रविवार, 28 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य


गंदा नाला
सतिपाल खुल्लर
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल

बस से उतर कर उसने बस-स्टैण्ड की ओर उड़ती-सी नज़र डाली। बस-स्टैण्ड पर अभी पूरी तरह चहल-पहल नहीं हुई थी। फिर वह मुख्य सड़क पर आ गई। सड़क के किनारे आकर उसने दायें-बायें देखा। सड़क बिलकुल वीरान थी। उसने सड़क पार की और सड़क के बाईं ओर साथ-साथ चलने लगी। वह बाज़ार की ओर जा रही थी। बाज़ार शुरू होते ही वह कुछ संभल कर चलने लगी।
आठ वर्ष से अस्सी वर्ष तक की उम्र की प्रत्येक नज़र ने उसे मैली आँख से देखा। उसके बदन का भूगोल परखा। कइयों ने द्वि-अर्थी आवाज़ें कसीं। लेकिन वह सजग हुई चलती रही। उसका दफ़्तर बाज़ार के पार, उत्तर की ओर स्टेशन की तरफ था। वह चलती गई। गंदी आवाज़ें सारी राह छींटे बनकर उससे टकराती रहीं।
"तुम पर बलिहारी जाऊँ…" एक बौने-से दुकानदार ने मेंढ़क की तरह टर्र-टर्र की।
"ले गई रे, कलेजा निकाल कर, सुबह-सुबह।" एक रेहड़ी वाले ने कछुए की तरह गर्दन बाहर निकाल कर कहा।
नंगी आवाज़ों की जैसे बाढ़-सी आ गई। लेकिन, लड़की अपना दुपट्टा संभालती अपनी चाल चलती गई।
उस बत्तख-सी लड़की ने देखते ही देखते नित्य की तरह आज भी गंदा नाला पार कर लिया था। अब वह अपने दफ़्तर की ओर जा रही थी।

लेखक सम्पर्क-
गाँव व डाक : तलवंडी भाई
ज़िला- फिरोज़पुर(पंजाब)-142050


रिश्ते का नामकरण
दलीप सिंह वासन
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल

उजाड़ से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की से मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बनकर यहाँ आई है। रात को रेलवे-स्टेशन पर ही रहेगी। सुबह यहीं से ड्यूटी पर जा उपस्थित होगी। मैं गांव में अध्यापक लगा हुआ था। पहले हो चुकी एक-दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी।
"आपका रात में यहाँ ठहरना सुरक्षित नहीं। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी के घर में आपके ठहरने का प्रबंध कर दूँगा।"
जब हम गांव में से गुजर रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया, "मैं इस चौबारे पर रहता हूँ।" वह अटैची ज़मीन पर रख कर बोली, "थोड़ी देर आपके कमरे में ही रुक जाते हैं। मैं हाथ-मुंह धोकर कपड़े बदल लूंगी।"
बिना किसी वार्तालाप के हम-दोनों कमरे में आ गए।
"आपके साथ और कौन रहता है?"
"मैं अकेला ही रहता हूँ।"
"बिस्तर तो दो लगे हुए हैं।"
"कभी-कभी मेरी माँ आ जाती है।"
गुसलखाने में जाकर उसने हाथ-मुंह धोए, वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।
"आपने रसोई भी रखी हुई है?"
"यहाँ कौन-सा होटल है।"
"फिर तो मैं खाना भी यहीं खाऊँगी।"
बातों-बातों में रात बहुत गुजर गई थी। वह माँ वाले बिस्तर पर लेट गई थी।
मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था लेकिन, नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठकर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था, लेकिन उस में बसी औरत गहरी नींद में सोई थी।
मैं सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर जाकर टहलने लगा। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लगी।
"जाओ, सो जाओ। आपने सुबह ड्यूटी पर हाज़िर होना है," मैंने कहा।
"आप सोये नहीं?"
"मैं बहुत देर सोया रहा हूँ।"
"झूठ !"
"..."
वह बिलकुल मेरे सामने आ खड़ी हुई, "अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आप यूँ उनींदे नहीं रहते।"
"नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।" और मैंने उसके सिर पर हाथ फेर दिया


लेखक सम्पर्क–
101-सी, विकास कालोनी
पटियाला(पंजाब)–147003

रविवार, 21 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य



"सेतु-साहित्य" के सभी पाठकों-दर्शकों को दशहरे की शुभकामनाएं !





