शनिवार, 17 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य

दो रूसी लघुकथाएं


दाता और दाता
इवान तुर्गनेव

मैं सड़क के किनारे-किनारे जा रहा था कि एक बूढ़े मुझे टोका। लाल सुर्ख और आंसुओं में डूबी आँखें, नीले होंठ, गंदे हाथ और सड़ते हुए घाव... 'ओह! गरीबी ने कितने भयानक रूप से इसे खा डाला है।'

उसने अपना सूजा हुआ गंदा हाथ मेरे सामने फैला दिया।

एक-एक कर मैंने अपनी सारी जेबें टटोलीं, लेकिन मुझे न तो अपना बटुआ मिला और न ही घड़ी हाथ लगी, यहाँ तक कि रूमाल भी नदारद था। मैं अपने साथ कुछ भी नहीं लाया था और भिखारी का फैला हुआ हाथ इंतजार करते हुए बुरी तरह कांप रहा था।

लज्जित होकर मैंने उसका वह गंदा, कांपता हुआ हाथ पकड़ लिया, "नाराज मत होना मेरे दोस्त, इस समय मेरे पास कुछ भी नहीं है।"

भिखारी अपनी सुर्ख आँखों से मेरी ओर देखता रह गया। उसके नीले होंठ मुस्करा उठे और उसने मेरी ठंडी उंगलियाँ थाम लीं, "तो क्या हुआ भाई।" वह धीरे से बोला, "इसके लिए शुक्रिया, यह भी तो मुझे कुछ मिला ही है न !"
और मुझे लगा, मानो मैंने भी अपने उस भाई से कुछ पा लिया है।

कमजोर
एंतोव चेखव
अपने बच्चों की अध्यापिका यूलिमा वार्सीलियेब्ना का आज मैं हिसाब चुकता करना चाहता था।

"बैठ जाओ यूलिया वार्सीलियेब्ना।" मैंने उससे कहा, "तुम्हारा हिसाब चुकता कर दिया जाए। हाँ, तो फैसला हुआ कि तुम्हें महीने के तीस रूबल मिलेंगे, है न?"
"नहीं, चालीस।"
"नहीं, तीस। तुम हमारे यहाँ दो महीने रही हो।"
"दो महीने और पाँच दिन।"
"पूरे दो महीने। इन दो महीनों के नौ इतवार निकाल दो। इतवार के लिए तुम कोल्या को सिर्फ़ सैर कराने के लिए ही लेकर जाती थी। और फिर तीन छुट्टियाँ... नौ और तीन, बारह। तो बारह रूबल कम हुए। कोल्या चार दिन बीमार रहा, उन दिनों तुमने उसे नहीं पढ़ाया। सिर्फ़ वान्या को ही पढ़ाया, और फिर तीन दिन तुम्हारे दांत में दर्द रहा। उस समय मेरी पत्नी ने तुम्हें छुट्टी दे दी थी। बारह और सात, हुए उन्नीस। इन्हें निकाला जाए तो बाकी रहे... हाँ, इकतालीस रूबल, ठीक है?”

यूलिया की आँखों में आँसू भर आए।

"और नए साल के दिन तुमने एक कप-प्लेट तोड़ डाला। दो रूबल इनके घटाओ। तुम्हारी लापरवाही से कोल्या ने पेड़ पर चढ़कर अपना कोट फाड़ डाला था। दस रूबल उसके और फिर तुम्हारी लापरवाही के कारण ही नौकरानी वान्या के बूट लेकर भाग गयी। सो, पाँच रूबल उसके कम हुए... दस जनवरी को दस रूबल तुमने उधार लिए थे। इकतालीस में से सत्ताइस निकालो। बाकी रह गए- चौदह।"

यूलिया की आँखों में आँसू उमड़ आए, "मैंने एक बार आपकी पत्नी से तीन रूबल लिए थे।"

"अच्छा, यह तो मैंने लिखा ही नहीं। चौदह में से तीन निकालो, अब बचे ग्यारह। सो, यह रही तुम्हारी तनख्वाह ! तीन, तीन, तीन.... एक और एक।"

"धन्यवाद !" उसने बहुत ही हौले से कहा।
"तुमने धन्यवाद क्यों कहा?"
"पैसों के लिए।"
"लानत है ! क्या तुम देखती नहीं कि मैंने तुम्हें धोखा दिया है? मैंने तुम्हारे पैसे मार लिए हैं और तुम इस पर मुझे धन्यवाद कहती हो ! अरे, मैं तो तुम्हें परख रहा था... मैं तुम्हें अस्सी रूबल ही दूँगा। यह रही पूरी रकम।"

वह धन्यवाद कहकर चली गयी। मैं उसे देखता हुआ सोचने लगा कि दुनिया में ताकतवर बनना कितना आसान है!

(अशोक भाटिया द्वारा संपादित "विश्व साहित्य से लघुकथाएं" पुस्तक से साभार)

1 टिप्पणी:

पारुल "पुखराज" ने कहा…

दाता और दाता...bahut kuch kah gayii..aagey bhi behtareen kathaaon ka intzaar rahegaa..shukriya