रविवार, 2 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य

तीन नेपाली कविताएं/मुकुल दाहाल
मूल नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी

देवलोक

मैं सिमेंट-सुरक्षित पर्याय में
सिमेंट-सभ्य जीवन के
खोखली शर्तों के
चक्रब्यूह में फँसा हूं।

बिजलीवाला पर्दा
चूस रहा है सुबह-शाम
मेरी आँखों का पानी।

सड़क के मानव-तूफान
और सवारियों के समुद्र में
बना हूं मैं एक कौवा।

मैं पानी की वह एक बूंद
जिसे रेत पी चूका होता है।

इसी बीच
दूर के धूमिल गांव से
एक लिफाफा आया है
एक चिट्ठी लेकर।

चिट्ठी में तीस साल पहले का
एक बालक
मुझसे बतिया रहा है।

वक्त वाष्पीकृत हो गया है
दूरी सिमट गयी है, भूगोल की।

दो बालक हम
नदी किनारों की पीठ पर चढ़ते हैं
पानी के गालों पर
थप्पड़ रसीद करते हैं।

त्योहार बने हैं रेत
पर्व बने हैं किनारे
उत्सव बने हैं पत्थर
फिर देवलोक बना है जीवन।

कविता के जन्मदिन पर

आंगन में
अंधेरा साँड़
बनता रहा

चेहरे पे
काली रात
आकर सोती रही

स्वाद का अर्थ
जिह्वा में
न लिखा गया

बदन
सर्वांग न छिप सका आजीवन
वस्त्र में

सफाई
कौन सी सुविधा है
कौन सा चमत्कार है
मालूम न पड़ा

ऐसे परिवार में
जन्म लिया एक दिन
मेरी कविता ने

वह नहीं रोई
आदमी जैसे
जन्म लेने पर

वह जन्मी
परिपक्व, पूर्ण

अर्थ लिए
आवाज लिए
स्वर लिए

मेरे घाव
मेरे दर्द

मेरे सब वंशज गुण लेकर
वह मर्यादित
जीती गई

मैं प्रत्येक जन्मदिन के
ढलान पर लुढ़कता रहा,

टकराता रहा
और नीला पड़ता गया

हर जन्मदिन के सोपान पर
वह चढ़ती रही आकाश की तरफ

और वयस्क बनती रही

मैं हर जन्मदिन में
लोगों की भीड़
लादता रहा

बिखरते हुए जीवनपिंड से
भागने के लिए

वह एकदम तन्हा
बेखौफ़ है जैसे ‘आज’

क्योंकि
आज उसका जन्मदिन है

मैं उसकी
दीप्त जीवन की आभा
महसूस कर रहा हूं

वह मुझे चोंच मारके
मेरी ही ठंडी आंख से
मुझे देख रही है

मुझे ज्ञात हो रहा है
मेरा रिसता हुआ
जीवन का रस
उसकी लम्बी आयु के
अर्थवत्ता से छोटा है
संकीर्ण है।

क्रोध

क्रोध में
शेर बन गये मुर्गे
घड़ियाल बन गए केचुए
सदा जीभ के नीचे दबने वाले स्वर
गर्जन बन गए

क्रोध ने विवेक का
रथ भेदन किया
दृष्टिभ्रम किया

हाथ में पैना
हथियार थमा दिया

और दिया आदेश
प्रहार का ।

सम्पर्क :
द्वारा श्री कुमुद अधिकारी
प्रधान संपादक
हिंदी साहित्य सरिता
ई-मेल :kumudadhikari@gmail.com

2 टिप्‍पणियां:

सहज साहित्य ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
हिमांशु

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

Priya Subhash,

Shri Mukul Dahal ki teeno kavitayen padhi. Pasand aayi. hcar-char blog magazine par kam kar rahe ho , tumse irshya hoti hai. Bhai kanhi tumbari apni rachnatmakata prabhavit n hone paye khayal rakhenge.

Roop Singh Chandel