फूल
डा. श्याम सुंदर दीप्ति

बहुत कोशिश के बाद भी
खत्म न हो सका मेरा वजूद
मैं तो वो फूल हूँ
जिसको मसलने पर
खुशबू तो फैली ही सारे बाग में
तेरे हाथों में भी रह गई।



नक्शा
डा. श्याम सुंदर दीप्ति

तुझे तो शायद अब याद नहीं होगा
जब हम दोनों ने मिलकर
एक घर का नक्शा तैयार किया था

फूलों की क्यारियों के लिए जगह छोड़कर
सबसे से पहले मेहमान कमरा था
उसके बाद तेरा और मेरा शयनकक्ष
और फिर अपने भविष्य का

उसके बाद थोड़ी-सी जगह बची थी
जिसके लिए अपना झगड़ा भी हुआ था
तूने कहा - स्टोर बनाएंगे
और मैंने कहा था- लायब्रेरी
इसपर तूने फिर कहा था
एक ही बात है
तुम्हारी किताबें स्टोर में ही पड़ी रहेंगी

नक्शे की लकीरें
छतें, दीवारें न बन सकीं
और आज
वह नक्शा मैंने
एक किराये के कमरे की दीवार पर
उलटा लटका छोड़ा है
जो रोज़ नई शक्लों में नज़र आता है
कभी वह तेरी आँखें बन जाता है
मानो वे आसमान को निहार रही हों

और कभी अंग्रेजी बोलते होंठ
और कभी तेरे पैर
किसी कैफे, होटल या रेस्तरां की ओर
जाते प्रतीत होते हैं

और कभी तेरा हाथ
लगता है जैसे अलविदा कह रहा हो।



किताब
डा. श्याम सुंदर दीप्ति

तू कोई सुंदर-सी किताब बन कर मिल
जिसमें न 'घटा' हो, न 'भाग' हो
सिर्फ़ 'जोड़' हो और 'गुणा' हो
कोई ऐसा हिसाब बन कर मिल।

कोई गीता नहीं, कोई कुरान नहीं
किसी भी फलसफे़ का ज्ञान नहीं
किसी काव्य-किस्से का बखान नहीं
जैसे 'पहली कक्षा' में शुरू होता है– 'अ… आ'
जैसे धरती पर उतरती है सूरज की लाली
तू किसी इल्म का आफ़ताब बन कर मिल
कोई प्यारी-सी किताब बन कर मिल।

जैसे इतिहास की सच्ची मिसाल हो
जैसे वैज्ञानिक का कोई कमाल हो
जैसे विज्ञान की कोई पड़ताल हो
सवाल को सवाल बन कर न काट
सवाल का सही जवाब बन कर मिल
तू कोई सोहणी-सी किताब बन कर मिल।

वापस लौट कर उस अस्तित्व को देख
सुकरात का ज़हर और ईशा की सूली देख
कब पंडित, भाई, मुल्ला और आये ये शेख
क्यों सीखा दीवारों को ही खड़ी करना?…
जो रूहों से जुड़ा है, वो पंजाब बन कर मिल
तू कोई सुंदर पठनीय किताब बन कर मिल
कमरे वाला नहीं,
बागों में जो महके, वो गुलाब बन कर मिल।

ज़िन्दगी जीने का एक मसला है
जो भी अकेला है, वही पगला है
सांसों और धड़कनों का इक सिलसिला है
मैं पानी बनूं, तू हवा बन
मैं हवा बनूं, तू आब बन कर मिल
तू कोई बढि़या-सी किताब बन कर मिल
जिसमें सिर्फ़ 'जोड़' हो और 'गुणा' हो
जिसमें लड़ाई का न कोई जिक्र हो
जिसमें प्रेम के किस्से हों, कहानियां हो
मिल तो वो इतिहास बन कर मिल।

अगर मिलना है तो सच्चा-पवित्र ख़्वाब बन कर मिल
'गुणा' और 'जोड़' वाला हिसाब बन कर मिल
कोई पठनीय किताब बन कर मिल।
(इन कविताओं का मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव़)

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कवि-सम्पर्क :
97, गुरू नानक एवेन्यू,
मजीठा रोड
अमृतसर- 143004
दूरभाष: 098158-08506

शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य



भविष्यवाणी
भूपिंदर सिंह

“जबरदस्त बरसात और आंधी आने वाली है बेटा।" बुजु़र्ग ने कहा।
“आपको कैसे मालूम?”
“वह देख, चींटियाँ अपने अंडे मुंह में रख कर ऊँची और सुरक्षित जगह की ओर चली जा रही हैं।" मेरी माँ ने दीवार पर ऊपर की ओर चढ़ती हुई चींटियों की लम्बी कतार को दिखाते हुए कहा, “कुदरत का करिश्मा है। इन्हें आने वाली जोरदार बरसात का पहले ही पता चल जाता है।"
मैं चींटियों पर से निगाहें हटा कर बाहर झांकने लगा। विद्यार्थी चुपचाप स्कूल जा रहे थे। मज़दूर चुपचाप कारखानों की ओर बढ़ रहे थे। कर्मचारी खामोश से दफ्तरों की ओर जा रहे थे।
ये सब मुझे चींटियों-से लगे।
"कोई बड़ा इन्कलाब आने वाला है।" मैं बुदबुदाया।


