गंदा नाला
सतिपाल खुल्लर
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल
बस से उतर कर उसने बस-स्टैण्ड की ओर उड़ती-सी नज़र डाली। बस-स्टैण्ड पर अभी पूरी तरह चहल-पहल नहीं हुई थी। फिर वह मुख्य सड़क पर आ गई। सड़क के किनारे आकर उसने दायें-बायें देखा। सड़क बिलकुल वीरान थी। उसने सड़क पार की और सड़क के बाईं ओर साथ-साथ चलने लगी। वह बाज़ार की ओर जा रही थी। बाज़ार शुरू होते ही वह कुछ संभल कर चलने लगी।
आठ वर्ष से अस्सी वर्ष तक की उम्र की प्रत्येक नज़र ने उसे मैली आँख से देखा। उसके बदन का भूगोल परखा। कइयों ने द्वि-अर्थी आवाज़ें कसीं। लेकिन वह सजग हुई चलती रही। उसका दफ़्तर बाज़ार के पार, उत्तर की ओर स्टेशन की तरफ था। वह चलती गई। गंदी आवाज़ें सारी राह छींटे बनकर उससे टकराती रहीं।
"तुम पर बलिहारी जाऊँ…" एक बौने-से दुकानदार ने मेंढ़क की तरह टर्र-टर्र की।
"ले गई रे, कलेजा निकाल कर, सुबह-सुबह।" एक रेहड़ी वाले ने कछुए की तरह गर्दन बाहर निकाल कर कहा।
नंगी आवाज़ों की जैसे बाढ़-सी आ गई। लेकिन, लड़की अपना दुपट्टा संभालती अपनी चाल चलती गई।
उस बत्तख-सी लड़की ने देखते ही देखते नित्य की तरह आज भी गंदा नाला पार कर लिया था। अब वह अपने दफ़्तर की ओर जा रही थी।
लेखक सम्पर्क-
गाँव व डाक : तलवंडी भाई
ज़िला- फिरोज़पुर(पंजाब)-142050
सतिपाल खुल्लर
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल
बस से उतर कर उसने बस-स्टैण्ड की ओर उड़ती-सी नज़र डाली। बस-स्टैण्ड पर अभी पूरी तरह चहल-पहल नहीं हुई थी। फिर वह मुख्य सड़क पर आ गई। सड़क के किनारे आकर उसने दायें-बायें देखा। सड़क बिलकुल वीरान थी। उसने सड़क पार की और सड़क के बाईं ओर साथ-साथ चलने लगी। वह बाज़ार की ओर जा रही थी। बाज़ार शुरू होते ही वह कुछ संभल कर चलने लगी।
आठ वर्ष से अस्सी वर्ष तक की उम्र की प्रत्येक नज़र ने उसे मैली आँख से देखा। उसके बदन का भूगोल परखा। कइयों ने द्वि-अर्थी आवाज़ें कसीं। लेकिन वह सजग हुई चलती रही। उसका दफ़्तर बाज़ार के पार, उत्तर की ओर स्टेशन की तरफ था। वह चलती गई। गंदी आवाज़ें सारी राह छींटे बनकर उससे टकराती रहीं।
"तुम पर बलिहारी जाऊँ…" एक बौने-से दुकानदार ने मेंढ़क की तरह टर्र-टर्र की।
"ले गई रे, कलेजा निकाल कर, सुबह-सुबह।" एक रेहड़ी वाले ने कछुए की तरह गर्दन बाहर निकाल कर कहा।
नंगी आवाज़ों की जैसे बाढ़-सी आ गई। लेकिन, लड़की अपना दुपट्टा संभालती अपनी चाल चलती गई।
उस बत्तख-सी लड़की ने देखते ही देखते नित्य की तरह आज भी गंदा नाला पार कर लिया था। अब वह अपने दफ़्तर की ओर जा रही थी।
लेखक सम्पर्क-
गाँव व डाक : तलवंडी भाई
ज़िला- फिरोज़पुर(पंजाब)-142050
रिश्ते का नामकरण
दलीप सिंह वासन
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल
उजाड़ से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की से मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बनकर यहाँ आई है। रात को रेलवे-स्टेशन पर ही रहेगी। सुबह यहीं से ड्यूटी पर जा उपस्थित होगी। मैं गांव में अध्यापक लगा हुआ था। पहले हो चुकी एक-दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी।
"आपका रात में यहाँ ठहरना सुरक्षित नहीं। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी के घर में आपके ठहरने का प्रबंध कर दूँगा।"
जब हम गांव में से गुजर रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया, "मैं इस चौबारे पर रहता हूँ।" वह अटैची ज़मीन पर रख कर बोली, "थोड़ी देर आपके कमरे में ही रुक जाते हैं। मैं हाथ-मुंह धोकर कपड़े बदल लूंगी।"
बिना किसी वार्तालाप के हम-दोनों कमरे में आ गए।
"आपके साथ और कौन रहता है?"
