गुरुवार, 8 जनवरी 2009

अनूदित साहित्य


ओड़िया कविता

सीताकांत महापात्र की कविताएं
अनुवाद : गगन गिल/सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र



परछाईं


देख रहा था काफ़ी दिनों से
वो वहीं खड़ी है
पैर जमाये, सिर झुकाये
ठीक मेरे फाटक के आगे
अडिग मूरत जैसी।

चाहती तो अचानक ही फाटक खोल
अंदर आ सकती थी
बरामदे, ड्राइंग-रूम से होती हुई
यहाँ तक कि सीधे मेरे शयन-कक्ष में आ सकती थी
मेरी किताबें, मेरे ख़याल
मेरी शेष ज़िंदगी, मेरे सपने
जो भी चाहती ले जा सकती थी
लेकिन मूर्ख ऐसा कुछ नहीं करती
यहाँ तक कि झिझकती-सकुचाती आवाज़ में औरों की तरह
चबूतरे पर चढ़कर
‘महाराज-महाराज’ कहकर भी नहीं बुलाती।

यहाँ से राह बदल कर लौट भी नहीं जाती
धूप, ताप, ठंड, पाला सब सह कर
चाँदनी रात में डरौने की तरह
वहीं उसी तरह खड़ी रहती है।

फाटक भी तो नहीं खोलता
पर न जाने वो कैसा जादू जानती है कि
मेरे सारे सपनों में आकर उपस्थित हो जाती है
और उसके बाद ही, बेटी-बेटा, पत्नी और ख़ुद मैं
कुर्सियों पर आमने-सामने बैठ होते हैं
चाय पीते समय भी लगता है
हम सभी नीले आकाश में टिमटिमाते नक्षत्र हैं
अचानक सारी बातचीत अटपटी लगने लगती है
कोई बात खत्म करने से पहले
अनमना होकर मैं चुप हो जाता हूँ।

हो सकता है उसी के डर से
जो चिड़ियाँ घर के सामने वृक्ष की डालों पर बैठ
गीत गाया करती थीं
और मैं सोचा करता था
वे गा रहीं हैं सिर्फ़ मेरे लिए
न जाने कहाँ उड़ जाती हैं
बेल-बूटे कमज़ोर और सूखे लगने लगते हैं
चाँद की रौशनी भी मैली लगने लगती है
लगता है, अगर कुछ और दिनों तक वह इसी तरह
वहाँ खड़ी रही तो
चाँद पूरी तरह स्याह हो जाएगा
चिड़ियाँ चहकना बिसर जाएंगी
सारे शब्द कहीं गुम हो जाएंगे।

नौकर-चाकर, पत्नी, बच्चे जिससे भी पूछो
वे कहते हैं- कहाँ है ?
फाटक के पास तो नंगी हवा के सिवा
और कोई भी तो नहीं !
मैं कितनी तरकीबें लगाता हूँ
उसे सम्मानित मेहमान बनाकर
अंदर घर में ले आऊँ
और उसमें असफल होने पर
डरा-धमका कर दुश्मन की तरह भगा दूँ।

लेकिन कोई लाभ नहीं होता
क्या रात, क्या दिन
क्या आषाढ़, क्या फाल्गुन
सिर झुकाये, सपने में देखे सपने-सी
वह वहीं उसी तरह खड़ी रहती है।
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बहता नहीं समय

बहता नहीं समय
बह जाते हैं लोग
सारे प्राणी ही बह जाते हैं।

भूरा कोटधारी बादल
चबूतरे की दीवार से टिके बैठे
आकाश की ओर देखते चित्र-प्रतिमा
पिताजी को अलविदा-अलविदा कह कर बैठ जाता है
उसके दूसरे ही दिन
पिता जी हमारी ओर पीठ किए
आहिस्ता-आहिस्ता दूर बहते चले जाते हैं
उसी दिशा में
आसमान के नीचे विदा हो रहे सूर्य के साथ।

अलविदा-अलविदा कह कर झड़ जाते हैं पत्ते
रोते हुए वृक्ष को अगले दिन
काट कर ले जाते हैं लकड़हारे
वो विदा हो जाता है
न जाने कब से खड़ा था मिट्टी पर !

अकस्मात् दिखने लग जाते हैं
घर, घाट, नदी, किनारे, जंगल
पत्नी, पुत्र, संगी-साथी
अनदेखे समय के सारे दृश्य
बह जाते हैं अंधकार की ओर ।

वह अंधेरा तेरा साया है
तुझे तो पता होगा
क्यों और कहाँ
बह जाते हैं
हम सब ?
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(ओड़िया के प्रख्यात कवि सीताकांत महापात्र की कविताओं का पंजाबी अनुवा्द हिंदी कवयित्री गगन गिल ने किया है जिसे “शब्दां दा अकाश ते होर कवितावां” शीर्षक से पुस्तक रूप में साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1995 में प्रकाशित किया गया था। उक्त दोनों कविताएं इसी पंजाबी कविता संग्रह से ली गई हैं और पंजाबी से इनका हिन्दी अनुवाद सुभाष नीरव ने किया है)


जन्म : 17 सितंबर 1937, कटक (उड़ीसा)।
उड़िया के प्रख्यात कवि। भारत सरकार और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय संस्थानों में उच्चस्थ पदों पर रहे। कविता, निबंध, यात्रा-संस्मरण आदि विधाओं पर अनेक पुस्तकें। तीस से अधिक कविता की पुस्तकें प्रकाशित। अनेकों कविताओं का भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद। ज्ञानपीठ अवार्ड(1993), सरला अवार्ड(1985), उड़िया साहित्य अकादमी अवार्ड( 1971 व 1984), साहित्य अकादमी अवार्ड(1974) के साथ-साथ अन्य कई सम्मानों से सम्मानित। संप्रति : नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष। पता : श्रद्धा, 21, सत्य नगर, भुवनेश्वर (उड़ीसा)।