रोटी का टुकड़ा
भूपिंदर सिंह

बच्चा पिट रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर अपराध का भाव नहीं था। वह ऐसे खड़ा था जैसे कुछ हुआ ही न हो। औरत उसे पीटती जा रही थी "मर जा जा कर... जमादार हो जा... तू भी भंगी बन जा... तूने उसकी रोटी क्यों खाई?"
बच्चे ने भोलेपन से कहा, "माँ, एक टुकड़ा उनके घर का खाकर क्या मैं भंगी हो गया?"
"और नहीं तो क्या...।"
"और जो वो पिछले दस सालों से हमारे घर से रोटी खा रहा है तो वो क्यों नहीं बामण हो गया?" बच्चे ने पूछा।
माँ का उठा हुआ हाथ हवा में ही लहरा कर वापस आ गया। वह अपने बेटे के प्रश्न का जवाब देने में असमर्थ थी। वह कभी बच्चे को तो कभी उसके हाथ में पकड़ी हुई रोटी के टुकड़े को देख रही थी।
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

अनूदित साहित्य




भविष्यवाणी
भूपिंदर सिंह

“जबरदस्त बरसात और आंधी आने वाली है बेटा।" बुजु़र्ग ने कहा।
“आपको कैसे मालूम?”
“वह देख, चींटियाँ अपने अंडे मुंह में रख कर ऊँची और सुरक्षित जगह की ओर चली जा रही हैं।" मेरी माँ ने दीवार पर ऊपर की ओर चढ़ती हुई चींटियों की लम्बी कतार को दिखाते हुए कहा, “कुदरत का करिश्मा है। इन्हें आने वाली जोरदार बरसात का पहले ही पता चल जाता है।"
मैं चींटियों पर से निगाहें हटा कर बाहर झांकने लगा। विद्यार्थी चुपचाप स्कूल जा रहे थे। मज़दूर चुपचाप कारखानों की ओर बढ़ रहे थे। कर्मचारी खामोश से दफ्तरों की ओर जा रहे थे।
ये सब मुझे चींटियों-से लगे।
"कोई बड़ा इन्कलाब आने वाला है।" मैं बुदबुदाया।




रोटी का टुकड़ा
भूपिंदर सिंह

बच्चा पिट रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर अपराध का भाव नहीं था। वह ऐसे खड़ा था जैसे कुछ हुआ ही न हो। औरत उसे पीटती जा रही थी "मर जा जा कर... जमादार हो जा... तू भी भंगी बन जा... तूने उसकी रोटी क्यों खाई?"
बच्चे ने भोलेपन से कहा, "माँ, एक टुकड़ा उनके घर का खाकर क्या मैं भंगी हो गया?"
"और नहीं तो क्या...।"
"और जो वो पिछले दस सालों से हमारे घर से रोटी खा रहा है तो वो क्यों नहीं बामण हो गया?" बच्चे ने पूछा।
माँ का उठा हुआ हाथ हवा में ही लहरा कर वापस आ गया। वह अपने बेटे के प्रश्न का जवाब देने में असमर्थ थी। वह कभी बच्चे को तो कभी उसके हाथ में पकड़ी हुई रोटी के टुकड़े को देख रही थी।

(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

शनिवार, 6 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य


सोच
धर्मपाल साहिल
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)


मैं अपना चैकअप करवाने के लिए मैटरनिटी होम गई तो कई महीनों के बाद अचानक वहाँ अपनी कुआंरी सहेली मीना को जच्चा-बच्चा वार्ड में दाखिल देख मैंने हैरानी से पूछा, “मीना, तू यहाँ? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई तेरे साथ?”

