
पंजाबी कविता
तनदीप तमन्ना की पाँच कविताएँ
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव
तनदीप तमन्ना की पाँच कविताएँ
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव
1
ख़ुदा ख़ैर करे
.jpg)
मैं सरसरी पूछ बैठी-
“क्या हाल-चाल है ?”
तेरा जवाब था कि
“जो आग लगने के बाद
सरकंडों की झाड़ियों का होता है…”
अधर सिल गए थे मेरे
कुछ पलों का सन्नाटा
तेरा दर्द
मेरी रूह के हवाले कर गया था।
तूने कहा-
“…चाहे बातें न कर
पर
हुंकारा तो भर…
शाम आराम से बीत जाए…”
मैंने कहा-
“…कहीं शाम के साथ
बातें भी बीती न हो जाएं
हुंकारा भरते-भरते
कोई बात न शुरू हो जाए।”
तूने देखा हसरत भरी नज़रों से
और फिर
ठंडी आह भरकर रह गया था।
तूने वास्ता दिया था
“बाहरों में तो न मिला कर
पतझर-सा चेहरा लेकर…”
मैंने कहा-
“तेरा गिला भी जायज़ है
पर मैं तुझे
बारिश में तो मिलती हूँ
आँखों में झड़ी लेकर…।”
अब हम दोनों चुप खड़े थे !
मेरी आँखों के अंदर की
शोख तितली
तेरे मन के
मनचले भौंरे का हाथ थाम
तर्क के ग्लेशियर की
सीमा पार कर चुकी थी
और हम
सूरज को क्षितिज पर
अस्त होता देख रहे थे।
00
2
कुछ कहना तो ज़रूर था
.jpg)
आज
कुछ कहना तो था
शब्दों के
दाँत भिच गए…
ख़यालों के
होश उड़ गए
अहसासों को
लकवा मार गया
इशारे आँखों में ही
पथरा गए
वैसे
आज
कुछ कहना तो
ज़रूर था !
00
3
पिरामिड
.jpg)
सदियों पहले
किसी ने दफ़ना दिया था मुझे
देह पर चंदन का लेप कर
हीरे, चांदी और सोने से लाद कर
गहरी नींद की दवा दे कर!
पर मैं
मैं उस पिरामिड में से
हर रात जागती हूँ
तारों की रोशनी में
आहिस्ता से पैर धर
हवा के मातमी
सुरों की हामी भर
धरती का चप्पा-चप्पा
पर्वत, नदियाँ, समन्दर,
ज्वालामुखी, ग्लेशियर घूम
तुझे किसी योग-मुद्रा में लीन
तपस्या करते देख
तेरे हठ को सलाम कर
अगली बार
समाधि खुलने की आस लिए
पौ फटने से पहले ही
आँखों में से ढ़ुलकदे मोतियों को
तेरे बे-रहम शहर की
रेत में बीज कर
ताबूत की ओर लौट आती हूँ !
00
4
कस्तूरी गायब है
.jpg)
यहाँ घरों में
सब कुछ है
पर कुछ भी तो नहीं…
यहाँ भरे हुए बर्तन खनकते हैं।
और इन घरों के बाशिंदे
मरुस्थल में
तड़फती मछलियाँ हैं।
हज़ारों रोशनियों में
सिल्क के पर्दों के पीछे
सूरज को पकड़ने के लिए
साये जीते हैं।
परबतों की चीख
नदी का दर्द
समाये रह जाते हैं
दिलकश चित्रों के अंदर।
एक्वेरिअम में पाल कर मछलियाँ
पालते हैं भ्रम
ठांठे मारते समुद्र का।
आलीशान घरों के कमरे
सिकुड़ जाते हैं
और पीर
और भी बढ़ जाती है
महकों के प्यासे मृगों की।
00
ख़ुदा ख़ैर करे
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मैं सरसरी पूछ बैठी-
“क्या हाल-चाल है ?”
तेरा जवाब था कि
“जो आग लगने के बाद
सरकंडों की झाड़ियों का होता है…”
अधर सिल गए थे मेरे
कुछ पलों का सन्नाटा
तेरा दर्द
मेरी रूह के हवाले कर गया था।
तूने कहा-
“…चाहे बातें न कर
पर
हुंकारा तो भर…
शाम आराम से बीत जाए…”
मैंने कहा-
“…कहीं शाम के साथ
बातें भी बीती न हो जाएं
हुंकारा भरते-भरते
कोई बात न शुरू हो जाए।”
तूने देखा हसरत भरी नज़रों से
और फिर
ठंडी आह भरकर रह गया था।
तूने वास्ता दिया था
“बाहरों में तो न मिला कर
पतझर-सा चेहरा लेकर…”
मैंने कहा-
“तेरा गिला भी जायज़ है
पर मैं तुझे
बारिश में तो मिलती हूँ
आँखों में झड़ी लेकर…।”
अब हम दोनों चुप खड़े थे !
