मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

दोस्त
गुरमेल सिंह चहल
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव


आज सुबह ही पति-पत्नी के बीच छोटी-सी बात से हुई तकरार ने बड़ा रूप धारण कर लिया था। पति चुपचाप बिना कुछ खाये-पिये तैयार होकर दफ्तर पहुँच गया। दफ्तर पहुँचकर उसने पत्नी को मैसेज कर दिया, ''मैंने आज से रात की डयूटी करवा ली है।''
प्रत्युत्तर में पत्नी ने मैसेज से जवाब दे दिया, ''मैं भी यही चाहती थी, अच्छा किया।''
उन्होंने कई दिन न तो एक-दूजे को बुलाया और न ही एक दूजे को मिले। सुबह पति घर आता तो पत्नी दफ्तर चली जाती और शाम को पत्नी घर लौटती तो पति जा चुका होता। लेकिन घर के सारे कामकाज मैसेज के द्वारा ही हो रहे थे।
आज पत्नी का जन्मदिन था। पति ने सवेरे ही मैसेज द्वारा 'हैप्पी बर्थ डे टू यू' कह दिया। पत्नी ने भी मैसेज से ही 'थैंक यू।' कह दिया।
पति ने शाम को तीन बजे मैसेज भेज दिया, ''मैंने तेरे लिए गिफ्ट अल्मारी में बायीं ओर रखा है, ले लेना।''
उधर पत्नी ने मैसेज भेज दिया, ''तुम्हारे लिए केक फ्रिज में पड़ा है, मेरा नाम लेकर खा लेना।''
पाँच बजे पति ने मैसेज कर दिया, ''दिन कैसे बीतते हैं ?''
''बहुत बढ़िया ।'' पत्नी ने मैसेज भेजकर जवाब दे दिया।
''और रातें ?'' पति ने एक और मैसेज कर दिया।
''जहाँ अच्छे दोस्त साथ मिल जाएँ, फिर रातें भी बढ़िया गुजर जाती हैं।''
यह मैसेज पढ़ते ही पति आगबबूला हो उठा। वह झट दफ्तर से निकला और सीधा घर पहुँच गया।
''सीमा ! किस दोस्त की बात कर रही हो ?'' पति महीने बाद चुप को तोड़ता हुआ बोला।
''अपने दोस्त की जिसके सहारे इतने दिनों से मैं अकेलापन काट रही हूँ।''
''कहाँ है तेरा वो दोस्त ?'' पति बोला।
''बैड पर रजाई में पड़ा होगा।''
''यहाँ तो कोई नहीं।'' पति ने बैड पर से रजाई उठाते हुए पूछा।
''कोई क्यों नहीं, तुम्हारे सामने सिरहाने पर तो पड़ा है।''
''यह तो मोबाइल है।'' पति ने सिरहाने पर निगाह मारते हुए कहा।
''बस, यही तो मेरा दोस्त है। कभी गाने सुन लेती हूँ, कभी गेम खेल लेती हूँ। कभी तुम्हें मैसेज भेज देती हूँ और कभी तुम्हारा मैसेज पढ़ लेती हूँ। बस, इस तरह रात कट जाती है।'' आँसू पोंछती हुई पत्नी ने पति को आलिंगन में ले लिया।
00
जन्म : 15 जनवरी 1971
शिक्षा : बी ए
कृतियाँ : अल्ले ज़ख्म(लघुकथा संग्रह-2004)
टिडा पंडित(बाल कहानी संग्रह- प्रकाशनाधीन)
चंगे बच्चे(बाल गीत- प्रकाशनाधीन)
संप्रति : स्टेट बैंक आफ इंडिया में कार्यरत।
सम्पर्क : 12/415, नानक नगर,मक्खू रोड
जीरा, जिला-फिराजपुर
फोन : 01682-251893(घर)
09463381196(मोबाइल)
ई मेल : gurgaganchahal@yahoo.com
Allejakham2004@yahoo.com

शनिवार, 7 नवंबर 2009

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता


सुखदेव की छह कविताएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
1
कविता

मैं कविता लिख लेता हूँ
सूखे हुए पत्तों में से
झांकती हरी लकीरों जैसी
पर जो एक सघन, सुवाहना
और हरा-भरा वृक्ष
इसमें नहीं दिखाई देता
उसका मैं क्या करूँ ?

2
रिश्ता

मुहब्बत मोहपाश
दूरी भटकन
मैं जब भी तुझसे दूर होता हूँ
तो ये मुझे बहुत दुख देते हैं- मैंने कहा।

तू मुस्करा पड़ी
और मुझे गले से लगा कर कहा-
''चांद बेशक कितना ही दूर हो
नदी की गोद में होता है।''

उस पल से मैं महसूस कर रहा हूँ
कि एक ठंडी निर्मल और शफ़ाफ नदी
मेरे अंतस में बह रही है
जिस में हर रोज़ मैं
चांद बनकर चढ़ता हूँ।

3
याद

आज फिर
दिन भर तेरी याद
इस तरह मेरे साथ रही
जैसे काल कोठरी की
भूरी उदास खिडकी के पार
बसंत की सुनहरी धूप में
खिला हुआ गुलाब।

4
चलने का ढंग

मैं
चलता हूँ बाहर
और देखता हूँ अंदर।

मैं
चलता हूँ अंदर
और भटकता हूँ बाहर।
इक उम्र बीत चली है
पर मुझे अभी तक
चलने का ढंग नहीं आया।

5
अलविदा

हे मेरे पुरखो !
पालनहार पिता !
पवित्र पुस्तक और पूज्यनीय पुरोहितो!

जाने से पूर्व
नमस्कार स्वीकार हो

क्षमा करना
मैं जा रहा हूँ
काली नदी के सीने पर
जलते हुए दीये खोजने
और उस ऑंख की तलाश में भी
जो इन्हें देख सके।

6
अच्छी बात नहीं

दीया जलता है
तो उजाला होता है

शायर बोलता है
तो कंदील जगमगाती है

सूरज उदय होता है
तो प्रकाश की बाढ़ आती है

पर सारा ही उजाला
बाहर से आए
यह भी कोई अच्छी बात नहीं।
00

पंजाबी के उभरते हुए कवि-कहानीकार। नागमणि, समदर्शी, हुण, अक्खर आदि अनेक पंजाबी की पत्रिकाओं में कविताएं और कहानियाँ प्रकाशित। इसके अतिरिक्त जैन कहानियों का पंजाबी में अनुवाद किया है जो हर सप्ताह पंजाबी अखबार 'अजीत' में प्रकाशित हो रहा है।
संप्रति : अध्यापन
गली नं0 8, गुरू नानक नगरी
मलोट, ज़िला-मुक्तसर(पंजाब)
फोन : 01637 २६४९४७

ई-मेल : matharusukhdev@gmail.com

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

अनूदित साहित्य


नेल्सन मंडेला के पत्र और विनी मंडेला से तलाक
प्रस्तुति और अनुवाद : यादवेन्द्र

4 फरवरी 1985
तुम्हारी बहन की मृत्यु के बारे में जब से जिंजी(बेटी) का टेलिग्राम मिला है, तब से मैं गहरे सदमे में हूँ और अब तक उससे उबर नहीं पाया हूँ। ऐसे मौकों पर मुझे बहुत शिद्दत से यह अहसास होता है कि मैं तुम्हें अपनी गैरहाज़िरी में असंख्य मुश्किलों व संकटों के बीच छोड़कर आ गया हूँ। पता नहीं, मैंने यह सही किया या गलत। इस मुद्दे पर विचार मंथन करने के बाद मैं बार बार अपने पुराने निर्णय पर ही पहुँचता हूँ, पर यह ज़रूर लगता है कि चौबीस वर्ष पहले इस फैसले तक पहुँचने से पहले मुझे अपने मन को और गहरे स्तर पर टटोलना चाहिए था।

मुझे लगता है कि विवाह का वास्तविक महत्व दो व्यक्तियों को परस्पर प्यार के बंधन में बांधना ही नहीं है बल्कि मुश्किल पलों में एक दूसरे पर अटूट भरोसा रखने की पूरी गारंटी देना भी है।

तुम्हारा प्रेम व सहयोग, तुम्हारे शरीर की उन्मुक्त ऊष्मा, परिवार को उपहारस्वरूप दिए गए तुम्हारे मोहक बच्चे, दोस्तों का तुम्हारा दायरा, तुम्हारे प्यार और साथ की उम्मीदें - मेरे लिए तो जीवन और आनन्द के यही पर्याय हैं। मेरे जीवन में वैसा प्रेम साक्षात् उपस्थित है जिसे प्रेम किया जाना चाहिए और जिस पर भरपूर भरोसा किया जाना चाहिए। इसी स्त्री के प्रेम और धैर्यवान सहयोग ने मेरे अन्दर शक्ति तथा उम्मीदों की लौ प्रज्जवलित रखी।

कई बार इन सबके रहते हुए भी प्रेम तथा आनन्द, भरोसे व उम्मीदों के भाव तिरोहित हो गए और मन गहरी व्यथा से भर गया - मेरी अंतरात्मा तथा अपराधबोध मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व पर हावी हो गए। मेरे मन में बार बार यह सवाल सिर उठाने लगा कि एक युवा व अनुभवहीन स्त्री को निर्दय मरूभूमि में छोड़ कर चले जाने के पर्याप्त कारण क्या मेरे पास थे ? यह तो उसे सड़कों पर लूटपाट करने वालों के बीच फेंक आने जैसा कृत्य था, वह भी तब जब सहारे और सुरक्षा की उसे सबसे ज्यादा दरकार थी।

यह सच्चाई भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती कि हाल के कुछ महीनों में ही तुम्हें अपने परिवार के चार लोगों का विछोह बर्दाश्त करना पड़ा। बिलाशक यह एक गंभीर व असहनीय आघात है - अक्सर मेरे मन में आता है कि मैं इस मौकों पर तुम्हारे साथ होता तो तुम्हें अपने सीने से लगा लेता, तुम्हें उन सारी अच्छी बातों की याद दिलाता जो तुम्हारी वज़ह से अच्छी हो पाईं और परिवार में निरन्तर घटती रही विपदाओं को भुला पाने में तुम्हारी मदद कर पाता।

मैं बखूबी जानता हूँ कि तुम अपने लोगों का कितना ध्यान रखती हो - खासतौर पर परिवार का - पर जब भी तुम पर कोई विपदा आन पड़ती है, मुझे चिंता होने लगती है कि तुम इस पर कैसे पार पाओगी ? जिंजी के टेलीग्राम मिलने के बाद से निरंतर यही चिंता मुझे खाए जा रही है - यह चिंता तभी दूर हो पाएगी जब मैं तुम्हें अपने सामने ज़ाहिरा तौर पर देख पाऊँगा।
00

विनी मंडेला से तलाक : एक वक्तव्य

मेरे और मेरी पत्नी कामरेड नोमजामो विनी मंडेला के आपसी रिश्तों को लेकर मीडिया में बहुत सारी बातें कही-सुनी जा रही है। यह वक्तव्य मुझे इसीलिए देना पड़ रहा है जिससे उन कयासों पर विराम लग सके और वास्तविक स्थिति स्पष्ट हो। मुझे भरोसा है कि इसके बाद भविष्य में अटकलबाजियों की गुंजाइश नहीं रह जाएगी।

