना दुपट्टा संभालती अपनी चाल चलती गई।
उस बत्तख-सी लड़की ने देखते ही देखते नित्य की तरह आज भी गंदा नाला पार कर लिया था। अब वह अपने दफ़्तर की ओर जा रही थी।

लेखक सम्पर्क-
गाँव व डाक : तलवंडी भाई
ज़िला- फिरोज़पुर(पंजाब)-142050


रिश्ते का नामकरण
दलीप सिंह वासन
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल

उजाड़ से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की से मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बनकर यहाँ आई है। रात को रेलवे-स्टेशन पर ही रहेगी। सुबह यहीं से ड्यूटी पर जा उपस्थित होगी। मैं गांव में अध्यापक लगा हुआ था। पहले हो चुकी एक-दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी।
"आपका रात में यहाँ ठहरना सुरक्षित नहीं। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी के घर में आपके ठहरने का प्रबंध कर दूँगा।"
जब हम गांव में से गुजर रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया, "मैं इस चौबारे पर रहता हूँ।" वह अटैची ज़मीन पर रख कर बोली, "थोड़ी देर आपके कमरे में ही रुक जाते हैं। मैं हाथ-मुंह धोकर कपड़े बदल लूंगी।"
बिना किसी वार्तालाप के हम-दोनों कमरे में आ गए।
"आपके साथ और कौन रहता है?"
"मैं अकेला ही रहता हूँ।"
"बिस्तर तो दो लगे हुए हैं।"
"कभी-कभी मेरी माँ आ जाती है।"
गुसलखाने में जाकर उसने हाथ-मुंह धोए, वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।
"आपने रसोई भी रखी हुई है?"
"यहाँ कौन-सा होटल है।"
"फिर तो मैं खाना भी यहीं खाऊँगी।"
बातों-बातों में रात बहुत गुजर गई थी। वह माँ वाले बिस्तर पर लेट गई थी।
मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था लेकिन, नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठकर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था, लेकिन उस में बसी औरत गहरी नींद में सोई थी।
मैं सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर जाकर टहलने लगा। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लगी।
"जाओ, सो जाओ। आपने सुबह ड्यूटी पर हाज़िर होना है," मैंने कहा।
"आप सोये नहीं?"
"मैं बहुत देर सोया रहा हूँ।"
"झूठ !"
"..."
वह बिलकुल मेरे सामने आ खड़ी हुई, "अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आप यूँ उनींदे नहीं रहते।"
"नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।" और मैंने उसके सिर पर हाथ फेर दिया


लेखक सम्पर्क–
101-सी, विकास कालोनी
पटियाला(पंजाब)–147003

शनिवार, 13 अक्टूबर 2007

अनूदित साहित्य



भविष्यवाणी
भूपिंदर सिंह

“जबरदस्त बरसात और आंधी आने वाली है बेटा।" बुजु़र्ग ने कहा।
“आपको कैसे मालूम?”
“वह देख, चींटियाँ अपने अंडे मुंह में रख कर ऊँची और सुरक्षित जगह की ओर चली जा रही हैं।" मेरी माँ ने दीवार पर ऊपर की ओर चढ़ती हुई चींटियों की लम्बी कतार को दिखाते हुए कहा, “कुदरत का करिश्मा है। इन्हें आने वाली जोरदार बरसात का पहले ही पता चल जाता है।"
मैं चींटियों पर से निगाहें हटा कर बाहर झांकने लगा। विद्यार्थी चुपचाप स्कूल जा रहे थे। मज़दूर चुपचाप कारखानों की ओर बढ़ रहे थे। कर्मचारी खामोश से दफ्तरों की ओर जा रहे थे।
ये सब मुझे चींटियों-से लगे।
"कोई बड़ा इन्कलाब आने वाला है।" मैं बुदबुदाया।


