शनिवार, 29 मई 2010

अनूदित साहित्य



बंगला लघु-कहानी

मुर्गा
दुर्गादास चट्टोपाध्याय

बंगला से अनुवाद : श्याम सुंदर चौधरी


हर दो-तीन साल बाद निवास बदलते रहना जैसे बानेश्वर की नियति बन चुकी थी। पहले सोदपुर, फिर नयी नवेली पत्नी को लेकर डनलप ब्रिज पर। तीन साल वहाँ रहने के बाद बेलूर आना पड़ा। वैसे यहाँ आकर कोई परेशानी नहीं हुई, वरन लाभ ही रहा। यहाँ से उसकी कार्यस्थली लिलुआ काफी करीब है। कारखाने की छुट्टी होने पर वह शाम को पत्नी और बच्चे को लेकर गंगा किनारे खुली हवा में कुछ समय गुजारने चला जाता, लेकिन मियाद खत्म होने पर उस मकान को छोड़कर फिर दूसरे आश्रय की खोज में निकल पड़ा।
अब वह दक्षिण कोलकाता के चेतला बाज़ार के पास वाली एक बस्ती में रहने लगा। वैसे यह कमरा अब तक की तुलना में काफ़ी अच्छा था। यहाँ छत से पानी टपकने की शिकायत नहीं थी। दो खिड़कियाँ भी थीं। दस सालों के भीतर उसे उत्तरी कोलकाता से दक्षिणी कोलकाता तक के (वाया हावड़ा) वास्तविक जीवन से भलीभांति परिचित होने का मौका मिला। घर बदलना उसके लिए काफ़ी कुछ पिंजड़ा बदलने जैसा हो रहा है। इसी कारण, वह किसी के भी साथ अधिक घनिष्ठ संबंध नहीं बनाता, न ही किसी से लड़ाई-झगड़ा करता। हर तरह समझौता कर लेना ही उसके जीवन की सबसे अहम् शर्त बन चुकी है। प्रतिवाद जैसा शब्द उसने सुना ज़रूर है, लेकिन कभी इसे व्यवहार में लाने की कोशिश नहीं की।
चेतला से उसका कार्यस्थल लिलुआ काफ़ी दूर है। हाँ, किराया ज़रूर यहाँ कुछ कम है, इसीलिए बाक़ी सभी कष्ट उसे छोटे लगते हैं। तीन लोगों का परिवार है उसका और इस परिवार के लिए ही वह अपना आवास या पिंजड़ा बदलता रहता है। नयी जगह आते ही वह अगले परिवर्तन के लिए तैयार रहता है।
चेतला आये हुए उसे छह महीने ही हुए थे, पर अभी तक एक रूपया भी नहीं जोड़ सका था। मकान मालिक के साथ दो साल का करार हुआ है। अभी अट्ठारह महीने बाक़ी है, लेकिन इसके बाद फिर अगला पिंजड़ा कहाँ ढूँढ़ेगा। बाज़ार की स्थिति दिनों दिन बिगड़ती जा रही है। कारखाना भी अच्छी हालत में नहीं है। पिछले महीने की पूरी तनख़्वाह भी अभी तक नहीं मिली है। दिमाग़ में ढेरों अशुभ चिंताएँ लेकर बानेश्वर पैदल चला जा रहा था। चेतला बाज़ार के भीतर से ही शॉर्टकट द्बारा बस स्टैंड पहुँचा जा सकता है।
रोज़ इसी रास्ते से होकर वह कारखाने के लिए निकलता है, लेकिन आज अचानक मुर्गे के पिंजड़े की ओर नज़र जाते ही वह ठिठक कर देखता है। एक हाथ पिंजड़े के छोटे से दरवाजे के भीतर घुसता चला जा रहा है। झट से वह हाथ मुर्गे को पकड़ लेता है और मुर्गे के गले को खींचकर हँसिये से काट डालता है। सिर कटा मुर्गा उस आदमी के पाँव के पास छटपटाने लगा। यह घटना बहुत सामान्य और स्वाभाविक-सी ही थी,पर बानेश्वर के भीतर एक अजीब-सा डर समा गया। उसे न जाने क्यों लगने लगा कि घटना कतई स्वाभाविक नहीं है।
बस में चढ़ने के बाद भी बानेश्वर के दिलो-दिमाग़ से मुर्गे वाली घटना हटने का नाम नहीं ले रही थी। वह सोचने लगा, मुर्गा कितनी बार एक के बाद एक पिंजड़ा बदल कर चेतला आया है। नहीं-नहीं, ये ऊटपटांग बातें उसके दिमाग़ में क्यों आ रही हैं। यह सोचकर उसने सिर को एक बार दायें और एक बार बायें झटका दिया। फिर वह बड़बड़ाने लगा, ‘मैं मुर्गा क्यों होऊँगा… मैं तो बानेश्वर हूँ। मैं तो मनुष्य हूँ। मनुष्य और मुर्गा दोनों भला एक ही चीज़ कैसे हो सकते हैं ?’
समय से वह कारखाने के गेट पर पहुँच गया, लेकिन भीतर नहीं जा सका। गेट पर लॉक-आउट का नोटिस लटक रहा था। श्रमिक लोग बाहर खड़े होकर नारेबाजी कर रहे थे। वह भी उन लोगों की आवाज़ के साथ आवाज़ मिलाने की कोशिश करने लगा, किंतु उसके गले से किसी भी तरह मनुष्य का स्वर नहीं निकल पा रहा था। मुर्गे की कराह जैसी कोई आवाज़ निकलने लगी। वह हाथ से गले को सहलाने लगा। लेकिन यह क्या ? उसका सिर उसके धड़ के ऊपर क्यों नहीं है ? वह बार-बार हाथ से अपने सिर को ढूँढ़ने लगा।
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जन्म : 26 मई 1958 को वीरभूम (पश्चिम बंगाल) के पांचरा नामक गांव में ।
शिक्षा : कोलकाता विश्वविद्यालय से बी ए ।
लगभग तीन दशकों से विभिन्न साहित्यिक विधाओं में सक्रिय। बंगला की विभिन्न छोटी-बड़ी पत्रिकाओं और पत्रों में रचनाओं का प्रकाशन। कई संपादित संकलनों में भी कहानियाँ, कविताएँ और निबंध आदि प्रकाशित। इसके अतिरिक्त ‘खूनीर शास्ती चाई’, ‘तेजा’ नामक दो कहानी संग्रह, ‘हलफ़’, ‘कोनटा राखी ऐलबमें’ तथा ‘ अलौकिक चाभीवाला’ जैसे तीन काव्य संग्रह तथा संपादित कहानी संकलन ‘ अल्पो कथार गल्पो’ प्रकाशित। उत्तरबंग नाट्य समाज, सिलिगुड़ी, देवयान साहित्य पत्रिका, बारूईपुर – लोकसखा वेल्फेयर सोसाइटी, कोलकाता आदि अनेक संस्थाओं से साहित्यिक कार्य के लिए सम्मानित तथा पुरस्कृत। कई कहानियों का हिंदी में अनुवाद।
संप्रति : ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में संलग्न।
सम्पर्क : 19/19/1, पीताम्बर घटक लेन, अलीपुर, कोलकाता-27
दूरभाष : 09231980784 (मोबाइल)