कामरेड नोमजामो के साथ मैंने उस समय विवाह किया जब देश का स्वतंत्रता संग्राम नाजुक मोड़ पर था। हम दोनों ने साझा तौर पर अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस को मज़बूत करने का और देश से रंगभेदी नीतियाँ जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया था इसलिए कभी भी सहज पारिवारिक जीवन हम नहीं जी पाये। पर इन दबावों के रहते हुए भी अपने प्यार भरे आपसी रिश्तों और वैवाहिक बंधन के प्रति हमारा समर्पण दिनों दिन सघन होता गया।

रोबेन द्वीप पर जो दो दशक मैंने बिताए उस दौरान वे व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए अवलंब और सांत्वना का अनिवार्य संबल बनी रहीं। कामरेड नोमजामो बच्चों के पालन पोषण का दूभर बोझ एकाकी ही अपने कंधों पर वहन करती रहीं... सरकार ने उन्हें जो यातनाएं दीं उन सबको उन्होंने अनुकरणीय धैर्य से सहन किया और स्वातंत्र्य संघर्ष के अपने संकल्प से उन्हें कभी भी कोई लेशमात्र भी डिगा नहीं पाया। उनकी दृढ़ता देख कर उनके प्रति मेरा व्यक्तिगत सम्मान, प्रेम और स्नेह दिनों दिन बढ़ता गया है। इतना ही नहीं, पूरे विश्व ने उनके ऐसे गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उनके प्रति मेरा प्रेम कभी समाप्त नहीं हो सकता।

यद्यपि पिछले कुछ समय से अनेक मुद्दों पर हमारे बीच मतभेद बढ़े हैं, और इसी को ध्यान में रख कर आपस में मिलकर हमने अलग रहने का फैसला किया। हमें लगा कि हम दोनों के लिए यही श्रेयस्कर होगा। मीडिया में उनके विरुद्ध जो भी लिखा और कहा जा रहा है, मेरा यह कदम उनसे कतई प्रभावित नहीं है... कामरेड नोमजामो के लिए जैसे मेरा सम्पूर्ण समर्थन पहले हुआ करता था, मेरी ओर से वह भविष्य में जीवन के कठिन क्षणों में भी वैसा ही मिलता रहेगा।

जहाँ तक व्यक्तिगत स्तर पर मेरी बात है, मुझे कामरेड नोमजामो के सान्निध्य में बिताए क्षणों का लेशमात्र भी अफ़सोस नहीं है। हमारी पहुँच और वश के बाहर की परिस्थितियाँ निरंतर हमें प्रतिकूल दिशाओं में ढकेलती गईं। किसी आरोप-प्रत्यारोप के बगैर आज मैं अपनी पत्नी से अलग हो रहा हूँ। इस नाजुक घड़ी में भी मुझे एक-एक करके वे तमाम क्षण याद आ रहे हैं जब मैं पहली बार उनसे मिला था। मैं जेल के अन्दर रहूँ या बाहर - उनके लिए जो प्यार और स्नेह अपने मन में संजोए रहा हूँ उन सबको याद करते हुए मैं उन्हें गले लगाता हूँ।

देवियो और सज्जनों, मुझे विश्वास है कि इस मौके पर आप भी उस पीड़ा का अनुमान कर पा रहे होंगे जिनसे मुझे गुजरना पड़ रहा है।

मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं कि पति और पिता के अपने सामान्य पारिवारिक दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वाह न कर पाने की पीड़ा मेरे मन पर इस कदर हावी हो जाती थी कि कई ज़रूरी बातें मेरी निगाहों से कदाचित् छूटती चली गईं। मैं यह स्वीकार करने में भी एक पल नहीं लगाऊँगा कि जेल में रहते हुए मेरा जीवन जितना कठिन और दूभर था, मेरी पत्नी को उससे ज्यादा यातनापूर्ण जीवन जीना पड़ा - इसके बाद जेल से छूटने के बाद भी मुझे कम और मेरी पत्नी को ज्यादा पीड़ादायी अनुभवों से गुजरना पड़ा। विडम्बना यह रही कि जिस व्यक्ति से उन्होंने विवाह किया, वह जल्दी ही उन्हें अकेला छोड़ कर चला गया और एक मिथक बन गया - लम्बे अंतराल पर वह मिथक अपने घर लौटा, पर अंतत: साबित हुआ एक अदना आदमी ही!

अपनी बेटी जिंजी की शादी के अवसर पर मैंने कहा था कि स्वतंत्रता सैनानियों के भाग्य में अस्थिर पारिवारिक जीवन ही लिखे होते हैं। मेरे जीवन की तरह जब संघर्ष ही आपका जीवन बन जाए तो इसमें परिवार के लिए अलग से कोई जगह बचती ही कहाँ है। यह सदैव मेरे जीवन के सबसे बड़े पछतावों में रहा है, और जीवन की जो दिशा मैंने चुनी उसका सर्वाधिक पीड़ादायी पक्ष भी यही है।

मैंने इसी अवसर पर कहा था कि अपने बच्चों की पीठ पर हाथ रखे बगैर ही हमने उन्हें बड़ा होने को छोड़ दिया। जब लम्बे कारावास से मुक्त होकर मैं बच्चों के पास पहुँचा तो उन्होंने तल्खी से कहा - 'हमें लगता था कि हमारे भी पिता हैं और चाहे गैरहाज़िरी लम्बी हो, वे हमारे बीच फिर लौट आएंगे। पिता घर लौटे तो पर तुरंत ही हमें अकेला छोड़ कर वे घर से फिर निकल पड़े क्योंकि अब वे पूरे देश के पिता बन गए थे।' तब हमारी हिम्मत जवाब दे गई। देश का पिता बनना एक नायाब सम्मान है लेकिन एक परिवार का पता बनने में सुख ज्यादा है - पर अफ़सोस यह सुख मेरे हिस्से बहुत थोड़ा ही आ पाया।
000
(13 अप्रैल 1992 को प्रेस कांफ्रेस में पढ़ा गया वक्तव्य - नेल्सन मंडेला की आत्मकथा 'लांग वाक टु फ्रीडम' से उद्धृत।)


अनुवादक सम्पर्क :
ए-24, शांति नगर, रुड़की-247667, उत्तराखंड
फोन : 01332- 283245, 094111 11689
ई-मेल : yapandey@gmail.com,

सोमवार, 14 सितंबर 2009

अनूदित साहित्य



नेल्सन मंडेला के पत्र - पूर्व पत्नी विनी मंडेला के नाम
प्रस्तुति और अनुवाद : यादवेन्द्र


दक्षिण अफ्रीका की स्वतंत्रता के कर्णधार नेल्सन मंडेला जेल में रहते हुए और दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति के तौर पर समय समय पर अपनी पूर्व पत्नी विनी मंडेला के नाम पत्र लिखते रहे थे, उन्हीं पत्रों में से कुछ का हिंदी अनुवाद मैं 'सेतु साहित्य' के माध्यम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। जेल से निकलने पर विनी से उनके मतभेद इतने गहरे हो गए कि उन्होंने उससे तलाक ले लिया था। इन पत्रों में एक स्वतंत्रता सैनानी की निजी अंतरंग भावनाएँ जिस पारदर्शिता से दिखाई देती हैं, इसकी मिसाल दुनिया में ढूँढ़ना मुश्किल होगा। इनमें से कुछ ख़त 'नया ज्ञानोदय' और 'अहा ज़िंदगी' में छप चुके हैं।
-यादवेन्द्र


मई 1969
(जब विनी को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया)

तुम्हें अब लगता होगा कि अपने आपको जानने के लिए जेल एक आदर्श स्थान है- यथार्थ में और निरंतर अपने मन, विचारों और भावनाओं को टटोलने की प्रक्रिया यहाँ शुरू होती है। एक व्यक्ति के तौर पर अपना आकलन करने पर हम बाहरी पक्ष पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं जैसे सामाजिक प्रतिष्ठा, प्रभाव और प्रसिद्धि, दौलत और शैक्षिक उपलब्धियाँ। पर आंतरिक पक्ष कहीं मनुष्य के तौर पर अपनी विकास यात्रा पर मनन करने के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण होता है - ईमानदारी, सचाई, सफलता, इंसानियत, शुद्धता, उदारता, लघुता के भाव से मुक्ति, अपने आसपास के लोगों की सेवा करने की तत्परता - प्रत्येक व्यक्ति की पहुँच में ये सभी क्षमताएँ हैं - ये किसी भी व्यक्ति के आध्यात्मिक जीवन के आधारस्तंभ होते हैं- यदि और कुछ न भी हो तो जेल तुम्हें दिन-ब-दिन के आचरण को देखने-परखने का अवसर तो देती ही है, जब तुम बुराई पर विजय प्राप्त कर सको और उन बातों को और मजबूती से लागू कर सको, जो अच्छी हों। हर रोज़ का ध्यान - दिन में 15 मिनट ही सही - तुम्हें तरोताज़ा रखने के लिए बेहद फायदेमंद साबित होगा। हो सकता है, शुरूआत में अपने जीवन के नकारात्मक पहलुओं पर उंगली रखना मुश्किल लगे, पर ऐसा करते रहने से धीरे-धीरे फ़ायदा महसूस होने लगेगा। हमेशा यह बात ध्यान में रखो कि विजयी वही प्राणी होता है जो अपने प्रयास कभी नहीं छोड़ता।
(मंडेला : द मॉथोराइज्ड बायोग्राफ़ी - एंथनी सैप्सन से उध्दृत)

अक्टूबर 1975

मेरी हसरत है कि मैं तुम्हें लम्बी सैर पर ले चलूँ जैसा मैंने 1968 के 12 जून को किया था। बस, एक फर्क़ इस बार मैं यह चाहता हूँ कि हम दोनों अकेले साथ हों। मैं तुमसे इतने अरसे से दूर रहा हूँ कि पास आने पर सबसे पहले यह चाहूँगा कि तुम्हें दमघोंटू वातावरण से कहीं दूर ले जाऊँ -हिफ़ाजत के साथ ड्राइव पर - और तुम ताज़ा स्वच्छ हवा में साँस ले सको, दक्षिण अफ्रीका के मनोरम स्थल दिखाऊँ, हरी-भरी घास और जंगल, रंग बिरंगे जंगली फूल, चमकती जलधारा, खुले में स्वच्छंद होकर चरते जानवरों से तुम्हें रू-ब-रू कराऊँ, और यात्रा के दौरान मिलने वाले सरल ग्रामवासियों से हम घुलमिल कर बातें कर पाएँ। सबसे पहला पड़ाव हम तुम्हारी माँ और पिता जहाँ अगल-बगल परम शांति से लेटे हुए हैं, वहाँ डालेंगे। मैं उन लोगों के प्रति आभार प्रकट करना चाहूँगा जिनकी वजह से आज मैं इतना प्रसन्न और आज़ाद हो पाया। इतने दिनों से जो बातें तुम्हें बताना चाहता रहा हूँ, संभव है उनकी शुरूआत तब हो। आसपास का माहौल सुनने की तुम्हारी व्यग्रता बढ़ा देगा और मैं उन्हीं मुद्दों पर ज्यादा ध्यान देने की कोशिश करूँगा जो दिलचस्प हों, प्रेरक और सकारात्मक भी हों। यहाँ ठहर कर इसके बाद हम मेरी माँ और पिता के पास चलेंगे, उम्मीद है कि वहाँ का माहौल भी वैसा ही सुकून देने वाला होगा। मुझे पक्का यकीन है जब हम वापस लौट कर आएँगे तो तरोताज़ा और नई ऊर्जा से ओतप्रोत होंगे।
00