रोटी का टुकड़ा
भूपिंदर सिंह

बच्चा पिट रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर अपराध का भाव नहीं था। वह ऐसे खड़ा था जैसे कुछ हुआ ही न हो। औरत उसे पीटती जा रही थी "मर जा जा कर... जमादार हो जा... तू भी भंगी बन जा... तूने उसकी रोटी क्यों खाई?"
बच्चे ने भोलेपन से कहा, "माँ, एक टुकड़ा उनके घर का खाकर क्या मैं भंगी हो गया?"
"और नहीं तो क्या...।"
"और जो वो पिछले दस सालों से हमारे घर से रोटी खा रहा है तो वो क्यों नहीं बामण हो गया?" बच्चे ने पूछा।
माँ का उठा हुआ हाथ हवा में ही लहरा कर वापस आ गया। वह अपने बेटे के प्रश्न का जवाब देने में असमर्थ थी। वह कभी बच्चे को तो कभी उसके हाथ में पकड़ी हुई रोटी के टुकड़े को देख रही थी।
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

शनिवार, 6 अक्टूबर 2007

अनूदित साहित्य


सोच
धर्मपाल साहिल
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)


मैं अपना चैकअप करवाने के लिए मैटरनिटी होम गई तो कई महीनों के बाद अचानक वहाँ अपनी कुआंरी सहेली मीना को जच्चा-बच्चा वार्ड में दाखिल देख मैंने हैरानी से पूछा, “मीना, तू यहाँ? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई तेरे साथ?”

“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। बस, मैंने खुद ही अपनी कोख किराये पर दे दी थी।" उसने ज़र्द चेहरे पर मुस्कराहट लाकर कहा।
“यह भला क्यों किया तूने?” मैंने हैरानी से पूछा।
“तुझे तो पता ही है कि मेरा एक सपना था कि मेरी आलीशान कोठी हो, अपनी कार हो, और ऐशो-आराम की हर चीज़ हो।"
“फिर यह सब कैसे किया?”
“मैंने अख़बार में विज्ञापन पढ़ा। पार्टी से मुलाकात की। एग्रीमेंट हुआ। नौ महीने के लिए कोख का किराया एक लाख रुपये प्रति महीने के हिसाब से। बच्चा होने तक मेरी सेहत की निगरानी का खर्चा भी उनका।"
“इसलिए तू गैर-मर्द के साथ…”
“नहीं-नहीं, डाक्टरों ने फर्टीलाइज्ड ऐग आपरेशन करके मेरी कोख में रख दिया। समय-समय पर मेरा चैकअप करवाते रहे। आज पूरी पेमेंट करके बच्चा ले गए हैं।"
“पर, अपनी कोख से जन्मे बच्चे के लिए तेरी ममता ज़रा भी नहीं तड़पी? तुझे ज़रा भी दु:ख नहीं हुआ?” मीना ने मेरी बात हँसी में उड़ाते हुए कहा, “बस, इतना भर दु:ख हुआ जितना एक किरायेदार के मकान छोड़ कर जाने पर होता है।"



