रविवार, 10 मई 2009

अनूदित साहित्य



पंजाबी कविता

(स्व.) राम सिंह चाहल की तीन कविताएँ
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव


पंजाब के मानसा ज़िले के एक छोटे-से गाँव 'अलीसेर खुर्द' में एक छोटे किसान परिवार में 1950 में जन्म। पहले तीस वर्ष गाँव में ही गुजारे। पंजाबी यूनीवर्सिटी से एम.ए. की। सन् 2007 में निधन।

पंजाबी में चार कविता संग्रह-'अग्ग दा रंग(1975)', 'मोह मिट्टी ते मनुख(1990)', 'इथों ही किते(1992)' और 'भोंई (2000)'। हिन्दी में एक कविता संग्रह - 'मिट्टी सांस लेती है(1993)'। इसके अतिरिक्त, हिन्दी में संपादन और अनुवाद कार्य भी। भिन्न भिन्न भारतीय भाषाओं की कविताओं का पंजाबी में अनुवाद भी किया। सम्मान : नेशनल सिमपोज़ियम ऑफ पोइट्स-2004, जनवादी कविता पुरस्कार-2002, पंजाबी कविता संग्रह 'भोंइ' पर 'संतराम उदासी(लोक कवि) पुरस्कार-1994 तथा सरदार हाश्मी पुरस्कार-1992 से सम्मानित।


अपना अपना चांदनी चौक
(एक गद्य कविता)

मैं सचमुच बड़ा हो रहा हूँ। अब मैं अपने बच्चे को बड़ा होते देख रहा हूँ। हाँ, खुश हो रहा हूँ, पत्नी खुश हो रही है। देख रहा हूँ- हमारे बगैर कोई और भी क्यों खुश नहीं दिखाई दे रहा ? अजीब है कि बच्चा ज्यूँ ज्यूँ बड़ा होता जा रहा है, मैं छोटा होता जा रहा हूँ। उम्र बढ़ नहीं, घट रही है। यह बात मेरी दीवार पर लगा शीशा मुझे बता रहा है। बेजान वस्तुएँ भी बोलने लगती हैं। दीवारें बहुत कुछ कह रही हैं। साथ वाले कुएँ में से आवाज़ जा रही है। वृक्ष पर से पंछियों की आवाज़ निरंतर कह रही है- 'तुम बूढ़े होते जा रहे हो।' मैं उनकी ओर ध्यान देने लगता हूँ। गौर से देखता हूँ। कबूतरों की गुटर-गूँ सुनाई देती है। लगता है जैसे फिर से जवान हो रहा हूँ। सारे पक्षी जवान नज़र आते हैं। कोई भी बूढ़ा दिखाई नहीं दे रहा। सोचता हूँ- जो उड़ान भर सकते हैं, वे कभी बूढ़े नहीं हो सकते। कभी भीखी, कभी भदोड़, कभी लुधियाने, कभी चंडीगढ़ आदमी भी उड़ाने भर सकता है। पर वह क्या करे ? पच्चीसवें साल तक पहुँचते ही उसके पर काट दिए जाते हैं। कौन काटता है ये पंख ? पहली उड़ान और आख़िरी उड़ान एक ही दिन। शेष बची उम्र नमक-तेल के हवाले हो जाती है। अपने गाँव के कितने ही लोगों को जानता हूँ जो उम्र भर से मेरे गाँव के ‘चिमने की हट्टी’ को ही दिल्ली का क्नाट प्लेस समझे बैठे हैं, और गाँव की चौपाल को चांदनी चौक।
हर एक की अपनी अपनी उड़ान है
हर एक का अपना अपना चांदनी चौक है।
00

बस यों ही...