आजकल मैं कई बार यह सोचता हूँ कि तुम मेरी मित्र, पत्नी, माँ और मार्गदर्शक साथ-साथ हो। तुम्हें शायद इसका आभास नहीं होगा कि मैं कितनी बार ऐसा सोचते हुए मन के आईने में तुम्हारे शरीर और मनोभावों की तस्वीर बनाता हूँ - तुम्हारे ललाट, कंधे, हाथ-पाँव, रोज़ रोज़ की प्रेमपूर्ण चुहलबाजियाँ और मेरी उन तमाम दुर्बलताओं की ओर से तुम्हारे सायास आँखें मूँद लेने के बारे में अक्सर सोचता हूँ जिनसे कोई भी दूसरी स्त्री सहज ही कुंठित हो सकती है।

कई बार कहीं एकाकी बैठना और तुम्हारे साथ व्यतीत किए गए समय को एकाएक याद करना अद्भुत अनुभूति है। मुझे यह भी याद है, जब एक दिन तुम बेटी को दूध पिला रही थीं और साथ में बड़ी मुश्किल से अपने नाख़ून भी काटती जा रही थीं। अब इस वक्त उस घटना को याद करके मुझे अपने आप पर शर्म आ रही है - तुम्हारा यह काम मुझे कर देना चाहिए था। मुझे स्वीकार करने में ज़रा भी संकोच नहीं है कि दायित्व की बात छोड़ भी दें तो उस वक्त मेरा रवैया कुल मिला कर यह था कि मैंने दूसरी संतान के जन्म का रास्ता साफ कर दिया, मेरा काम पूरा हो गया- अब तुम्हारी इस शारीरिक बेकद्री की जिम्मेदार तुम हो, इसे तुम्हें सम्हालना है।

15 अप्रैल 1976

तुम्हारा प्रेम और समर्पण मुझ पर इतने भारी ऋण हैं कि जिन्हें चुका कर मुक्त होने के बारे में मैं कभी सोच भी नहीं सकता। यदि नियमित तौर पर अगले सौ साल भी किश्तों में इसे चुकाने की कोशिश करूँ तो भी हिसाब चुकता नहीं कर पाऊँगा।
00
जब मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ उस वक्त भी तुम्हारी मोहक तस्वीर मेरे कंधे से दो फीट ऊपर टंगी हुई है। हर सुबह उठकर मैं इसे बड़े जतन से झाड़ता-पोंछता हूँ और मुझे ऐसा लगता है जैसे पुराने दिनों में तुम्हें सहलाते हुए आनन्द विभोर हो जाता था, वैसा ही आज भी महसूस कर पा रहा हूँ।

मैं तस्वीर में तुम्हारी नाक पर अपनी नाक रखकर आज भी वैसे ही स्तब्ध कर देने वाली चिहुँकन की अनुभूति करता हूँ जैसा पहले सचमुच ऐसा करते हुए किया करता था। मेरे ठीक सामने टेबुल पर बेटी खड़ी दिखाई देती है। इन विलक्षण स्त्रियों की निगरानी में रहते हुए ऐसा कैसे हो सकता है कि मेरा मन निराशा से घिरने लगे ?

15 अप्रैल 1976

25 फरवरी को जब मैं सुबह बिस्तर से उठा तो हर रोज़ की तरह तुम्हारी और बच्चों की कमी बहुत शिद्दत से महसूस हुई। आजकल अक्सर मैं तुम्हें प्रेमिका, माँ, मित्र और मार्गदर्शक - सबके रूप में याद करता हूँ। शायद तुम्हें नहीं मालूम कि मैं तुम्हारी छवि - जिस्माती और रूहानी - कैसे कैसे सोचता और गढ़ता हूँ। मेरी अच्छी बच्ची, आखिरकार तुम यूनिवर्सिटी पहुँच ही गई। तुमने कौन कौन से विषय चुने हैं ? तुम्हें याद है कि इसी यूनिवर्सिटी में हम दोनों अट्ठारह साल पहले मिले थे ? उम्मीद हैतुम्हें यह कोर्स पसन्द आएगा, पर यह हमेशा ध्यान रखना कि अपनी क्षमताओं के अनुरूप तुम्हें और ऊँचे मानक बनाए रखने होंगे। पर मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि शाम के वक्त तुम अकेले ड्राइव करके लाइब्रेरी जाती हो - ऐसा जोख़िम क्यों उठाना ? तुम भूल गईं कि तुम बीच शहर में नहीं, बल्कि सोवेटो में रहती हो जो रात में बिलकुल सुरक्षित नहीं है। पिछले दस सालों में तुम्हारे ऊपर रात में कई बार क़ातिलाना हमले हुए हैं और तुम्हें घर से घसीट कर बाहर निकालने की कोशिशें हुई हैं। अब उन लोगों को अनुकूल अवसर क्यों प्रदान कर रही हो ? तुम्हारा और बच्चों का जीवन मेरे लिए किसी शैक्षिक सर्टिफिकेट से क्या ज्यादा महत्वपूर्ण है! मैं उम्मीद करता हूँ कि अगले पत्र में तुम यह लिखोगी कि तुमने अपनी दिनचर्या बदल ली है और काम के बाद सीधे बच्चों के पास घर लौट जाती हो। यूनिवर्सिटी और लाइब्रेरी के बीच एक वैन सर्विस चलती है, ज़रूरत पड़ने पर तुम उसका उपयोग कर सकती हो। मैं तुम्हें यह बताना भूल गया था कि कुछ जीतें ऐसी होती हैं जिनका महत्व केवल वही जान सकते हैं जो जीतते हैं, पर कुछ घाव ऐसे होते हैं जो भर जाने के बाद भी अपने गहरे निशान छोड़ जाते हैं। जब मैं घर लौटूँगा और तुम मुझे घर के अन्दर नहीं मिलोगी तो.... केवल तुम्हीं तो हो जिसे ढूँढ़ कर सबसे पहले मैं यह खबर करूँगा - और यह गौरव तुम्हारा और केवल तुम्हारा होगा।
00

26 अक्टूबर 1976

बरसों बरस से मैं अपने चेहरे पर सफलतापूर्वक ऐसा मुखौटा लगाए रहा हूँ जिसके पीछे परिवार के लिए छटपटाता हुआ व्यक्ति अपने आपको छुपा लेता है - एकाकी गुमसुम। चिट्ठियों के आने वाले दिन सभी कैदी उतावले होकर उधर भागते हैं लेकिन मैं तब तक उधर नहीं जाता, जब तक कोई मेरा नाम लेकर आवाज़ न लगाए। तुम्हारे मुलाकात करके चले जाने के बाद भी मैं पीछे मुड़ कर औरों की तरह नहीं देखता रहता, हालांकि कई बार ऐसा करने की इच्छा उफान तक पहुँच जाती है। जैसे यह चिट्ठी लिखते वक्त भी महसूस कर रहा हूँ। मैं भावनाओं को काबू में रखने के लिए अपने आपसे लड़ता रहता हूँ।

तुम्हें जब गिरफ्तार कर लिया गया उसके बाद से तुम्हारी केवल एक चिट्ठी मुझ तक पहुँची है। घर पर क्या हो रहा है बिल्कुल नहीं मालूम - मकान का किराया, टेलीफोन का बिल, बच्चों की देखभाल और खर्चापानी किसी के बारे में भी मुझे नहीं मालूम। मुझे यह भी चिंता सता रही है कि जेल से छूटने के बाद दुबारा तुम्हें नौकरी पर लिया जाएगा या नहीं। जब तक तुम्हारा संदेश न पहुँचे, मैं चिंतित और रेगिस्तान की तरह सूखा रहूँगा।

कारू रेगिस्तान से होकर तो कई बार गुजरा हूँ। बोत्स्वाना के रेगिस्तान भी देखे हैं - रेत के असंख्य टीले और पानी की एक बूँद भी नहीं। तुम्हारी एक भी चिट्ठी नहीं मिली। मैं रेगिस्तान की तरह सूखा महसूस कर रहा हूँ।

तुम्हारी और परिवार के अन्य लोगों की चिट्ठियों का आना बरसात के आह्लादपूर्ण आगमन की तरह होता है और ऐसा लगता है जैसे मेरे जीवन में निर्मल जलधारा बह निकली हो।

जब भी तुम्हें पत्र लिखता हूँ, मेरे भीतर शारीरिक उत्तेजना का संचार होने लगता है और मैं तमाम दु:खदर्द भूल जाता हूँ। मैं प्रेम की सरिता में उतराने लगता हूँ।

26 जून 1977

बहुत कठिन समय झेल कर हमारी बेटियाँ अब बड़ी हो गई हैं। बड़ी वाली का तो अब अपना परिवार है और वह उनकी अच्छी तरह से परवरिश भी कर रही है।

अफ़सोस है कि हमने साथ-साथ जो सोचा था - एक लड़का पैदा करने के बारे में - वह पूरा नहीं कर पाए। मैंने तुम्हारे लिए एक घर बनाने के बारे में सोचा था - छोटा सा ही सही - जिसमें आखिरी उदास और एकाकी दिनों में साथ-साथ जीवन व्यतीत कर पायें। विडम्बना देखो कि मैं ऐसा कुछ भी कर पाता उससे पहले ही धाराशायी हो गया। अपने बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि हवा में अपने किले बना रहा था।

21 जनवरी 1979

तुम्हारे प्यार भरे पत्र, क्रिसमस, जन्मदिन और शादी की वर्षगांठ के मौकों पर भेजे गए संदेश हमेशा सही समय पर मेरे पास पहुँचते रहे हैं और इनसे मेरे मन में यह आस घर करने लगती है कि अगले महीने भी ऐसा ही कुछ होगा। अनवरत चौदह वर्षों से एक ही व्यक्ति का आपके पास संदेश आता रहे तो जाहिर है, इस प्रत्याशा से ताज़गी और नयेपन का उल्लास कुंद पड़ जाना चाहिए। पर जैसे ही तुम्हारा पत्र पहुँचता है, मैं दमकने लगता हूँ और वहाँ उड़ने लगता हूँ जहाँ चीलों की पहुँच न हो सके। हालांकि बातों को सरल परन्तु स्पष्ट तौर पर कहने की तुम्हारी क्षमता मुझे भलीभाँति मालूम है, पर अट्ठारह वर्षों के हमारे साथ का जैसे तुमने बयान किया, उसका ढंग बेहद मोहक था। मुझे लगता है, यही अट्ठारह वर्ष तुम्हारे जीवन में सबसे कष्टसाध्य रहे होंगे। हर बार की तरह तुम्हारा वह संदेश मुझे चकित और मुदित साथ-साथ कर गया।
00