रोबोट
शरन मक्कड़
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

दो मित्र आपस में बातें कर रहे थे। एक वैज्ञानिक था, दूसरा इतिहास का अध्यापक। वैज्ञानिक कह रहा था, “देखो, विज्ञान ने कितनी तरक्की कर ली है। जानवर के दिमाग में यंत्र फिट करके, उसका रिमोट हाथ में लेकर जैसे चाहो जानवर को नचाया जा सकता है।"
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह एक गधा ले आया। रिमोट हाथ में पकड़ कर वह जैसे-जैसे आदेश देता, गधा वैसा-वैसा ही करता। वह कहता, “पूंछ हिला।" गधा पुंछ हिलाने लगता। इसी प्रकार वह दुलत्तियाँ मारता, ढेचूं-ढेचूं करता। लोट-पोट हो जाता। जिस तरह का हुक्म उसे मिलता, गधा उसी तरह उसकी तामील करता। वैज्ञानिक अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था।
वैज्ञानिक का मित्र जो बहुत देर से उसकी बातें सुन रहा था, गधे के करतब देख रहा था, शांत बैठा था। उसके मुँह से प्रशंसा का एक भी शब्द न सुनकर वैज्ञानिक को गुस्सा आ रहा था। आख़िर, उसने झुंझला कर जब उसकी चुप्पी के बारे में पूछा तो इतिहास का अध्यापक कहने लगा, “इसमें भला ऐसी कौन-सी बड़ी बात है? एक गधे के दिमाग में यंत्र फिट कर देना… मैं तो जानता हूँ, हज़ारों सालों से आदमी को मशीन बनाया जाता रहा है। आदमी के दिमाग में यंत्र फिट करना कौन-सा कठिन काम है?”
वैज्ञानिक हैरान था कि एक साधारण आदमी इतनी अद्भुत बातें कर रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि हज़ारों सालों से आदमी का दिमाग कैसे मशीन बनाया जाता रहा है। अपने मित्र की हैरानी को देख कर इतिहास का अध्यापक बोला, “आओ मैं तुम्हें एक झलक दिखाता हूँ।"
वे दोनों सड़क पर चलने लगे। अध्यापक ने देखा, एक फौजी अंडों की ट्रे उठाये जा रहा था। उसने उसके पीछे जा कर एकाएक ‘अटेंशन’ कहा। ‘अटेंशन’ शब्द सुनते ही फौजी के दिमाग में भरी हुई मशीन घूम गई जो न जाने कितने ही साल उसके दिमाग में घूमती रही थी। वह भूल गया था कि अब वह फौज में नहीं था, सड़क पर अंडे की ट्रे ले जा रहा था। ‘अटेंशन’ सुनते ही वह अटेंशन की मुद्रा में आ गया। अंडे हाथों से गिर कर टूट गए।
इतिहास का अध्यापक ठंडी सांस भर कर बोला, “यह है आदमी के दिमाग में भरा हुआ अनुशासन का यंत्र ! इसी तरह धर्म का, सियासत का, परंपरा का, सत्ता का रिमोट कंट्रोल हाथ में पकड़ कर आदमी, दूसरे आदमियों को ‘रोबोट’ बना देता है।" उसकी आँखों के सामने ज़ख़्मी इतिहास के पन्ने फड़फड़ा रहे थे।
“तुमने तो एक गधे को नचाया है। क्या तुम मुझे बता सकते हो कि हिटलर के हाथ में कौन-सा रिमोट कंट्रोलर था जिससे उसने एक करोड़ बेगुनाह यहुदियों को मरवा दिया था।"
अब वैज्ञानिक चुप था !

रविवार, 9 सितंबर 2007

अनूदित साहित्य

अनूदित साहित्य” के अंतर्गत इसबार पंजाबी के जाने-माने लघुकथाकार और पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका “मिनी” के संपादक डा0 श्यामसुंदर दीप्ती की दो चर्चित लघुकथाएं-

हद

एक अदालत में मुकदमा पेश हुआ।
“साहब, यह पाकिस्तानी है। हमारे देश में हद पार करता हुआ पकड़ा गया है।"
“तू इस बारे में कुछ कहना चाहता है?” मजिस्ट्रेट ने पूछा।
“मैंने क्या कहना है, सरकार। मैं तो खेतों में पानी लगा कर बैठा था, ‘हीर’ के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े, मैं उन्हीं बोलों को सुनता इधर चला आया। मुझे तो कोई हद नज़र नहीं आयी।"
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मूर्ति

वह बाज़ार से गुजर रहा था। एक फुटपाथ पर पड़ी मूर्तियाँ देखकर वह रुक गया।
फुटपाथ पर पड़ी खूबसूरत मूर्तियाँ! बढ़िया तराशी हुई! रंगों के सुमेल में मूर्तिकला का अनुपम नमूना थीं वे!

वह मूर्तिकला का कद्रदान था। उसने सोचा कि एक मूर्ति ले जाए। उसे गौर से मूर्तियाँ देखता पाकर मूर्तिवाले ने कहा- “ले जाओ साहब, भगवान कृष्ण की मूर्ति है।"

“भगवान कृष्ण?” उसके मुँह से यह एक प्रश्न की तरह निकला।
“हाँ, साहब, भगवान कृष्ण! आप तो हिन्दू हैं, आप तो जानते ही होंगे।"
वह खड़े-खड़े सोचने लगा कि यह मूर्ति तो आदमी को हिन्दू बनाती है।
“क्या सोच रहे हैं साहब? यह मूर्ति तो हर हिन्दू के घर होती है। ज्यादा मंहगी नहीं है।” मूर्तिवाला बोला।

“नहीं चाहिए…” कहकर वह वहाँ से चला गया।
0(हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव)