एक बार सोचता हूँ
मेरे मरने के साथ
सारी दुनिया ही मर जाएगी

फिर सोचता हूँ
मेरे मरने से
कहीं कुछ भी नहीं होगा

दरख्तों पर नये पत्ते
फूटते रहेंगे
फसलें फलने-फूलने से
नहीं रुकेंगी
शाम भी
इसी तरह ही आएगी
सुबह और भी
हसीन होकर मिलेगी

दो पल के लिए आँखें मूंदता हूँ
दो पल के लिए फिर जागता हूँ

तारे टिमटिमाते हैं
चूल्हे तपते हैं
रोटियाँ पकती हैं
तड़के लगने लगते हैं

नहीं होगी तो बस एक मेरी
आवाज़ नहीं होगी
वैसे मेरी आवाज़ से भी
किसी ने क्या लेना है ?

आवाज़ जब भी लगाता हूँ
अपने लिए ही लगाता हूँ
आवाज़ न भी लगाओ
कैलेंडर पर तारीख़ बदलती रहती है।
००

सवाल

मित्र-यार कहते हैं
मैं पचास का हो कर
हमेशा पच्चीस का लगता हूँ
वे एतराज़ भी करते हैं
मैं दाढ़ी क्यों रंगता हूँ

मैं बार-बार कहता हूँ
मैं सयाना नहीं बनना चाहता
तुम मुझे सयाना क्यों बनाना चाहते हो ?
पचास का हो कर भी
मैं वही लिखता हूँ
जो पच्चीस का है
और फिर जब तक
यों ही लिखता रहूँगा
लगता है-
मैं पचास से आगे नहीं पहुँच सकूंगा

देखो न
घरवाली के साथ चलता
जवान लगता हूँ
आदमी के साथ चलता
उसका हमउम्र लगता हूँ
फिर भी
मित्रों के साथ चलता
मित्रों को क्यो ठीक नहीं लगता
पता नहीं...
00
(उपर्युक्त कविताएं तथा कवि परिचय तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग ''आरसी'' से साभार)

11 टिप्‍पणियां:

ਤਨਦੀਪ 'ਤਮੰਨਾ' ने कहा…

Neerav Saheb! Yeh to aapne bahut hi accha kiya jo Chahal saheb ki nazmon ka anuvaad karke Setu pe laga diya hai. It came as a surprise to me. Raat jab aapne unki Photo mangi to Maine socha aap unki Photo file mein rakhney ke liye hi mang rahey hain ( Jaise aapne mail mein likha tha), Par yeh to aapne bahut hi achha surprise de diya.
अपने गाँव के कितने ही लोगों को जानता हूँ जो उम्र भर से मेरे गाँव के ‘चिमने की हट्टी’ को ही दिल्ली का क्नाट प्लेस समझे बैठे हैं, और गाँव की चौपाल को चांदनी चौक।
हर एक की अपनी अपनी उड़ान है
हर एक का अपना अपना चांदनी चौक है।
Kya falsafa bhar diya hai Chahal saheb ne inn staron mein. Bahut khoob! Unki kalam ko ek baar phir se salaam! Aapka anuvaad bahut hi accha hai...mubarakbad bhej rahi hoon.
आवाज़ जब भी लगाता हूँ
अपने लिए ही लगाता हूँ
आवाज़ न भी लगाओ
कैलेंडर पर तारीख़ बदलती रहती है।
Calendar pe date badalti rahegi, par unki likhton da rang kabhi pheeka nahin padega. Unki yaadon ki shamma jalti rahegi aur unki likhton ke diwane bhanvrey aatey raheingey.

Best Regards
Tandeep Tamanna
Vancouver, Canada
punjabiaarsi.bpogspot.com

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

तारे टिमटिमाते हैं
चूल्हे तपते हैं
रोटियाँ पकती हैं
तड़के लगने लगते हैं

इसके अतिरिक्त :

हर एक की अपनी अपनी उड़ान है
हर एक का अपना अपना चांदनी चौक है।

स्व. चहल की कविताएं पढ़वाकर तुमने यह सोचने के लिए विवश कर दिया कि यदि कवि असमय न दिवगंत हो गया होता तो कितना समृद्ध होता हिन्दी और पंजाबी का काव्य जगत.