मैं हर समय तुम्हें प्रेम करता हूँ, चाहे वह ठिठुरा देने वाली निष्ठुर ठंड हो या गर्मियों में जब प्रकृति सम्पूर्ण सौंदर्य, चमक और उष्मा के साथ वापस लौट कर आती है। जब तुम खिलखिला कर हँसती हो तो मेरी खुशी का कोई ओर-छोर नहीं दिखता। कल्पना में तुम अक्सर ऐसे ही आविर्भूत होती हो- मेरी माँ तुम्हें व्यस्त रखने को इतना कुछ काम पड़ा है, लेकिन कितनी भी कठिन स्थितियाँ सामने हों, चेहरे पर मुस्कान सर्वदा विद्यमान रहती है।

6 मई 1979

मैंने सोचा था कि जिंजी के साथ अपनी जीवनी लिखने के प्रोजेक्ट के बारे में बातचीत करूँगा। तुमने ही बताया था कि इस वर्ष वह इसे प्रकाशित करने की योजना बना रही है। मेरी निजी राय है कि कुछ खास लोगों के बारे में वह चुप ही रहे तो अच्छा, पर इस बारे में फैसला उसी को करना है। हालांकि ऐसी किताबों में प्रामाणिक ब्यौरा ही दर्ज होना चाहिए- चाहे प्रिय हो या अप्रिय। सभी व्यक्तियों के बारे में चाहे वह जिंजी को कितने भी प्रिय हों, देवदूत मान कर चर्चा नहीं करनी चाहिए बल्कि यथार्थ के धरातल पर खड़े अच्छाइयों और दुर्बलताओं को धारण किए हुए हाड़मांस के मनुष्यों के तौर पर उनके बारे में लिखना चाहिए।

हाल ही में कुछ आत्मकथाएँ सामने आई हैं - खास तौर पर युवतर पीढ़ी की, पर खतरनाक रूप से बेबाक और सनसनीजनक! इनमें से कुछ तो इतने अंतरंग स्तरों तक पहुँच जाती हैं कि इन्हें किसी भी दृष्टि से जायज नहीं ठहराया जा सकता। तुमने सोफिया लौरेन और मार्गरेट त्रुदो( कनाडा के प्रधानमंत्री की पूर्व पत्नी) की किताबें देखी हैं ? मुझे सही-सही नहीं मालूम कि दूसरी वाली किताब ने कनाडा के प्रधानमंत्री के राजनैतिक कद को कितना आघात पहुँचाया है। किसी भी सार्वजनिक व्यक्ति का सुखी पारिवारिक जीवन उसके लिए अहम आधार स्तंभ के तौर पर काम करता है। इसी नज़रिये से देखें तो जिंजी की किताब का उद्देश्य व्यावसायिक लाभ या प्रचार नहीं होना चाहिए, बल्कि इन्हें वृहत्तर मुद्दों पर केन्द्रित होना चाहिए।

यदि मेरे पास तुम्हारी मुलाकातों, बेशकीमती चिट्ठियों और प्यार की निधि न होती तो मैं कई वर्ष पहले ही बिखर गया होता। मैं थोड़ी देर सुस्ताता हूँ, थोड़ी कॉफी पीता हूँ, फिर अपनी किताबों की अल्मारी पर रखी तस्वीरों की धूल झाड़ता हूँ। सबसे पहले जेनी की, फिर जिंजी की और अंत में तुम्हारी- मेरी डार्लिंग माँ ! ऐसा करने से तुम्हारे लिए दिल में उठती तड़प कुछ कुछ शांत हो जाती है।

21 जुलाई 1979

किसी आदमी और उसकी माँ, पिता व अभिन्न मित्र मेरे लिए तुम थोड़ा थोड़ा सब कुछ हो - के बीच जो नाजुक और अन्तरंग रिश्ता होता है, वह इतना विलक्षण होता है कि अपने अस्तित्व से उसे खींच कर अलग करना संभव नहीं है।

22 नवम्बर 1979

पिछली बार जब तुम मुझसे मिलने आई थीं, इतवार का दिन था। तब अपने परिधान में तुम बेहद खूबसूरत और दमकती हुई लग रही थीं। तुम्हें देख कर यह लगता ही नहीं था कि दो बच्चों की माँ हो। तुम्हारा यौवन और शारीरिक सुंदरता थोड़ी भी तो निस्तेज नहीं हुई।

17 नवम्बर को जब तुम मिलने आई थीं, सचमुच शानदार लग रही थीं - बिलकुल वैसी ही स्त्री जिससे मैंने विवाह किया था। तुम्हारे चेहरे पर विलक्षण आभा थी। जबर्दस्त संयमित भोजन(डायटिंग) के दिनों में तुम्हारी आँखों में जो उदासी और भावशून्यता झलका करती थी, अच्छा हुआ वे दिन बीत गए। हर बार की तरह मैं तुम्हें ‘माँ’ कह कर सम्बोधित कर रहा था, पर मेरा शरीर बार-बार मुझे आगाह कर रहा था कि मेरे सामने एक जीवंत स्त्री बैठी है। मेरा मन निरंतर कुछ गुनगुनाने को करने लगा था।

31 मार्च 1983

पिछले महीने तुम अप्रत्याशित ढंग से अचानक आ गईं इसलिए मैं इतना गदगद हो गया। मेरी जैसी उम्र है, इसमें युवावस्था की तमाम इच्छाएँ कुम्हला जानी चाहिएं, पर मेरे साथ ऐसा होता लगता नहीं। तुम्हारी झलक पाते ही, यहाँ तक कि तुम्हारे बारे में सोचना शुरू करने भर से मेरे अन्दर हज़ारों चिंगारियाँ एक साथ जल उठती हैं।

19 फरवरी को हालांकि तुम हँस बोल रही थीं, पर कहीं थोड़ी बीमार भी लग रही थीं और तुम्हारी आँखों से प्रेम और कोमलता जैसे हमेशा फूटती थी, उस दिन उनमें तैरती नमी में जैसे धुल गई हो।

29 अक्टूबर को तो तुम गहरे हरे रंग के परिधान में एकदम महारानी लग रही थीं और मुझे लगा, अच्छा ही हुआ कि अपने मन में आ रहे विचारों को मैं तुम तक नहीं पहुँचा पाया और न ही स्वयं तुम तक पहुँच पाया। मुझे कईबार लगता है कि सड़क के किनारे खड़ा होकर मैं जीवन के रथ को गुजरता हुआ चुपचाप देखता जा रहा हूँ।
(नेल्सन मंडेला की अधिकृत जीवनी 'हायर दैन होप' से उद्धृत। लेखिका-फातिमा मीर)
00
अपने परिचय-स्वरूप यादवेन्द्र जी का कहना है कि यूँ तो वह रहने वाले बनारस के हैं पर उनका बचपन बीता है बिहार में और बिहार के हाजीपुर, भागलपुर और पटना में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है, इसलिए प्राय: दफ़्तर या अन्य जगहों पर इस बात पर अक्सर विवाद कर बैठते हैं कि बिहार के मायने केवल लालू ही नहीं होता। जन्म- 1957 में। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद थोड़े समय कोरबा(छत्तीसगढ़) में रहे, फिर 1979 से निरंतर रुड़की में हैं। यहाँ सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इन्स्टीच्यूट में एक वैज्ञानिक और उप-निदेशक के तौर पर काम कर रहे हैं। ‘दिनमान’, ‘रविवार’, ‘आविष्कार’, ‘जनसत्ता’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘हिंदुस्तान’, ‘समकालीन जनमत’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘कथादेश’, और ‘कादम्बिनी’ जैसी अनेक हिंदी की शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में मुख्यतौर पर विज्ञान लेखन करते रहे हैं। गत कुछ वर्षों से अनुवाद की ओर रुख किया है। अपनी माँ को अंग्रेजी में लिखी एक भारतीय कहानी पढ़वाने के लिए अनुवाद शुरू किया और अब इसमें उनका खूब मन रमता है।
सम्पर्क : ए-24, शांति नगर, रुड़की-247667,उत्तराखंड
फोन : 01332- 283245, 094111 11689
ई-मेल : yaa_paa@rediffmail.com

''सेतु साहित्य'' के अगले अंग में पढ़ें -

नेल्सन मंडेला के शेष पत्र तथा विनी मंडेला से तलाक के बारे में उनके द्वारा 13 अप्रैल 1992 को एक प्रेस कांफ्रेंस में दिए गए वक्तव्य का यादवेन्द्र जी द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

डॉ. दलीप कौर टिवाणा की लघुकथा


डॉ. दलीप कौर टिवाणा पंजाबी की एक प्रतिष्ठित और बहु-चर्चित लेखिका हैं जिनके अब तक दो दर्जन से अधिक उपन्यास, अनेक कहानी संग्रह, कई आलोचनात्मक पुस्तकें, एक आत्मकथा ‘नंगे पैरों का सफ़र’ तथा एक साहित्यिक स्व-जीवनी ‘पूछ्ते हो तो सुनो’ पंजाबी में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी अनेक रचनाएं कई भाषाओं में अनूदित होकर लोकप्रिय हो चुकी हैं। डॉ. टिवाणा पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में प्रोफ़ेसर हैं और अपने पंजाबी साहित्य लेखन के लिए अनेक प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवार्डों से विभूषित हो चुकी हैं। प्रस्तुत लघुकथा उनकी पंजाबी पुस्तक ‘मेरियाँ सारियां कहाणियाँ’ में से साभार ली गई है। पुस्तक में यह एक कहानी के रूप में प्रकाशित है, परन्तु मुझे यह एक श्रेष्ठ लघुकथा के अधिक करीब लगी, इसलिए यहाँ एक लघुकथा के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ…

एक्सीडेंट
डॉ. दलीप कौर टिवाणा
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