11 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

एक गरीब ओर बेबस आदमी की जिन्दगी भी तो.... बहुत अच्छी लगी आप की यह कहानी

Urmi ने कहा…

बहुत सुन्दर कहानी प्रस्तुत किया है आपने! बढ़िया लगा!

बेनामी ने कहा…

Bahut barhia guru.
Mahesh Darpan
darpan.mahesh@gmail.com

Sanjeet Tripathi ने कहा…

very touchy...... n impressive

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

बहुत ही मार्मिक और सोचने के लिए विवश करने वाली कहानी.

लेखक,तुम्हे और चौधरी को बधाई.

चन्देल

सुरेश यादव ने कहा…

भाई नीरव जी आप ने एक मार्मिक कहानी को चुना है संवेदना हर भाषा में एक सी फैलती है ,जैसे धूप.बधाई.

बेनामी ने कहा…

Dear writer and translator
the story has touched my heart.I think the writer has seen the life closly. Best wishes!

भगीरथ ने कहा…

एक रूपक में कहानी अच्छी बन पडी है।बार-बार घर
बदलना दडबे बदलने जैसा ही है ऐसा एहसास बेघर
व्यक्ति को ही हो सकता है

ashok andrey ने कहा…

bahut hee achchhi kahani, man ko chhu gai,badhai.

ashok andrey ने कहा…

bahut hee achchhi kahani, man ko chhu gai,badhai.

उमेश महादोषी ने कहा…

आम आदमी के दर्द को बहुत सटीक ढंग से बयां किया है। बहुत सुन्दर लघुकथा है।