छ: पंजाबी कविताएं/कमल
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव
तलाश
मुझे वो शहर पता नहीं
किस दिन मिलेगा?
वो शहर
जो दूर क्षितिज से पार बसता है
जहाँ गहरे नीले पानी की झील में
सपनों के हंस तैरते हैं
जहाँ ज़िंदगी
गुलाब की तरह महकती है
जहाँ दरिया
कभी न खत्म होने का
गीत गाता है...
मैं बड़े जन्मों से
इस शहर की तलाश में हूँ
इसको खोजते-खोजते
ज़िंदगी उस सपने की तरह हो गई है
जिसके अन्दर बस
चलते ही जाते हैं
पहुँचते कहीं भी नहीं।
सफ़र
अकेले
लम्बा सफ़र तय करते
थक कर चूर हो चुका है
मेरा एक पैर
जहाँ से दो पैरों से चली थी
वापस उसी जगह पर
एक पैर से नहीं पहुँचा जा सकता
और एक पैर से
किसी सूरत भी नाचा नहीं जा सकता
न घुंघुरू बांध कर
न जंजीर पहन कर।
मुहब्बत का ख़्वाब
मुझे वो शहर पता नहीं
किस दिन मिलेगा?
वो शहर
जो दूर क्षितिज से पार बसता है
जहाँ गहरे नीले पानी की झील में
सपनों के हंस तैरते हैं
जहाँ ज़िंदगी
गुलाब की तरह महकती है
जहाँ दरिया
कभी न खत्म होने का
गीत गाता है...
मैं बड़े जन्मों से
इस शहर की तलाश में हूँ
इसको खोजते-खोजते
ज़िंदगी उस सपने की तरह हो गई है
जिसके अन्दर बस
चलते ही जाते हैं
पहुँचते कहीं भी नहीं।
सफ़र
अकेले
लम्बा सफ़र तय करते
थक कर चूर हो चुका है
मेरा एक पैर
जहाँ से दो पैरों से चली थी
वापस उसी जगह पर
एक पैर से नहीं पहुँचा जा सकता
और एक पैर से
किसी सूरत भी नाचा नहीं जा सकता
न घुंघुरू बांध कर
न जंजीर पहन कर।
मुहब्बत का ख़्वाब
फासला
मेरे घर से
तेरे घर तक
दो कदमों का नहीं फासला
पर
मेरे दिल से
तेरे दिल तक
पूरा एक मरुस्थल है।
डर
प्रेतों के वहम के कारण
डर कर
पीछे मुड़ कर नहीं देखा
यकीन नहीं था
कि सुनसान जंगल में
पीछे से आवाज़
तूने दी थी।
इंतज़ार
बड़ी देर से मौसम
एक ही हालत में ठहरा हुआ है
न यह बहार बनता है
न पतझर
काश! यह मौसम मेरे मन के
मौसम के बराबर हो सके
एक मुद्दत से माहौल में
बड़ा शोर मचा हुआ है
न यह चुप में बदलता है
और न ही संगीत बनता है
काश! अगर कभी यह सरगम बन सके
सुरताल में बंध सके
बरसों से यह
पत्थर का बुत बना हुआ है
काश! रब्ब बन जाए
कि मैं उसे पूज सकूँ
या फिर जीता-जागता
इन्सान बन जाए
मैं उसके संग बातें कर सकूँ।
कमल
मेरे घर से
तेरे घर तक
दो कदमों का नहीं फासला
पर
मेरे दिल से
तेरे दिल तक
पूरा एक मरुस्थल है।
डर
प्रेतों के वहम के कारण
डर कर
पीछे मुड़ कर नहीं देखा
यकीन नहीं था
कि सुनसान जंगल में
पीछे से आवाज़
तूने दी थी।
इंतज़ार
बड़ी देर से मौसम
एक ही हालत में ठहरा हुआ है
न यह बहार बनता है
न पतझर
काश! यह मौसम मेरे मन के
मौसम के बराबर हो सके
एक मुद्दत से माहौल में
बड़ा शोर मचा हुआ है
न यह चुप में बदलता है
और न ही संगीत बनता है
काश! अगर कभी यह सरगम बन सके
सुरताल में बंध सके
बरसों से यह
पत्थर का बुत बना हुआ है
काश! रब्ब बन जाए
कि मैं उसे पूज सकूँ
या फिर जीता-जागता
इन्सान बन जाए
मैं उसके संग बातें कर सकूँ।
कमल
9, फतेहगढ़ चूड़ियां रोड
अमृतसर (पंजाब)
ई-मेल kimim@rediffmail.com
gillkam@yahoo.com
दूरभाष : 09815433166
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