बस एकदम रुक गई। आगे बहुत भीड़ थी। ठेले का और कार का एक्सीडेंट हो गया था। हमारी बस की सवारियाँ भी देखने के लिए उतर गईं। मैं अपनी सीट पर बैठी रही। ऐसे दृश्य देख कर मेरा दिल घबराने लग जाता है।
मेरे से अगली सीट वाली औरत और मर्द भी नहीं उतरे।
मर्द ने औरत के पीछे की टेक पर अपनी बांह रखी हुई थी और औरत से बहुत सटकर बैठा हुआ था। औरत की गोद में बच्चा था। वह थोड़ा-सा घूम कर बच्चे को दूध पिलाने लगी। मर्द ने गौर से दूध पीते बच्चे की ओर देखा। मूंछों पर हाथ फेरा। पैरों में पड़ी गठरी को ठीक करके वह सरक कर औरत के और करीब हो गया और दूसरी तरफ़ झांकने लग पड़ा।
औरत ने मर्द की ओर झांक कर बच्चे को हल्की-सी चपत लगाते हुए कहा- “हरामी ! दांत काटता है ?” इसके साथ ही उसने उसके मुँह में से स्तन निकाल कर उसे सहलाया और फिर उसके मुँह में दे दिया।
“टब्बर कहाँ है ?” औरत ने मर्द का जायज़ा लेते हुए पूछा।
“पठानकोट।”
“कितने दिन बाद आ जाते हो ?”
“दो चार महीने के बाद।” मर्द ने यूँ बेदिली से जवाब दिया मानो परिवार और परिवारवालों की बातों में उसे कोई दिलचस्पी न हो।
“टब्बर को पास ही रखना चाहिए, ज़माना खराब है। बंदे की बुद्धि भ्रष्ट होने में कौन-सी देर लगती है।” औरत अपनी पीठ को छूती मर्द की बांह से बिलकुल अनजान बनते हुए कहने लगी।
“बात तो ठीक है, पर तुम्हारे जैसा बंदा तो कहीं भी रहे, किसी की क्या मजाल है।” मर्द ने औरत पर झुकते हुए खिड़की में से बाहर वाले एक्सीडेंट की ओर देखते हुए कहा।
“तुम्हारा बच्चा बड़ा शरारती है।” मर्द ने खिड़की में से सिर अन्दर करते हुए दूध चूँघते बच्चे की तरफ़ देखकर कहा।
“मुझे तो यही डर है कि कहीं बाप पर ही न चला जाए। वह तो निरा ही झुड्डू है।” औरत खुश होकर बोली।
“तुम्हें तो हर आदमी ही झुड्डू लगता होगा।”
“नहीं।” औरत ने हँसकर कहा।
“लाओ, काका मुझे पकड़ा दो। थक गए होगे इतने सफ़र में।”
बच्चे को लेते हुए मर्द ने औरत का हाथ बीच में ही दबाया और हँस पड़ा।
औरत भी हँस पड़ी और साथ ही, अपने बेटे के कपड़े संवारती हुई कहने लगी, “बेटा, पेशाब न कर देना अपने मामा पर।”
मर्द ने दूसरी खिड़की में से झांक कर देखा, लोग लौट आए थे। रास्ता साफ़ हो गया था और बस पुन: अपनी राह पर चलने को तैयार थी।
00

रविवार, 10 मई 2009

अनूदित साहित्य



पंजाबी कविता

(स्व.) राम सिंह चाहल की तीन कविताएँ
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव


पंजाब के मानसा ज़िले के एक छोटे-से गाँव 'अलीसेर खुर्द' में एक छोटे किसान परिवार में 1950 में जन्म। पहले तीस वर्ष गाँव में ही गुजारे। पंजाबी यूनीवर्सिटी से एम.ए. की। सन् 2007 में निधन।

पंजाबी में चार कविता संग्रह-'अग्ग दा रंग(1975)', 'मोह मिट्टी ते मनुख(1990)', 'इथों ही किते(1992)' और 'भोंई (2000)'। हिन्दी में एक कविता संग्रह - 'मिट्टी सांस लेती है(1993)'। इसके अतिरिक्त, हिन्दी में संपादन और अनुवाद कार्य भी। भिन्न भिन्न भारतीय भाषाओं की कविताओं का पंजाबी में अनुवाद भी किया। सम्मान : नेशनल सिमपोज़ियम ऑफ पोइट्स-2004, जनवादी कविता पुरस्कार-2002, पंजाबी कविता संग्रह 'भोंइ' पर 'संतराम उदासी(लोक कवि) पुरस्कार-1994 तथा सरदार हाश्मी पुरस्कार-1992 से सम्मानित।


अपना अपना चांदनी चौक
(एक गद्य कविता)

मैं सचमुच बड़ा हो रहा हूँ। अब मैं अपने बच्चे को बड़ा होते देख रहा हूँ। हाँ, खुश हो रहा हूँ, पत्नी खुश हो रही है। देख रहा हूँ- हमारे बगैर कोई और भी क्यों खुश नहीं दिखाई दे रहा ? अजीब है कि बच्चा ज्यूँ ज्यूँ बड़ा होता जा रहा है, मैं छोटा होता जा रहा हूँ। उम्र बढ़ नहीं, घट रही है। यह बात मेरी दीवार पर लगा शीशा मुझे बता रहा है। बेजान वस्तुएँ भी बोलने लगती हैं। दीवारें बहुत कुछ कह रही हैं। साथ वाले कुएँ में से आवाज़ जा रही है। वृक्ष पर से पंछियों की आवाज़ निरंतर कह रही है- 'तुम बूढ़े होते जा रहे हो।' मैं उनकी ओर ध्यान देने लगता हूँ। गौर से देखता हूँ। कबूतरों की गुटर-गूँ सुनाई देती है। लगता है जैसे फिर से जवान हो रहा हूँ। सारे पक्षी जवान नज़र आते हैं। कोई भी बूढ़ा दिखाई नहीं दे रहा। सोचता हूँ- जो उड़ान भर सकते हैं, वे कभी बूढ़े नहीं हो सकते। कभी भीखी, कभी भदोड़, कभी लुधियाने, कभी चंडीगढ़ आदमी भी उड़ाने भर सकता है। पर वह क्या करे ? पच्चीसवें साल तक पहुँचते ही उसके पर काट दिए जाते हैं। कौन काटता है ये पंख ? पहली उड़ान और आख़िरी उड़ान एक ही दिन। शेष बची उम्र नमक-तेल के हवाले हो जाती है। अपने गाँव के कितने ही लोगों को जानता हूँ जो उम्र भर से मेरे गाँव के ‘चिमने की हट्टी’ को ही दिल्ली का क्नाट प्लेस समझे बैठे हैं, और गाँव की चौपाल को चांदनी चौक।
हर एक की अपनी अपनी उड़ान है
हर एक का अपना अपना चांदनी चौक है।
00

बस यों ही...

एक बार सोचता हूँ
मेरे मरने के साथ
सारी दुनिया ही मर जाएगी

फिर सोचता हूँ
मेरे मरने से
कहीं कुछ भी नहीं होगा

दरख्तों पर नये पत्ते
फूटते रहेंगे
फसलें फलने-फूलने से
नहीं रुकेंगी
शाम भी
इसी तरह ही आएगी
सुबह और भी
हसीन होकर मिलेगी

दो पल के लिए आँखें मूंदता हूँ
दो पल के लिए फिर जागता हूँ

तारे टिमटिमाते हैं
चूल्हे तपते हैं
रोटियाँ पकती हैं
तड़के लगने लगते हैं

नहीं होगी तो बस एक मेरी
आवाज़ नहीं होगी
वैसे मेरी आवाज़ से भी
किसी ने क्या लेना है ?

आवाज़ जब भी लगाता हूँ
अपने लिए ही लगाता हूँ
आवाज़ न भी लगाओ
कैलेंडर पर तारीख़ बदलती रहती है।
००

सवाल

मित्र-यार कहते हैं
मैं पचास का हो कर
हमेशा पच्चीस का लगता हूँ
वे एतराज़ भी करते हैं
मैं दाढ़ी क्यों रंगता हूँ

मैं बार-बार कहता हूँ
मैं सयाना नहीं बनना चाहता
तुम मुझे सयाना क्यों बनाना चाहते हो ?
पचास का हो कर भी
मैं वही लिखता हूँ
जो पच्चीस का है
और फिर जब तक
यों ही लिखता रहूँगा
लगता है-
मैं पचास से आगे नहीं पहुँच सकूंगा

देखो न
घरवाली के साथ चलता
जवान लगता हूँ
आदमी के साथ चलता
उसका हमउम्र लगता हूँ
फिर भी
मित्रों के साथ चलता
मित्रों को क्यो ठीक नहीं लगता
पता नहीं...
00
(उपर्युक्त कविताएं तथा कवि परिचय तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग ''आरसी'' से साभार)

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

अनूदित साहित्य


इरानी कविता

“मैं कविता को सम्मान का वही दर्ज़ा देती हूँ, धार्मिक लोग जो धर्म को देते हैं…”
-फ़रोग फ़रोखज़ाद

1935 में तेहरान में एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी फ़रोग ने अपने 32 वर्षों के छोटे से जीवनकाल में पाँच काव्य संकलन(अन्तिम संकलन उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित), अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही गई डाक्युमेंटरी फ़िल्म "द हाउस इज़ ब्लैक"(1962), नाटक (लेखन और प्रस्तुति), पेंटिंग और स्केचिंग जैसी अनेक विधाओं में काम किया। उन्हें आधुनिक इरानी कविता के हिरावल दस्ते का महत्वपूर्ण सदस्य माना जाता है। शाह के सत्तापलट के बाद अयातोल्ला खोमेनी की सरकार ने उनकी कविताओं पर पाबंदी लगा दी, उनके प्रकाशक को दंडित किया गया, पर धीरे-धीरे जनभावनाओं को देखते हुए ये पाबंदियाँ कम कर दी गईं। आज भी उनकी कई किताबों के नए संस्करण निकल रहे हैं। उन पर फ़िल्में बनाई जा रही हैं और नाटकों का मंचन हो रहा है और इरानी ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में प्रगतिशील महिला आंदोलन के प्रेरणास्रोत के तौर पर उन्हें याद किया जा रहा है।

यहाँ प्रस्तुत है फ़रोग फ़रोखज़ाद की अंग्रेजी में अनूदित चार कविताओं का हिंदी अनुवाद।


फ़रोग फ़रोखज़ाद की चार कविताएं
अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र
कविताओं के साथ सभी चित्र : अवधेश मिश्र

अभिवादन सूर्य का

एकबार फिर से मैं अभिवादन करती हूँ सूर्य का
मेरे अंदर जो बह रही है नदी
मेरी अंतहीन सोच के घुमड़ते मेघों का सिलसिला
बाग में चिनार की अनगढ़ बढ़ी हुईं क्यारियाँ
गर्मी के इस मौसम में भी
सब मेरे साथ-साथ चल रहे हैं।

खेतों में रात में आने वाली गंध
मुझ तक पहुँचाने वाले कौवों के झुंड भी
मेरी माँ भी जिसका
इस आईने में अब अक्स दिखता है
और मुझे खूब मालूम है
बुढ़ापे में दिखूँगी मैं हू-ब-हू वैसी ही।

एक बार मैं फिर से धरती का अभिवादन करूँगी
जिसकी आलोकित आत्मा में
जड़े हुए है मेरे अविराम आवेग के हरे-भरे बीज।

मैं लौटूँगी, ज़रूर लौटूँगी, मुझे लौटना ही होगा
अपनी लटों के साथ, नम माटी की सुगंध के साथ
अपनी आँखों के साथ,
अंधकार की गहन अनुभूतियों के साथ,
उन जंगली झाड़ियों के साथ
जिन्हें दीवार के उस पार से
चुन चुनकर मैंने इकट्ठा किया था।

मैं लौटूँगी, ज़रूर लौटूँगी, मुझे लौटना ही होगा
प्रवेश द्वार सजाया जाएगा प्रेम के बंदनवार से
और वहीं खड़ी होकर मैं एकबार फिर से
उन सबका स्वागत करूँगी
जो प्रेम में हैं डूबे हुए आकंठ
देखो तो एक लड़की अब भी खड़ी है वहाँ
प्रेम से सिरे तक आकुल।
(‘गुलाम रज़ा सामी गोरगन रूडी’ के अंग्रेजी अनुवाद से)
0

बंदी

मैं तुम्हें चाहती हूँ हालाँकि मालूम है
कभी अपने सीने से लगा नहीं पाऊँगी तुम्हें
स्वच्छ और चमकीले आकाश हो तुम
और मैं अपने पिंजरे के इस कोने में
दुबकी हुई एक बंदी चिड़िया।