मंगलवार, 4 सितंबर 2007

अनुदित साहित्य

'अनूदित साहित्य' के अन्तर्गत इसबार प्रस्तुत हैं, पंजाबी के जाने-माने लघुकथाकार और "मिनी" त्रैमासिक पत्रिका के संपादक श्यामसुंदर अग्रवाल की दो उत्कृष्ट लघुकथाओं का हिन्दी अनुवाद -
संतू
प्रौढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बाल्टी उठा जब सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो मैंने उसे सचेत किया, "ध्यान से चढ़ना ! सीढ़ियों में कई जगह से ईंटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।"
"चिन्ता न करो जी… मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।"
और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बाल्टियाँ पानी ढोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला।
दो रुपये का नोट और चाय का कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा- "तू रोज आकर पानी भर जाया कर।"
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए संतू ने खुश होकर सोचा- 'रोज बीस रुपये बन जाते हैं पानी के। कहते हैं, अभी नहर में महीनाभर पानी नहीं आने वाला। मौज हो गई अपनी तो!'
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगले दिन सीढ़ियाँ चढ़कर जब संतू ने पानी के लिए बाल्टी मांगी तो पत्नी ने कहा- " अब तो ज़रूरत नहीं। रात को ऊपर की टूटी में पानी आ गया था।"
"नहर में पानी आ गया !" संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियाँ उतरने लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों में गिर पड़ने की आवाज़ हुई। मैंने दौड़कर देखा- संतू आंगन में औंधे मुँह पड़ा था। मैंने उसे उठाया। उसके माथे पर चोट लगी थी।
अपने माथे को पकड़ते हुए संतू बोला- "कल बाल्टी उठाये तो गिरा नही, आज खाली हाथ गिर पड़ा।"
मुझे लगा, उसको कल नहीं, आज सचेता करने की ज़रूरत थी!
यतीम
यतीम लड़के के दूध -से उजले कपड़ों की ओर ध्यान से देखते हुए जग्गू ने पूछा- "तू स्कूल जाता है?"
"हाँ, यतीमखाने के सारे बच्चे जाते हैं।"
"बड़ा किस्मत वाला है तू !" जग्गू ने यतीम लड़के को हसरतभरी दृष्टि से देखते हुए कहा।
"यतीम के साथ मज़ाक नहीं किया करते।" यतीम लड़का दु:खी मन से बोला।
"किस्मतवाला तो है ही ! मेरे पास न तेरे जैसे कपड़े हैं, न मैं स्कूल जा सकता हूँ।" जग्गू की आँखें भर आयीं।
"तू स्कूल नहीं जाता?… फिर सारा दिन क्या करता है?" यतीम लड़के ने हैरान होकर पूछा।
"होटल में बर्तन मांजता हूँ।"
"तू यतीमखाने क्यों नहीं आ जाता?"
"मन तो बहुत करता है, पर वे मुझे रखते नहीं।
"क्यों?…" यतीम लड़का हैरान था।
"मेरे मां-बाप जो जिंदा हैं।" कहते हुए जग्गू की आँखों में से आँसू टपकने लगे।
(हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव)