मेरी आँखों के अंदर की
शोख तितली
तेरे मन के
मनचले भौंरे का हाथ थाम
तर्क के ग्लेशियर की
सीमा पार कर चुकी थी
और हम
सूरज को क्षितिज पर
अस्त होता देख रहे थे।
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कुछ कहना तो ज़रूर था
.jpg)
आज
कुछ कहना तो था
शब्दों के
दाँत भिच गए…
ख़यालों के
होश उड़ गए
अहसासों को
लकवा मार गया
इशारे आँखों में ही
पथरा गए
वैसे
आज
कुछ कहना तो
ज़रूर था !
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3
पिरामिड
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सदियों पहले
किसी ने दफ़ना दिया था मुझे
देह पर चंदन का लेप कर
हीरे, चांदी और सोने से लाद कर
गहरी नींद की दवा दे कर!
पर मैं
मैं उस पिरामिड में से
हर रात जागती हूँ
तारों की रोशनी में
आहिस्ता से पैर धर
हवा के मातमी
सुरों की हामी भर
धरती का चप्पा-चप्पा
पर्वत, नदियाँ, समन्दर,
ज्वालामुखी, ग्लेशियर घूम
तुझे किसी योग-मुद्रा में लीन
तपस्या करते देख
तेरे हठ को सलाम कर
अगली बार
समाधि खुलने की आस लिए
पौ फटने से पहले ही
आँखों में से ढ़ुलकदे मोतियों को
तेरे बे-रहम शहर की
रेत में बीज कर
ताबूत की ओर लौट आती हूँ !
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कस्तूरी गायब है
.jpg)
यहाँ घरों में
सब कुछ है
पर कुछ भी तो नहीं…
यहाँ भरे हुए बर्तन खनकते हैं।
और इन घरों के बाशिंदे
मरुस्थल में
तड़फती मछलियाँ हैं।
हज़ारों रोशनियों में
सिल्क के पर्दों के पीछे
सूरज को पकड़ने के लिए
साये जीते हैं।
परबतों की चीख
नदी का दर्द
समाये रह जाते हैं
दिलकश चित्रों के अंदर।
एक्वेरिअम में पाल कर मछलियाँ
पालते हैं भ्रम
ठांठे मारते समुद्र का।
आलीशान घरों के कमरे
सिकुड़ जाते हैं
और पीर
और भी बढ़ जाती है
महकों के प्यासे मृगों की।
00
5
दर्द
.jpg)
अतीत का
ज़िक्र छिड़ते ही
हाथों के बीच का आटा
खमीर बन गया है
एक रात
हाँ, उस रात
तेरे दर्द के जंगल में से
गुजरी थी
पंख कतरे गए थे मेरी
चीख के।
जंगल की ख़ामोशी
परतें बन चढ़ गई थी
मेरे जेहन पर।
काले फ़नीअर
विष त्याग गए थे
शब्द रहित दर्द
बाहें खोल कर आया।
जब हम जुदा हुए तो
तेरा लावा…
मेरा ग्लेशियर…
बांहों में भर
दर्द
किसी पहाड़ी घर की
चिमनी में से
धुआँ बनकर निकल रहा था।
00
पंजाबी की युवा कवयित्री। कनाडा में रहते हुए अपनी माँ-बोली पंजाबी भाषा की सेवा अपने पंजाबी ब्लॉग “आरसी” के माध्यम से कर रही हैं। गुरूमुखी लिपि में निकलने वाले उनके इस ब्लॉग में न केवल समकालीन पंजाबी साहित्य होता है, अपितु उसमें पंजाबी पुस्तकों, मुलाकातों और साहित्य से जुड़ी सरगर्मियों की भी चर्चा हुआ करती है। इधर “आरसी” में हिन्दी भाषा के साहित्य के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के अनुवाद को भी तरजीह दी जा रही है।
दर्द
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अतीत का
ज़िक्र छिड़ते ही
हाथों के बीच का आटा
खमीर बन गया है
एक रात
हाँ, उस रात
तेरे दर्द के जंगल में से
गुजरी थी
पंख कतरे गए थे मेरी
चीख के।
जंगल की ख़ामोशी
परतें बन चढ़ गई थी
मेरे जेहन पर।
काले फ़नीअर
विष त्याग गए थे
शब्द रहित दर्द
बाहें खोल कर आया।
जब हम जुदा हुए तो
तेरा लावा…
मेरा ग्लेशियर…
बांहों में भर
दर्द
किसी पहाड़ी घर की
चिमनी में से
धुआँ बनकर निकल रहा था।
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