सर्द और काली सलाखों के पीछे से
बढ़ती हैं तुम्हारी ओर
लालसापूर्ण मेरी कातर निगाहें
आतुर होकर देखती रहती हूँ बाट उस बांह की
जो मुझ तक पहुँचे और मैं फड़फड़ाकर खोल दूँ
अपने सारे पंख तुम्हारी ओर।

सोचती हूँ, गफ़लत के पल भी आएँगे
और मैं इस सन्नाटे की क़ैद से उड़ जाऊँगी फुर्र से
पहरेदार की आँखों के इर्द-गिर्द करूँगी चुहलबाजियाँ
और नए सिरे से श्रीगणेश करूँगी
जीवन का तुम्हारे साथ-साथ।

ऐसी ही बातें सोचती रहती हूँ
हालाँकि मालूम है
है नहीं मुझमें इतना साहस
कि मुक्ति के आकाश में उड़ चलूँ
कालकोठरी से बाहर –
पहरेदार बहुत मेहरबान भी हो जाएँ
नहीं मिलेगी मुझे इतनी साँस और हवा
कि फड़फड़ाकर उड़ सकें मेरे पंख।

हर एक चटक सुबह सलाखों के पीछे से
मेरी आँखों में आँखें डालकर मुस्कुराता है एक बच्चा
और जब मैं उन्मत्त होकर गाना शुरू करती हूँ खुशी के गीत
बढ़ आते हैं उसके मुरझाए हुए होंठ मुझ तक चूमने को मुझे।

मेरे आकाश, जब कभी मैं चाहूँ
इस सन्नाटे की कालकोठरी से भाग कर तुम तक पहुँचना
क्या सफाई दूँगी कलपते हुए उस बच्चे की आँखों को
कि बंदी चिड़ियों का ही मालिक होता है
एक ही मालिक
क़ैदखाना।

मैं वह शमा हूँ
जो आत्मदाह से रौशन करते है अपने घोंसले
यदि मैं बुझा दूँगी अपनी आग और लौ
तो फिर कहाँ बचेगा
यह अदद घोंसला भी।
(इराज़ बशीरी के अंग्रेजी अनुवाद से)
0

स्नान

अठखेलियाँ करती हवा में मैंने अपने कपड़े उतारे
कि नहा सकूँ कलकल बहती नदी में
पर स्तब्ध रात ने बाँध लिया मुझे अपने मोहपाश में
और ठगी-सी मैं
अपने दिल का दर्द सुनाने लगी पानी को।

ठंडा था पानी और थिरकती लहरों के साथ बह रहा था
हल्के से फुसफुसाया और लिपट गया मेरे बदन से
और जागने-कुलबुलाने लगीं मेरी चाहतें

शीशे जैसे चिकने हाथों से
धीरे-धीरे वह निगलने लगा अपने अंदर
मेरी देह और रूह दोनों को ही।

तभी अचानक हवा का एक बगूला उठा
और मेरे केशों में झोंक गया धूल-मिट्टी
उसकी साँसों में सराबोर थी
जंगली फूलों की पगला देने वाली भीनी ख़ुशबू
यह धीरे-धीरे भरती गई मेरे मुँह के अंदर।

आनंद में उन्मत्त हो उठी मैंने
मूँद लीं अपनी आँखें
और रगड़ने लगी बदन अपना
कोमल नई उगी जंगली घास पर
जैसी हरकतें करती है प्रेमिका
अपने प्रेमी से सटकर
और बहते हुए पानी में
धीरे-धीरे मैंने खो दिया अपना आपा भी
अधीर, प्यास से उत्तप्त और चुंबनों से उभ-चुभ
पानी के काँपते होंठों ने
गिरफ़्त में ले लीं मेरी टांगें
और हम समाते चले गए एक दूसरे में…
देखते – देखते
तृप्ति और नशे से मदमत्त
मेरी देह और नदी की रूह
दोनों ही जा पहुँचे – गुनाह के कटघरे में।
(‘मीतरा सोफिया’ के अंग्रेजी अनुवाद से)
0


पाप

मैंने पाप किया पर पाप में था निस्सीम आनंद
समा गई गर्म और उत्तप्त बाँहों में
मुझसे पाप हो गया
पुलकित, बलशाली और आक्रामक बाँहों में।

एकांत के उस अँधेरे और नीरव कोने में
मैंने उसकी रहस्यमयी आँखों में देखा
सीने में मेरा दिल ऐसे आवेग में धड़का
उसकी आँखों की सुलगती चाहत ने
मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया।

एकांत के उस अँधेरे और नीरव कोने में
जब मैं उससे सटकर बैठी
अंदर का सब कुछ बिखर कर बह चला
उसके होंठ मेरे होंठों में भरते रहे लालसा
और मैं अपने मन के
तमाम दुखों को बिसराती चली गई।

मैंने उसके कान में प्यार से कहा –
मेरी रूह के साथी, मैं तुम्हें चाहती हूँ
मैं चाहती हूँ तुम्हारा जीवनदायी आलिंगन
मैं तुम्हें ही चाहती हूँ मेरे प्रिय
और सराबोर हो रही हूँ तुम्हारे प्रेम में।

चाहत कौंधी उसकी आँखों में
छलक गई शराब उसके प्याले में
और मेरा बदन फिसलने लगा उसके ऊपर
मखमली गद्दे की भरपूर कोमलता लिए।

मैंने पाप किया पर पाप में था निस्सीम आनंद
उस देह के बारूद में लेटी हूँ
जो पड़ा है अब निस्तेज और शिथिल
मुझे यह पता ही नहीं चला हे ईश्वर !
कि मुझसे क्या हो गया
एकांत के उस अँधेरे और नीरव कोने में।
(‘अहमद करीमी हक्काक’ के अंग्रेजी अनुवाद से)
00

अपने परिचय-स्वरूप यादवेन्द्र जी का कहना है कि यूँ तो वह रहने वाले बनारस के हैं पर उनका बचपन बीता है बिहार में और बिहार के हाजीपुर, भागलपुर और पटना में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है, इसलिए प्राय: दफ़्तर या अन्य जगहों पर इस बात पर अक्सर विवाद कर बैठते हैं कि बिहार के मायने केवल लालू ही नहीं होता। जन्म- 1957 में। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद थोड़े समय कोरबा(छत्तीसगढ़) में रहे, फिर 1979 से निरंतर रुड़की में हैं। यहाँ सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इन्स्टीच्यूट में एक वैज्ञानिक और उप-निदेशक के तौर पर काम कर रहे हैं। ‘दिनमान’, ‘रविवार’, ‘आविष्कार’, ‘जनसत्ता’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘हिंदुस्तान’, ‘समकालीन जनमत’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘कथादेश’, और ‘कादम्बिनी’ जैसी अनेक हिंदी की शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में मुख्यतौर पर विज्ञान लेखन करते रहे हैं। गत कुछ वर्षों से अनुवाद की ओर रुख किया है। अपनी माँ को अंग्रेजी में लिखी एक भारतीय कहानी पढ़वाने के लिए अनुवाद शुरू किया और अब इसमें उनका खूब मन रमता है।
सम्पर्क : ए-24, शांति नगर, रुड़की-247667,उत्तराखंड
फोन : 01332- 283245, 094111 11689
ई-मेल : yaa_paa@rediffmail.com

रविवार, 8 मार्च 2009

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता
डा. अमरजीत कौंके पंजाबी की नई कविता पीढ़ी के एक बेहद चर्चित और होनहार कवि हैं। यह जितने पंजाबी में अपनी कविता के लिए मकबूल हैं, उतने ही हिन्दी में भी पसंद किए जाते हैं। पंजाबी-हिन्दी का गहरा ज्ञान रखने वाले कौंके जी एक सफल अनुवादक भी हैं। इन्होंने न केवल अपनी माँ बोली पंजाबी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य का हिन्दी में प्रचुर मात्रा में सफल अनुवाद किया है, बल्कि हिन्दी के अग्रज और वरिष्ठ लेखक, कवियों की श्रेष्ठ रचनाओं का पंजाबी में अनुवाद करके अपनी माँ-बोली की झोली को और अधिक समृद्ध बनाया है। पंजाबी में इनकी छह कविता पुस्तकों के अतिरिक्त हिन्दी में भी तीन कविता पुस्तकें ''मुट्ठी भर रोशनी(1995)'', ''अँधेरे में आवाज़(1997)'' और ''अंतहीन दौड़(2006)'' प्रकाशित हो चुकी हैं। कौंके जी की कविताएं हमारे अपने समय और जीवन के यथार्थ को रेखांकित करती अद्भुत कविताएँ हैं। इनकी हर कविता ने अपनी गहरी संवेदनात्मकता के कारण मुझे इतना प्रभावित किया कि ''सेतु साहित्य'' के लिए कविताओं का चयन करते समय मेरी समझ में नहीं आया कि इनकी कौन सी कविता मैं लूँ और कौन सी छोड़ूँ। लेकिन एक ब्लॉग पत्रिका की अपनी एक सीमा होती है। लिहाजा, सात कविताएँ इनके हिन्दी कविता संग्रह ''अंतहीन दौड़'' जिनका हिन्दी अनुवाद कवि ने स्वयं किया है, से ली गई हैं और दो प्रेमपरक कविताओं का चयन तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग ''आरसी'' से किया गया है। अपनी माँ के निधन पर डा. अमरजीत कौंके ने कुछ कविताएँ पिछले बरस लिखी थीं जिन्हें उन्होंने अपनी त्रैमासिक पत्रिका ''प्रतिमान'' (जुलाई-सितम्बर 2008) में प्रकाशित किया था, उन्हीं में एक कविता ''माँ के नाम का चिराग'' भी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। मुझे उम्मीद है कि ''सेतु साहित्य'' के पाठक डा. अमरजीत कौंके की यहाँ प्रकाशित दस कविताओं को पढ़कर न केवल इनसे एक गहरा जुड़ाव महसूस करेंगे बल्कि अपने भीतर इन कविताओं पर टिप्पणी छोड़ने का दबाव भी अनुभव करेंगे।

-सुभाष नीरव
डा.अमरजीत कौंके की दस कविताएं

1
पता नहीं

पता नहीं
कितनी प्यास थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने समुद्रों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
पानी का एक छोटा-सा
क़तरा बन जाता

पता नहीं
कितनी अग्नि थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने सूरजों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
एक छोटा-सा
जुगनूँ बन जाता

पता नहीं
कितना प्यार था उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी बेपनाह मोहब्बत पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
मेरा सारा प्यार
एक तिनका मात्र रह जाता

पता नहीं
कितनी साँस थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी लम्बी साँसों पर
बहुत गर्व था
उसके पास जाता
तो मेरी साँस टूट जाती

पता नहीं
कितने मरूस्थल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने जलस्रोतों पर
बहुत गर्व था
उसकी देह में
एक छोटे से झरने की भांति
गिरता और सूख जाता

पता नहीं
कितने गहरे पाताल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे बहुत बड़ा तैराक होने का भ्रम था
उसकी आँखों में देखता
तो अंतहीन गहराइयों में
डूब जाता
डूबता ही चला जाता।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
0