"मैं अकेला ही रहता हूँ।"
"बिस्तर तो दो लगे हुए हैं।"
"कभी-कभी मेरी माँ आ जाती है।"
गुसलखाने में जाकर उसने हाथ-मुंह धोए, वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।
"आपने रसोई भी रखी हुई है?"
"यहाँ कौन-सा होटल है।"
"फिर तो मैं खाना भी यहीं खाऊँगी।"
बातों-बातों में रात बहुत गुजर गई थी। वह माँ वाले बिस्तर पर लेट गई थी।
मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था लेकिन, नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठकर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था, लेकिन उस में बसी औरत गहरी नींद में सोई थी।
मैं सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर जाकर टहलने लगा। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लगी।
"जाओ, सो जाओ। आपने सुबह ड्यूटी पर हाज़िर होना है," मैंने कहा।
"आप सोये नहीं?"
"मैं बहुत देर सोया रहा हूँ।"
"झूठ !"
"..."
वह बिलकुल मेरे सामने आ खड़ी हुई, "अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आप यूँ उनींदे नहीं रहते।"
"नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।" और मैंने उसके सिर पर हाथ फेर दिया।
लेखक सम्पर्क–
101-सी, विकास कालोनी
पटियाला(पंजाब)–147003
दलीप सिंह वासन
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल
उजाड़ से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की से मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बनकर यहाँ आई है। रात को रेलवे-स्टेशन पर ही रहेगी। सुबह यहीं से ड्यूटी पर जा उपस्थित होगी। मैं गांव में अध्यापक लगा हुआ था। पहले हो चुकी एक-दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी।
"आपका रात में यहाँ ठहरना सुरक्षित नहीं। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी के घर में आपके ठहरने का प्रबंध कर दूँगा।"
जब हम गांव में से गुजर रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया, "मैं इस चौबारे पर रहता हूँ।" वह अटैची ज़मीन पर रख कर बोली, "थोड़ी देर आपके कमरे में ही रुक जाते हैं। मैं हाथ-मुंह धोकर कपड़े बदल लूंगी।"
बिना किसी वार्तालाप के हम-दोनों कमरे में आ गए।
"आपके साथ और कौन रहता है?"
"मैं अकेला ही रहता हूँ।"
"बिस्तर तो दो लगे हुए हैं।"
"कभी-कभी मेरी माँ आ जाती है।"
गुसलखाने में जाकर उसने हाथ-मुंह धोए, वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।
"आपने रसोई भी रखी हुई है?"
"यहाँ कौन-सा होटल है।"
"फिर तो मैं खाना भी यहीं खाऊँगी।"
बातों-बातों में रात बहुत गुजर गई थी। वह माँ वाले बिस्तर पर लेट गई थी।
मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था लेकिन, नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठकर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था, लेकिन उस में बसी औरत गहरी नींद में सोई थी।
मैं सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर जाकर टहलने लगा। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लगी।
"जाओ, सो जाओ। आपने सुबह ड्यूटी पर हाज़िर होना है," मैंने कहा।
"आप सोये नहीं?"
"मैं बहुत देर सोया रहा हूँ।"
"झूठ !"
"..."
वह बिलकुल मेरे सामने आ खड़ी हुई, "अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आप यूँ उनींदे नहीं रहते।"
"नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।" और मैंने उसके सिर पर हाथ फेर दिया।
लेखक सम्पर्क–
101-सी, विकास कालोनी
पटियाला(पंजाब)–147003