शनिवार, 25 अगस्त 2007

जालों वाली छ्त
दर्शन जोगा
हिन्दी रूपान्तर: सुभाष नीरव

आज फिर दोनों बहू और ससुर दफ्तर पहुँचे हैं। पहाड़ जैसी चोट का मारा बेचारा बुज़ुर्ग अधिक उम्र और कमजोर सेहत होने के कारण, थोड़ा दम भरने के लिए कमरे के बाहर बिछी बैंच की ओर बढ़ा तो बहू ने हाँफ रहे ससुर की हालत देखकर कहा, “आप बैठ जाओ बापू जी, मैं करती हूँ पता।”
कमरे में घुसते हुए पहले की भांति उसकी नज़र तीन-चार मेजों पर गयी। जिस मेज पर से वे कई बार आकर लौटते रहे थे, उस पर आज मरियल से बाबू की जगह भरवें शरीर वाली एक लड़की गर्दन झुकाये कागजों को उलट-पलट रही थी। लड़की को देखकर उसने राहत महसूस की।
“सतिश्री अकाल जी!” कमरे में बैठे सभी लोगों को उसने साझा नमस्कार किया। एक-दो ने रूखी निगाहों से उसकी ओर देखा, पर नहीं दिया। जब वह उसी मेज की ओर बढ़ी तो क्लर्क लड़की ने पूछा, “हाँ, बताओ?”
“बहन जी, मेरा घरवाला सरकारी मुलाजिम था, पिछ्ले दिनों सड़क हादसे में मारा गया। भोग वाले दिन महकमेवाले कहते थे कि रुपये-पैसे की जो मदद गोरमिंट से मिलनी है, वो तो मिल ही जाएगी, साथ में उसकी जगह पर नौकरी भी मिलेगी। पर मरने वाले पर निर्भर वारिसों का सर्टिफिकेट लेकर देना होगा। पटवारी से लिखवाकर कागज यहाँ भेजे हुए हैं, अगर हो गए हों तो देख लो जी।”
“क्या नाम है मृतक का?” क्लर्क लड़की ने संक्षिप्त और खुश्क भाषा में पूछा।
“जी, सुखदेव सिंह।”
कुछेक कागजों को इधर-उधर करने के बाद एक रजिस्टर खोलकर लड़की बोली, “करमजीत कौर विधवा सुखदेव सिंह?”
“ हाँ जी, यही है।” वह जल्दी-जल्दी इस तरह बोली जैसे सब कुछ मिल गया हो।
“साहब के पास अन्दर भेजा है केस।”
“पास करके जी?” उसी उत्सुकता से विधवा ने पूछा।
“नहीं, अभी तो अफ़सर के पास भेजा है। क्या पता, वह क्या लिखकर भेजे। जैसा वह लिखेगा, उसी तरह कार्रवाई होगी।”
“बहन जी, अन्दर जाकर आप खुद करा दो।” उसने विनती की।
“लो, अन्दर कौन-सा एक तुम्हारा ही कागज है। ढेर लगा पड़ा है। और फिर एक-एक कागज के पीछे घूमते रहे तो शाम तक हम पागल हो जाएंगे।”
“देख लो जी। हम रब के मारों को तो आपका ही आसरा है।” विधवा ने कांपती आवाज़ में लगभग रोते हुए याचना की।
“तेरी बात सुन ली मैंने, हमारे पास ऐसे ही केस आते हैं।”
विधवा औरत भारी हो उठे पैरों को बमुश्किल उठाती, अपने आप को सम्भालती, बैंच पर पीठ टिकाये बैठे ससुर के पास आकर खड़ी हो गयी।
“क्या हुआ?” देखते ही ससुर बोला।
“बापू जी, हमारे भाग इतने अच्छे होते तो वो ही क्यों चला जाता शिखर-दुपहरी।”
बुजुर्ग को उठने के लिए कहकर धुंधली आंखों से दफ्तर की छत के नीचे लगे जालों को निहारती वह धीरे-धीरे बरामदे से बाहर की ओर चल दी।
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पुण्य
अणिमेश्वर कौर
हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव

“विलैत से कब आए टहल सिंह?”
“हो गये कोई पन्द्रह-बीस दिन। अपना विवाह करवाने आया था, अब कल सुबह की फ्लाइट है मेरी।”
“वाह, भाई वाह! टहल सिंह, अगर मैं गलत नहीं तो यह तेरी तीसरी शादी है।” बात को जारी रखते हुये सरवण पूछने लगा, “भाई यह तो बता, तू जल्दी-जल्दी शादियाँ किये जा रहा है, पहली वाली दो क्या हुआ?”
“होना क्या था, पहली विवाह के बाद इंडिया में ठीक-ठाक थी। जब इंग्लैंड गयी तो सिर फिर गया--- और तलाक हो गया। फिर दूसरी जगह गाँव की लड़की से विवाह करवा लिया। उसे भी गोरों की धरती पर पैर रखते ही पंख लग गये--- रोज लड़ती थी मेरे से ससुरी! कहती थी- तू भी काम किया कर घर का। बस, कुछ महीनों के बाद तलाक हो गया। रहती हैं दोनों अपने-अपने कौंसलों के फ्लैटों में।”
“पर यह बात तो बहुत खराब है टहल सिंह। माँ-बाप बड़ी हसरतों से पालते-पोसते हैं बेटियों को और विलैत में जाकर कुछ और ही हो जाता है।”
इस पर टहल सिंह ने दाढ़ी-मूँछों को संवारते हुये जवाब दिया, “अरे सरवण, तुझे क्या समझ वहाँ की? दुख तो क्या होना है, तलाक लेकर चाहे जितनी बार विवाह करवायें। यह क्या कम है कि गाँव से निकलकर विलैत में जगह मिल गयी। मैं तो निरा पुण्य कर रहा हूँ, नहीं तो गाँव में ही उम्र गल जाती इनकी।” फिर गले को साफ करता हुआ कहने लगा, “भई देखो न, इतनी दूर से किराया-भाड़ा खर्च करके आते हैं यहाँ--- नहीं तो वहाँ क्या लड़कियों का कोई घाटा है? बहुत मिल जाती हैं, पर हम तो यहाँ से ले जाकर निरा पुण्य ही कर रहे हैं।”
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अनूदित साहित्य