2
उत्तर आधुनिक आलोचक

जब मैंने
भूख को भूख कहा
प्यार को प्यार कहा
तो उन्हें बुरा लगा

जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को आकाश कहा
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा

परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चाँद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी

तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)

3
खोये हुए रंग
(होली पर विशेष)

जाने अनजाने हमसे
जो रंग अचानक खो गए
हो सके तो
उन रंगों को ढूँढ़ कर लाएँ
आओ इस बार
होली फिर रंगों से मनाएँ।

कुछ रंग
रंगों की खोज में निकले
वापस नहीं लौटे
घर उनकी खबर ही लौटी
कुछ रंग खूनी ऋतुओं ने निगले
कुछ रंग सरहदों पर बिखरे
कुछ रंग खेतों में तड़पते
कुछ रंगों की रूहें
अभी भी सूने घरों में तिलमिलातीं
कुछ रंगों को
अभी भी उनकी माँएँ बुलातीं
ये रंग जितने भी खोए
हमारे अपने थे
इन रंगों के बिना
हमारे आँगन में
मातम है
शोक है
सन्ताप है
इन रंगों के बिना
होली रंगों की नहीं
जख्मों की बरसात है

कोशिश करें
कि कच्चे जख्मों को
फिर हँसने की कला सिखाएँ
हो सके तो
उन रंगों को
ढूँढ़ कर लाएँ
और होली इस बार फिर
रंगों से मनाएँ।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
0

4
कलाइडियोस्कोप

उन्होंने कहा
कलाइडियोस्कोप ही तो है-
ज़िन्दगी
थोड़े से
चूड़ियों के टुकड़े डालो
आँख से लगाओ
और घुमाओ

मैं देर तक सोचता रहा
कि रंग-बिरंगे
काँच के टुकड़ों के लिए
मैं कौन-सी
खनखनाती कलाइयों को
सूना करूँ...।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
0
5
लालटेन

कंजक कुँआरी कविताओं का
एक कब्रिस्तान है
मेरे सीने के भीतर

कविताएँ
जिनके जिस्म से अभी
संगीत पनपना शुरू हुआ था
और उनके अंग
कपड़ों के नीचे
जवान हो रहे थे
उनके मरमरी चेहरों पर
सुर्ख आभा झिलमिलाने लगी थी

तभी अतीत ने
उन्हें क्रोधित आँखों से देखा
वर्तमान ने
तिरछी नज़रों से घूरा
और भविष्य ने त्योरी चढ़ाई

इन सुलगती हुई निगाहों से डर कर
मैंने उन कविताओं को
अपने मन की धरती में
गहरा दबा डाला
अपनी तरफ से उन्हें
गहरी नींद सुला डाला
और कहा-
कि अभी कविताओं को
प्यार करने का समय नहीं

लेकिन टिकी रात के
ख़ौफनाक अँधेरे में
मेरे भीतर अब भी
उनकी भयानक हँसी गूँजती
दिल दहला देने वाली चीख़ें
विलाप की आवाज़
मेरे मन की दीवारों से
टकरा-टकरा कर लौटती
और पूछती-
कि हमारा गुनाह क्या था ?
आवाज़ पूछती
तो मेरे मन की मिट्टी काँपती
काँपती और तड़पती
और मैं
घर से छिपकर
समाज से छिपकर
पूर्वजों से छिपकर
हाथों में
स्मृतियों की लालटेन पकड़े
सारे कब्रिस्तान की परिक्रमा करता।

और कंजक कुँआरी
कविताओं की कब्रों पर
अपने लहू का
एक-एक चिराग
रोशन करता।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
0

6
धीर-धीरे

इसी तरह धीरे-धीरे
ख्वाहिशें ख़त्म होती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
मरता है आदमी

इसी तरह धीरे-धीरे
आँखों से सपने
सपनों से रंग खत्म होते
रंगों से खत्म होती है दुनिया
सफ़ेद कैनवस पर काली चिड़ियाँ
मृत नज़र आती हैं

इसी तरह धीरे-धीरे
इबारतें कविताओं में सिमटतीं
कविताएँ पँक्तियों में सिकुड़तीं
पँक्तियाँ शब्दों में लुप्त होतीं
और शब्द शून्य में खो जाते

इसी तरह धीरे-धीरे
इन्तज़ार करते
आँखों में इन्तज़ार खत्म होता
तड़पते-तड़पते
होठों का लरजना भूल जाता
छुअन को ललकते
पोरों से कम्पन गायब हो जाता

इसी तरह धीरे-धीरे
घर इन्सान को खा जाते
दीवारें उसकी मजबूरी बन जातीं
रिश्ते जो उसके पाँव की बेडियाँ होते
आदमी उन्हें
पाजेब बना कर थिरकने लगता है

इसी तरह धीरे-धीरे
व्यवस्था के खिलाफ़ जूझता आदमी
व्यवस्था का अहम् हिस्सा बन जाता
रंगों की दुनिया में
मटमैला-सा रंग बन जाता
और कैनवस से एक दिन लुप्त हो जाता

इसी तरह धीरे-धीरे
सोचते-सोचते
आदमी जड़ हो जाता है एक दिन
पता ही नहीं चलता
कब कोई
उसके हाथों से कलम
कोई कागज़
छीन कर ले जाता

इसी तरह धीरे-धीरे
एक कवि
कवि से कोल्हू का बैल बन जाता
और आँखों पर पट्टी बाँध कर
मुर्दा ज़िन्दगी की
परिक्रमा करने लगता।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
0

7
बहुत दूर

बहुत दूर
छोड़ आया हूँ मैं
वो खाँस-खाँस कर
जर्जर हुए ज़िस्म
भट्टियों की अग्नि में
लोहे के साथ ढलते शरीर
फैक्ट्रियों की घुटन में कैद
बेबसी के पुतले
मैं
बहुत दूर छोड़ आया हूँ

दूर छोड़ आया हूँ
वह पसीने की बदबू
एक-एक निवाले के लिए
लड़ा जाता युद्ध
छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए
जिबह होते अरमान
दिल में छिपी कितनी आशाएँ
होठों में दबा कितना दर्द
मैं
कितनी दूर छोड़ आया हूँ

दूर छोड़ आया हूँ
मैं वह युद्ध का मैदान
जहाँ हम सब लड़ रहे थे
रोटी की लड़ाई
अपने-अपने मोर्चों में

पर मुझे मुट्ठी भर
अनाज क्या मिला
कि मैं सबको
मोर्चों पर लड़ता छोड़ कर
दूर भाग आया हूँ

वे सब अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं
अंतहीन लड़ाई
उदास
निराश
फैक्ट्रियों में
तिल-तिल मरते
सीलन भरे अँधेरों में गर्क होते
मालिक की
गन्दी गालियों से डरते
थोड़े से पैसों से
अपना बसर करते
पल पल मरते

वे सब
अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं

मैं ही
बहुत दूर
भाग आया हूँ।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
0
8
माँ के नाम का चिराग़

घर को कभी न छोड़ने वाली माँ
उन लम्बे रास्तों पर निकल गई
जहाँ से कभी कोई लौट कर नहीं आता

उसके जाने के सिवा
सब कुछ उसी तरह है

शहर में उसी तरह
भागे जा रहे हैं लोग
काम-धंधों में उलझे
चलते कारखाने
काली सड़कों पर बेचैन भीड़
सब कुछ उसी तरह है।

उसी तरह
उतरी है शहर पर शाम
ढल गई है रात
जगमगा रहा है शहर सारा
रौशनियों से

सिर्फ़ एक माँ के नाम का
चिराग़ है बुझा...।
(हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)
00


9
करामात

मैं अपनी प्यास में
डूबा रेगिस्तान था।

मुद्दत से मैं
अपनी तपिश में तपता
अपनी अग्नि में जलता
अपनी काया में सुलगता

भुला बैठा था मैं
छांव
प्यास
नीर...

भूल गए थे मुझे
ये सारे शब्द
शब्दों के सारे मायने
मेरे कण-कण में
अपनी वीरानगी
अपनी तपिश
अपनी उदासी में
बहलना सीख लिया था

पर तेरी हथेलियों में से
प्यार की
कुछ बूँदें क्या गिरीं
कि मेरे कण-कण में
फिर से प्यास जाग उठी

जीने की प्यास
अपने अन्दर से
कुछ उगाने की प्यास

तुम्हारे प्यार की
कुछ बूँदों ने
यह क्या करामात कर दी
कि एक मरुस्थल में भी
जीने की ख्वाहिश भर दी।
(हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)

10
फूल खिलेगा

तूने एक रिश्ते पर
कितनी आसानी से
मिट्टी डाल दी
तेरे साथ वालों ने
मिट्टी फेंक-फेंक कर
इक रिश्ते की कब्र बना दी

शायद तुझे भ्रम है
कि रिश्ते यूँ खत्म हो जाते
लेकिन
बरसों बाद
सदियों बाद
जन्मों बाद
इस कब्र में से
फिर इस रिश्ते की
सुर्ख कोंपल फूटेगी

फिर इस कब्र में से
प्यार का महकता फूल खिलेगा।
(हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)
00




जन्म : 27 अगस्त 1964
शिक्षा : एम.ए.(पंजाबी), पीएच.डी ।
प्रकाशन : हिन्दी में ''मुट्ठी भर रोशनी(1995)'', ''अँधेरे में आवाज़(1997) और ''अंतहीन दौड़(2006)'' काव्य संग्रह।

पंजाबी में ''दायरियाँ दी कब्र चों(1985)'', ''निर्वाण दी तलाश विच(1987)'', ''द्वन्द्व कथा(1990)'', ''यकीन(1993)'', ''शब्द रहणगे कोल(1996)'' तथा ''स्मृतियों की लालटेन( 2002, 2004)'' काव्य संग्रह।

अनुवाद : हिन्दी के दिग्गज लेखकों- डा. केदार नाथ सिंह की ''अकाल में सारस'', श्री नरेश मेहता की ''अरुण्या'', अरुण कमल की ''नये इलाके में'', मिथिलेश्वर की ''उस रात की बात'', मधुरेश की ''देवकी नंदन खत्री'', हिमांशु जोशी की ''छाया मत छूना मन'', बलभद्र ठाकुर की ''राधा और राजन'' पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद। पंजाबी कवि रविंदर रवी, परमिंदर सोढ़ी, डा. रविंदर, सुखविंदर कम्बोज की पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद।

संपादन : त्रैमासिक पंजाबी पत्रिका ''प्रतिमान'' का निरंतर संपादन।

सम्मान एवं पुरस्कार : भाषा विभाग, पंजाब से हिन्दी पुस्तक ''मुट्ठी भर रोशनी'' के लिए 1995 का सर्वोत्तम हिन्दी पुस्तक पुरस्कार। गुरू नानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर से पुस्तक ''शब्द रहणगे कोल'' के लिए वर्ष 1998 में मोहन सिंह माहिर पुरस्कार। समूचे काव्य लेखन के लिए इयापा(I.A.A.P.A.), कैनाडा सम्मान से सम्मानित।

अन्य : भारत की अनेक भाषाओं में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित।

सम्प्रति : लेक्चरार ।

सम्पर्क : 718, रणजीत नगर- ए, भड़सों रोड, पटियाला-147 001(पंजाब)
दूरभाष : 0175-5006463, 098142 31698(मोबाइल)

ई मेल : amarjeetkaunke@yahoo.co.in

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता

तनदीप तमन्ना की पाँच कविताएँ
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव

1
ख़ुदा ख़ैर करे

मैं सरसरी पूछ बैठी-
“क्या हाल-चाल है ?”
तेरा जवाब था कि
“जो आग लगने के बाद
सरकंडों की झाड़ियों का होता है…”

अधर सिल गए थे मेरे
कुछ पलों का सन्नाटा
तेरा दर्द
मेरी रूह के हवाले कर गया था।

तूने कहा-
“…चाहे बातें न कर
पर
हुंकारा तो भर…
शाम आराम से बीत जाए…”

मैंने कहा-
“…कहीं शाम के साथ
बातें भी बीती न हो जाएं
हुंकारा भरते-भरते
कोई बात न शुरू हो जाए।”

तूने देखा हसरत भरी नज़रों से
और फिर
ठंडी आह भरकर रह गया था।

तूने वास्ता दिया था
“बाहरों में तो न मिला कर
पतझर-सा चेहरा लेकर…”

मैंने कहा-
“तेरा गिला भी जायज़ है
पर मैं तुझे
बारिश में तो मिलती हूँ
आँखों में झड़ी लेकर…।”

अब हम दोनों चुप खड़े थे !

