शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य



भविष्यवाणी
भूपिंदर सिंह

“जबरदस्त बरसात और आंधी आने वाली है बेटा।" बुजु़र्ग ने कहा।
“आपको कैसे मालूम?”
“वह देख, चींटियाँ अपने अंडे मुंह में रख कर ऊँची और सुरक्षित जगह की ओर चली जा रही हैं।" मेरी माँ ने दीवार पर ऊपर की ओर चढ़ती हुई चींटियों की लम्बी कतार को दिखाते हुए कहा, “कुदरत का करिश्मा है। इन्हें आने वाली जोरदार बरसात का पहले ही पता चल जाता है।"
मैं चींटियों पर से निगाहें हटा कर बाहर झांकने लगा। विद्यार्थी चुपचाप स्कूल जा रहे थे। मज़दूर चुपचाप कारखानों की ओर बढ़ रहे थे। कर्मचारी खामोश से दफ्तरों की ओर जा रहे थे।
ये सब मुझे चींटियों-से लगे।
"कोई बड़ा इन्कलाब आने वाला है।" मैं बुदबुदाया।


रोटी का टुकड़ा
भूपिंदर सिंह

बच्चा पिट रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर अपराध का भाव नहीं था। वह ऐसे खड़ा था जैसे कुछ हुआ ही न हो। औरत उसे पीटती जा रही थी "मर जा जा कर... जमादार हो जा... तू भी भंगी बन जा... तूने उसकी रोटी क्यों खाई?"
बच्चे ने भोलेपन से कहा, "माँ, एक टुकड़ा उनके घर का खाकर क्या मैं भंगी हो गया?"
"और नहीं तो क्या...।"
"और जो वो पिछले दस सालों से हमारे घर से रोटी खा रहा है तो वो क्यों नहीं बामण हो गया?" बच्चे ने पूछा।
माँ का उठा हुआ हाथ हवा में ही लहरा कर वापस आ गया। वह अपने बेटे के प्रश्न का जवाब देने में असमर्थ थी। वह कभी बच्चे को तो कभी उसके हाथ में पकड़ी हुई रोटी के टुकड़े को देख रही थी।
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

3 टिप्‍पणियां:

आशीष "अंशुमाली" ने कहा…

भविष्‍यवाणी बांच कर अपनी एक पंक्ति याद आ गयी।
तुम्‍हारी चुप में मेरी चुप भी हो गयी शामिल
कहीं से अब तो कोई चीख पैदा होनी है

सुभाष नीरव ने कहा…

प्रतिक्रिया देने के लिए बहुत-बहुए धन्यवाद, आशीष जी ।

अभय तिवारी ने कहा…

बहुत अच्छा है मित्र सुभाष.. आप बढ़िया काम कर रहे हैं.. करते रहें.. मेरी शुभकामनाएं..