सेतु साहित्य में अनूदित साहित्य के अन्तर्गत सबसे पहले हम “लघुकथा” विधा को ले रहे है। प्रस्तुत है- पंजाबी की एक लघुकथा का हिन्दी अनुवाद…

छुटकारा
जसबीर ढंड

अनुवाद : सुभाष नीरव

माँ बियासी बरस की हो गई है। कई बार मौत के मुँह से बची है। अब हालत खस्ता ही है।

दिल्ली वाले मामा को गुजरे कई साल हो गये हैं। मामी विद्यावंती मामा की पेंशन से गुज़ारा करती है। दो बेटे हैं, पर दोनों की आपस में अनबन रहती है। मामा जीवित रहते आधा-आधा मकान दोनों बेटों के नाम कर गये थे। छोटा कस्टम अफसर तो तभी अपने हिस्से का मकान किराये पर देकर अलग होकर पटेल नगर रहने लग पड़ा था।

पिछले साल मामी गुसलखाने में फिसलकर गिर पड़ी थी और कूल्हा टूट जाने के कारण बिस्तर पर पड़ गई थी। छोटे कस्टम अफसर ने तो यह कहकर मामी को संग रखने से इन्कार कर दिया था कि उसके बच्चे छोटे हैं, इन्फैक्शन का डर है। बड़े ने मामी को मिलने वाली पेंशन में से हजार रुपये महीने पर एक माई रख दी थी। वही चौबीस घंटे उसको संभालती। स्वयं उन्हें काम-धंधों से फुर्सत कम ही मिलती थी।

मैं कल अंधेरा होने पर बाजार से लौटा तो बेटे ने कहा- “डैडी, दिल्ली से फोन आया था। आपकी मामी विद्यावती का स्वर्गवास हो गया।"

“दादी को तो नहीं बताया ।" मैंने बेटे से पूछा।
मुझे डर था कि माँ के लिए यह सदमा सहन करना कठिन होगा। औरतें चाहें बूढ़ी हो जायें, पर मायके की तरफ से भाइयों–भाभियों की चिंता करती ही रहती हैं। यों ही सुनकर विलाप करेगी।

“दादी को तो बता दिया।" बेटे ने जैसे सरसरी तौर पर कहा।
“फिर?… माँ रोई–कलपी नहीं…?"
“नहीं, वह तो कहती थी– चलो, छूट गई दोजख से।"
मेरे सिर पर से मानो बोझ–सा उतर गया।
माँ के कमरे में गया तो वह अंधेरे में ही पड़ी थी।
लाइट जलाई तो देखा वह मुँह–सिर लपेटे पड़ी–पड़ी धीरे–धीरे सिसक रही थी। सिरहाने का एक किनारा गीला था।
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शनिवार, 18 अगस्त 2007