बधाई,

चन्देल

बेनामी ने कहा…

Ram Singh Chahal ki kavitayeN dekhne meiN sadharan si lagti hain, par gahre arth rakhti hain. Setu Sahitya para aap achhi rachnayoN ka khubsurat hindi anuvad uplabdh karva rahe hain.
Nain Singh
Ghaziabad.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

नीरव जी ,

अच्छी लगीं राम सिंह चाहल जी की कवितायेँ....बिलकुल अलग हट के लगीं...एक नया स्वाद, नया स्पर्श देखने को मिला ...

एक बार सोचता हूँ
मेरे मरने के साथ
सारी दुनिया ही मर जाएगी

फिर सोचता हूँ
मेरे मरने से
कहीं कुछ भी नहीं होगा

आम जीवन से जुडी कविता .....!!

मैं बार-बार कहता हूँ
मैं सयाना नहीं बनना चाहता
तुम मुझे सयाना क्यों बनाना चाहते हो ?
पचास का हो कर भी
मैं वही लिखता हूँ
जो पच्चीस का है
और फिर जब तक
यों ही लिखता रहूँगा

बहुत ही सहज ,सरल भाषा में जीवन के रंग उकेरती कविता ....!

उस पर आपका ये अनुवाद ....क्या कहूँ ....बस लाजवाब.....!!

ashok andrey ने कहा…

priya bhai subhash jee kavita padii chahal jee ki kavita buss yu hiin ne mujhe bahut gehre se chhua hai isme ek sachchai ko bade hii sahaj tariike se vaykt kiya hai aapko dhanyavad deta hoon

ashok andrey

बेनामी ने कहा…

इन तीनों कविताओं में कवितापन इतना सघन उतरा है कि लगता ही नहीं कि हम अनुवाद पढ़ रहें हैं. गद्य कविता का आस्वाद अद्भुत लगा. चयन के लिए बधाई.
अशोक गुप्ता
ashok267@gmail.com

बलराम अग्रवाल ने कहा…

आवाज़ जब भी लगाता हूँ
अपने लिए ही लगाता हूँ

बहुत कम लोग इस सच को स्वीकार करते हैं कि आदमी सबसे ज्यादा खुद और सिर्फ-खुद को ही प्यार करता है। (स्व0)रामसिंह चाहल की सभी कविताएँ भीतर की शुद्ध आवाज हैं। उनका गद्यगीत 'अपना-अपना चाँदनी चौक' बहुत सकारात्मक रचना है जो (हो सकता है कि अनुवाद के कारण) लघुकथा की सीमा को छूता और वैसी ही खुशबू देता है। आपको धन्यवाद। स्व0 चाहल की ये पंक्तियाँ भी हमेशा याद रखनी चाहिएँ--
आवाज़ न भी लगाओ
कैलेंडर पर तारीख़ बदलती रहती है।

सुरेश यादव ने कहा…

ramsinghchahal ki kavitayen jindagi ki sahaj abhivyakti hain badhai nirav ji ka anuvad maulik rachana ka anand deta hai dhanyavad ke patra hain aap sureshyadav55

निर्मला कपिला ने कहा…

neerav jee aapakaa blog pahalee baar dekhaa hai bahut khushi hui aur achha lagaa ki aap sach me setu kee bhoomika nibhaa rahe hain desh ke saahitaykaroM se parichye bahut hee saarthak paryas hai chahal je kee racanaayen bahut achhi lagi vese bhee main punjab me rehati hoon is liye unse parichay apna sa lagaa aabhaar

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

अच्छी लगीं राम सिंह चाहल जी की कवितायेँ..

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

नहीं होगी तो बस एक मेरी
आवाज़ नहीं होगी
वैसे मेरी आवाज़ से भी
किसी ने क्या लेना है ?

आवाज़ जब भी लगाता हूँ
अपने लिए ही लगाता हूँ
आवाज़ न भी लगाओ
कैलेंडर पर तारीख़ बदलती रहती है।..zindgee ki haqeeqat..kadwi kahe ya meethi...
००