मेरी आँखों के अंदर की
शोख तितली
तेरे मन के
मनचले भौंरे का हाथ थाम
तर्क के ग्लेशियर की
सीमा पार कर चुकी थी
और हम
सूरज को क्षितिज पर
अस्त होता देख रहे थे।
00

2
कुछ कहना तो ज़रूर था

आज
कुछ कहना तो था
शब्दों के
दाँत भिच गए…
ख़यालों के
होश उड़ गए
अहसासों को
लकवा मार गया
इशारे आँखों में ही
पथरा गए

वैसे
आज
कुछ कहना तो
ज़रूर था !
00

3
पिरामिड

सदियों पहले
किसी ने दफ़ना दिया था मुझे
देह पर चंदन का लेप कर
हीरे, चांदी और सोने से लाद कर
गहरी नींद की दवा दे कर!

पर मैं
मैं उस पिरामिड में से
हर रात जागती हूँ
तारों की रोशनी में
आहिस्ता से पैर धर
हवा के मातमी
सुरों की हामी भर
धरती का चप्पा-चप्पा
पर्वत, नदियाँ, समन्दर,
ज्वालामुखी, ग्लेशियर घूम
तुझे किसी योग-मुद्रा में लीन
तपस्या करते देख
तेरे हठ को सलाम कर
अगली बार
समाधि खुलने की आस लिए
पौ फटने से पहले ही
आँखों में से ढ़ुलकदे मोतियों को
तेरे बे-रहम शहर की
रेत में बीज कर
ताबूत की ओर लौट आती हूँ !
00

4
कस्तूरी गायब है

यहाँ घरों में
सब कुछ है
पर कुछ भी तो नहीं…
यहाँ भरे हुए बर्तन खनकते हैं।

और इन घरों के बाशिंदे
मरुस्थल में
तड़फती मछलियाँ हैं।

हज़ारों रोशनियों में
सिल्क के पर्दों के पीछे
सूरज को पकड़ने के लिए
साये जीते हैं।

परबतों की चीख
नदी का दर्द
समाये रह जाते हैं
दिलकश चित्रों के अंदर।

एक्वेरिअम में पाल कर मछलियाँ
पालते हैं भ्रम
ठांठे मारते समुद्र का।
आलीशान घरों के कमरे
सिकुड़ जाते हैं
और पीर
और भी बढ़ जाती है
महकों के प्यासे मृगों की।
00
5
दर्द

अतीत का
ज़िक्र छिड़ते ही
हाथों के बीच का आटा
खमीर बन गया है

एक रात
हाँ, उस रात
तेरे दर्द के जंगल में से
गुजरी थी
पंख कतरे गए थे मेरी
चीख के।

जंगल की ख़ामोशी
परतें बन चढ़ गई थी
मेरे जेहन पर।

काले फ़नीअर
विष त्याग गए थे
शब्द रहित दर्द
बाहें खोल कर आया।

जब हम जुदा हुए तो
तेरा लावा…
मेरा ग्लेशियर…
बांहों में भर
दर्द
किसी पहाड़ी घर की
चिमनी में से
धुआँ बनकर निकल रहा था।
00

पंजाबी की युवा कवयित्री। कनाडा में रहते हुए अपनी माँ-बोली पंजाबी भाषा की सेवा अपने पंजाबी ब्लॉग “आरसी” के माध्यम से कर रही हैं। गुरूमुखी लिपि में निकलने वाले उनके इस ब्लॉग में न केवल समकालीन पंजाबी साहित्य होता है, अपितु उसमें पंजाबी पुस्तकों, मुलाकातों और साहित्य से जुड़ी सरगर्मियों की भी चर्चा हुआ करती है। इधर “आरसी” में हिन्दी भाषा के साहित्य के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के अनुवाद को भी तरजीह दी जा रही है।
“आरसी” का लिंक है- www.punjabiaarsi.blogspot.com
तनदीप तमन्ना का ई मेल है- tamannatandeep@gmail.com

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

अनूदित साहित्य


ओड़िया कविता

सीताकांत महापात्र की कविताएं
अनुवाद : गगन गिल/सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र



परछाईं


देख रहा था काफ़ी दिनों से
वो वहीं खड़ी है
पैर जमाये, सिर झुकाये
ठीक मेरे फाटक के आगे
अडिग मूरत जैसी।

चाहती तो अचानक ही फाटक खोल
अंदर आ सकती थी
बरामदे, ड्राइंग-रूम से होती हुई
यहाँ तक कि सीधे मेरे शयन-कक्ष में आ सकती थी
मेरी किताबें, मेरे ख़याल
मेरी शेष ज़िंदगी, मेरे सपने
जो भी चाहती ले जा सकती थी
लेकिन मूर्ख ऐसा कुछ नहीं करती
यहाँ तक कि झिझकती-सकुचाती आवाज़ में औरों की तरह
चबूतरे पर चढ़कर
‘महाराज-महाराज’ कहकर भी नहीं बुलाती।

यहाँ से राह बदल कर लौट भी नहीं जाती
धूप, ताप, ठंड, पाला सब सह कर
चाँदनी रात में डरौने की तरह
वहीं उसी तरह खड़ी रहती है।

फाटक भी तो नहीं खोलता
पर न जाने वो कैसा जादू जानती है कि
मेरे सारे सपनों में आकर उपस्थित हो जाती है
और उसके बाद ही, बेटी-बेटा, पत्नी और ख़ुद मैं
कुर्सियों पर आमने-सामने बैठ होते हैं
चाय पीते समय भी लगता है
हम सभी नीले आकाश में टिमटिमाते नक्षत्र हैं
अचानक सारी बातचीत अटपटी लगने लगती है
कोई बात खत्म करने से पहले
अनमना होकर मैं चुप हो जाता हूँ।

हो सकता है उसी के डर से
जो चिड़ियाँ घर के सामने वृक्ष की डालों पर बैठ
गीत गाया करती थीं
और मैं सोचा करता था
वे गा रहीं हैं सिर्फ़ मेरे लिए
न जाने कहाँ उड़ जाती हैं
बेल-बूटे कमज़ोर और सूखे लगने लगते हैं
चाँद की रौशनी भी मैली लगने लगती है
लगता है, अगर कुछ और दिनों तक वह इसी तरह
वहाँ खड़ी रही तो
चाँद पूरी तरह स्याह हो जाएगा
चिड़ियाँ चहकना बिसर जाएंगी
सारे शब्द कहीं गुम हो जाएंगे।

नौकर-चाकर, पत्नी, बच्चे जिससे भी पूछो
वे कहते हैं- कहाँ है ?
फाटक के पास तो नंगी हवा के सिवा
और कोई भी तो नहीं !
मैं कितनी तरकीबें लगाता हूँ
उसे सम्मानित मेहमान बनाकर
अंदर घर में ले आऊँ
और उसमें असफल होने पर
डरा-धमका कर दुश्मन की तरह भगा दूँ।

लेकिन कोई लाभ नहीं होता
क्या रात, क्या दिन
क्या आषाढ़, क्या फाल्गुन
सिर झुकाये, सपने में देखे सपने-सी
वह वहीं उसी तरह खड़ी रहती है।
00

बहता नहीं समय

बहता नहीं समय
बह जाते हैं लोग
सारे प्राणी ही बह जाते हैं।

भूरा कोटधारी बादल
चबूतरे की दीवार से टिके बैठे
आकाश की ओर देखते चित्र-प्रतिमा
पिताजी को अलविदा-अलविदा कह कर बैठ जाता है
उसके दूसरे ही दिन
पिता जी हमारी ओर पीठ किए
आहिस्ता-आहिस्ता दूर बहते चले जाते हैं
उसी दिशा में
आसमान के नीचे विदा हो रहे सूर्य के साथ।

अलविदा-अलविदा कह कर झड़ जाते हैं पत्ते
रोते हुए वृक्ष को अगले दिन
काट कर ले जाते हैं लकड़हारे
वो विदा हो जाता है
न जाने कब से खड़ा था मिट्टी पर !

अकस्मात् दिखने लग जाते हैं
घर, घाट, नदी, किनारे, जंगल
पत्नी, पुत्र, संगी-साथी
अनदेखे समय के सारे दृश्य
बह जाते हैं अंधकार की ओर ।

वह अंधेरा तेरा साया है
तुझे तो पता होगा
क्यों और कहाँ
बह जाते हैं
हम सब ?
00
(ओड़िया के प्रख्यात कवि सीताकांत महापात्र की कविताओं का पंजाबी अनुवा्द हिंदी कवयित्री गगन गिल ने किया है जिसे “शब्दां दा अकाश ते होर कवितावां” शीर्षक से पुस्तक रूप में साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1995 में प्रकाशित किया गया था। उक्त दोनों कविताएं इसी पंजाबी कविता संग्रह से ली गई हैं और पंजाबी से इनका हिन्दी अनुवाद सुभाष नीरव ने किया है)


जन्म : 17 सितंबर 1937, कटक (उड़ीसा)।
उड़िया के प्रख्यात कवि। भारत सरकार और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय संस्थानों में उच्चस्थ पदों पर रहे। कविता, निबंध, यात्रा-संस्मरण आदि विधाओं पर अनेक पुस्तकें। तीस से अधिक कविता की पुस्तकें प्रकाशित। अनेकों कविताओं का भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद। ज्ञानपीठ अवार्ड(1993), सरला अवार्ड(1985), उड़िया साहित्य अकादमी अवार्ड( 1971 व 1984), साहित्य अकादमी अवार्ड(1974) के साथ-साथ अन्य कई सम्मानों से सम्मानित। संप्रति : नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष। पता : श्रद्धा, 21, सत्य नगर, भुवनेश्वर (उड़ीसा)।