अनूदित साहित्य

पुण्य
अणिमेश्वर कौर
हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव

“विलैत से कब आए टहल सिंह?”
“हो गये कोई पन्द्रह-बीस दिन। अपना विवाह करवाने आया था, अब कल सुबह की फ्लाइट है मेरी।”
“वाह, भाई वाह! टहल सिंह, अगर मैं गलत नहीं तो यह तेरी तीसरी शादी है।” बात को जारी रखते हुये सरवण पूछने लगा, “भाई यह तो बता, तू जल्दी-जल्दी शादियाँ किये जा रहा है, पहली वाली दो क्या हुआ?”
“होना क्या था, पहली विवाह के बाद इंडिया में ठीक-ठाक थी। जब इंग्लैंड गयी तो सिर फिर गया--- और तलाक हो गया। फिर दूसरी जगह गाँव की लड़की से विवाह करवा लिया। उसे भी गोरों की धरती पर पैर रखते ही पंख लग गये--- रोज लड़ती थी मेरे से ससुरी! कहती थी- तू भी काम किया कर घर का। बस, कुछ महीनों के बाद तलाक हो गया। रहती हैं दोनों अपने-अपने कौंसलों के फ्लैटों में।”
“पर यह बात तो बहुत खराब है टहल सिंह। माँ-बाप बड़ी हसरतों से पालते-पोसते हैं बेटियों को और विलैत में जाकर कुछ और ही हो जाता है।”
इस पर टहल सिंह ने दाढ़ी-मूँछों को संवारते हुये जवाब दिया, “अरे सरवण, तुझे क्या समझ वहाँ की? दुख तो क्या होना है, तलाक लेकर चाहे जितनी बार विवाह करवायें। यह क्या कम है कि गाँव से निकलकर विलैत में जगह मिल गयी। मैं तो निरा पुण्य कर रहा हूँ, नहीं तो गाँव में ही उम्र गल जाती इनकी।” फिर गले को साफ करता हुआ कहने लगा, “भई देखो न, इतनी दूर से किराया-भाड़ा खर्च करके आते हैं यहाँ--- नहीं तो वहाँ क्या लड़कियों का कोई घाटा है? बहुत मिल जाती हैं, पर हम तो यहाँ से ले जाकर निरा पुण्य ही कर रहे हैं।”
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जालों वाली छ्त
दर्शन जोगा
हिन्दी रूपान्तर: सुभाष नीरव

आज फिर दोनों बहू और ससुर दफ्तर पहुँचे हैं। पहाड़ जैसी चोट का मारा बेचारा बुज़ुर्ग अधिक उम्र और कमजोर सेहत होने के कारण, थोड़ा दम भरने के लिए कमरे के बाहर बिछी बैंच की ओर बढ़ा तो बहू ने हाँफ रहे ससुर की हालत देखकर कहा, “आप बैठ जाओ बापू जी, मैं करती हूँ पता।”
कमरे में घुसते हुए पहले की भांति उसकी नज़र तीन-चार मेजों पर गयी। जिस मेज पर से वे कई बार आकर लौटते रहे थे, उस पर आज मरियल से बाबू की जगह भरवें शरीर वाली एक लड़की गर्दन झुकाये कागजों को उलट-पलट रही थी। लड़की को देखकर उसने राहत महसूस की।
“सतिश्री अकाल जी!” कमरे में बैठे सभी लोगों को उसने साझा नमस्कार किया। एक-दो ने रूखी निगाहों से उसकी ओर देखा, पर नहीं दिया। जब वह उसी मेज की ओर बढ़ी तो क्लर्क लड़की ने पूछा, “हाँ, बताओ?”
“बहन जी, मेरा घरवाला सरकारी मुलाजिम था, पिछ्ले दिनों सड़क हादसे में मारा गया। भोग वाले दिन महकमेवाले कहते थे कि रुपये-पैसे की जो मदद गोरमिंट से मिलनी है, वो तो मिल ही जाएगी, साथ में उसकी जगह पर नौकरी भी मिलेगी। पर मरने वाले पर निर्भर वारिसों का सर्टिफिकेट लेकर देना होगा। पटवारी से लिखवाकर कागज यहाँ भेजे हुए हैं, अगर हो गए हों तो देख लो जी।”
“क्या नाम है मृतक का?” क्लर्क लड़की ने संक्षिप्त और खुश्क भाषा में पूछा।
“जी, सुखदेव सिंह।”
कुछेक कागजों को इधर-उधर करने के बाद एक रजिस्टर खोलकर लड़की बोली, “करमजीत कौर विधवा सुखदेव सिंह?”
“ हाँ जी, यही है।” वह जल्दी-जल्दी इस तरह बोली जैसे सब कुछ मिल गया हो।
“साहब के पास अन्दर भेजा है केस।”
“पास करके जी?” उसी उत्सुकता से विधवा ने पूछा।
“नहीं, अभी तो अफ़सर के पास भेजा है। क्या पता, वह क्या लिखकर भेजे। जैसा वह लिखेगा, उसी तरह कार्रवाई होगी।”
“बहन जी, अन्दर जाकर आप खुद करा दो।” उसने विनती की।
“लो, अन्दर कौन-सा एक तुम्हारा ही कागज है। ढेर लगा पड़ा है। और फिर एक-एक कागज के पीछे घूमते रहे तो शाम तक हम पागल हो जाएंगे।”
“देख लो जी। हम रब के मारों को तो आपका ही आसरा है।” विधवा ने कांपती आवाज़ में लगभग रोते हुए याचना की।
“तेरी बात सुन ली मैंने, हमारे पास ऐसे ही केस आते हैं।”
विधवा औरत भारी हो उठे पैरों को बमुश्किल उठाती, अपने आप को सम्भालती, बैंच पर पीठ टिकाये बैठे ससुर के पास आकर खड़ी हो गयी।
“क्या हुआ?” देखते ही ससुर बोला।
“बापू जी, हमारे भाग इतने अच्छे होते तो वो ही क्यों चला जाता शिखर-दुपहरी।”
बुजुर्ग को उठने के लिए कहकर धुंधली आंखों से दफ्तर की छत के नीचे लगे जालों को निहारती वह धीरे-धीरे बरामदे से बाहर की ओर चल दी।
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मंगलवार, 14 अगस्त 2007