“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। बस, मैंने खुद ही अपनी कोख किराये पर दे दी थी।" उसने ज़र्द चेहरे पर मुस्कराहट लाकर कहा।
“यह भला क्यों किया तूने?” मैंने हैरानी से पूछा।
“तुझे तो पता ही है कि मेरा एक सपना था कि मेरी आलीशान कोठी हो, अपनी कार हो, और ऐशो-आराम की हर चीज़ हो।"
“फिर यह सब कैसे किया?”
“मैंने अख़बार में विज्ञापन पढ़ा। पार्टी से मुलाकात की। एग्रीमेंट हुआ। नौ महीने के लिए कोख का किराया एक लाख रुपये प्रति महीने के हिसाब से। बच्चा होने तक मेरी सेहत की निगरानी का खर्चा भी उनका।"
“इसलिए तू गैर-मर्द के साथ…”
“नहीं-नहीं, डाक्टरों ने फर्टीलाइज्ड ऐग आपरेशन करके मेरी कोख में रख दिया। समय-समय पर मेरा चैकअप करवाते रहे। आज पूरी पेमेंट करके बच्चा ले गए हैं।"
“पर, अपनी कोख से जन्मे बच्चे के लिए तेरी ममता ज़रा भी नहीं तड़पी? तुझे ज़रा भी दु:ख नहीं हुआ?” मीना ने मेरी बात हँसी में उड़ाते हुए कहा, “बस, इतना भर दु:ख हुआ जितना एक किरायेदार के मकान छोड़ कर जाने पर होता है।"



रोबोट
शरन मक्कड़
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

दो मित्र आपस में बातें कर रहे थे। एक वैज्ञानिक था, दूसरा इतिहास का अध्यापक। वैज्ञानिक कह रहा था, “देखो, विज्ञान ने कितनी तरक्की कर ली है। जानवर के दिमाग में यंत्र फिट करके, उसका रिमोट हाथ में लेकर जैसे चाहो जानवर को नचाया जा सकता है।"
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह एक गधा ले आया। रिमोट हाथ में पकड़ कर वह जैसे-जैसे आदेश देता, गधा वैसा-वैसा ही करता। वह कहता, “पूंछ हिला।" गधा पुंछ हिलाने लगता। इसी प्रकार वह दुलत्तियाँ मारता, ढेचूं-ढेचूं करता। लोट-पोट हो जाता। जिस तरह का हुक्म उसे मिलता, गधा उसी तरह उसकी तामील करता। वैज्ञानिक अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था।
वैज्ञानिक का मित्र जो बहुत देर से उसकी बातें सुन रहा था, गधे के करतब देख रहा था, शांत बैठा था। उसके मुँह से प्रशंसा का एक भी शब्द न सुनकर वैज्ञानिक को गुस्सा आ रहा था। आख़िर, उसने झुंझला कर जब उसकी चुप्पी के बारे में पूछा तो इतिहास का अध्यापक कहने लगा, “इसमें भला ऐसी कौन-सी बड़ी बात है? एक गधे के दिमाग में यंत्र फिट कर देना… मैं तो जानता हूँ, हज़ारों सालों से आदमी को मशीन बनाया जाता रहा है। आदमी के दिमाग में यंत्र फिट करना कौन-सा कठिन काम है?”
वैज्ञानिक हैरान था कि एक साधारण आदमी इतनी अद्भुत बातें कर रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि हज़ारों सालों से आदमी का दिमाग कैसे मशीन बनाया जाता रहा है। अपने मित्र की हैरानी को देख कर इतिहास का अध्यापक बोला, “आओ मैं तुम्हें एक झलक दिखाता हूँ।"
वे दोनों सड़क पर चलने लगे। अध्यापक ने देखा, एक फौजी अंडों की ट्रे उठाये जा रहा था। उसने उसके पीछे जा कर एकाएक ‘अटेंशन’ कहा। ‘अटेंशन’ शब्द सुनते ही फौजी के दिमाग में भरी हुई मशीन घूम गई जो न जाने कितने ही साल उसके दिमाग में घूमती रही थी। वह भूल गया था कि अब वह फौज में नहीं था, सड़क पर अंडे की ट्रे ले जा रहा था। ‘अटेंशन’ सुनते ही वह अटेंशन की मुद्रा में आ गया। अंडे हाथों से गिर कर टूट गए।
इतिहास का अध्यापक ठंडी सांस भर कर बोला, “यह है आदमी के दिमाग में भरा हुआ अनुशासन का यंत्र ! इसी तरह धर्म का, सियासत का, परंपरा का, सत्ता का रिमोट कंट्रोल हाथ में पकड़ कर आदमी, दूसरे आदमियों को ‘रोबोट’ बना देता है।" उसकी आँखों के सामने ज़ख़्मी इतिहास के पन्ने फड़फड़ा रहे थे।
“तुमने तो एक गधे को नचाया है। क्या तुम मुझे बता सकते हो कि हिटलर के हाथ में कौन-सा रिमोट कंट्रोलर था जिससे उसने एक करोड़ बेगुनाह यहुदियों को मरवा दिया था।"
अब वैज्ञानिक चुप था !