अनूदित साहित्य

सेतु साहित्य में सर्वप्रथम हम "लघुकथा" विधा को ले रहे हैं। इस बार प्रस्तुत है- एक पंजाबी लघुकथा का हिन्दी अनु्वाद-

छुटकारा

लेखक- जसवीर ढंड
हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव

माँ बियासी वर्ष की हो गयी है।
कई बार मौत के मुँह से बची है। अब हालत खस्ता ही है।
दिल्लीवाले मामा को गुजरे कई साल हो गये हैं। मामी विद्यावती मामा की पेंशन से गुजारा कर रही है। दो बेटे हैं, पर दोनों की आपस में अनबन रहती है। मामा जीते-जी आधा-आधा मकान दोनों के नाम लिखवा गया था। छोटा जो कस्टम-अफ़सर है, तभी अपने हिस्से का मकान किराये पर उठाकर अलग रहने लगा था- पटेल नगर में।
पिछले साल मामी गुसलखाने में फिसलकर गिर पड़ी थी और कूल्हा टूट जाने के कारण चारपाई से बंध गयी थी। कस्टम अफ़सर बेटे ने तो यह कहकर मामी को रखने से इनकार कर दिया था कि उसके बच्चे छोटे हैं, इन्फेक्शन का डर है। बड़े ने मामी को मिलनेवाली पेंशन में से हज़ार रुपये महीना पर एक माई रख दी थी। वही दिन-रात मामी को सम्भालती। बेटे-बहू को तो फुरसत ही न मिलती, अपने काम-धंधों से।
मैं कल अन्धेरा होने पर बाज़ार से घर लौटा तो मेरे बेटे ने कहा- "डैडी ! दिल्ली से फोन आया था, आपकी मामी जी का स्वर्गवास हो गया।"

"दादी को तो नहीं बताया?" मैंने बेटे से पूछा।
मुझे डर था कि माँ यह सदमा सहन नहीं कर पायेगी। औरतें चाहे कितनी ही बूढ़ी क्यों न हो जायें, मायकेवालों - भाई-भाभियों का मोह कुछ अधिक ही किया करती हैं, यूँ ही सुनकर माँ विलाप करेगी।
"दादी को तो बता दिया।" बेटे ने जैसे सरसरी तौर पर कहा।

"फिर? दादी रोई- कुरलाई नहीं?"

"नहीं, वो तो बोली- चलो, छूट गयी बेचारी दोजख से।"
मेरे सिर पर से जैसे बोझ-सा उतर गया।
माँ के कमरे में गया तो वह अन्धेरे में ही पड़ी हुई थी। लाइट जलाई तो देखा, वह मुँह-सिर लपेटे धीरे-धीरे बेआवाज़ सुबक रही थी।
सिरहाने का एक हिस्सा गीला था।

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