रविवार, 27 जून 2010

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

सोच
धर्मपाल साहिल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

मैं अपना चैकअप करवाने के लिए मैटरनिटी होम गई तो कई महीनों के बाद अचानक वहाँ अपनी कुआँरी सहेली मीना को जच्चा-बच्चा वार्ड में दाख़िल पाकर मैंने हैरान होकर पूछा- “मीना तू यहाँ ? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई थी तेरे साथ?”
“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। बस, मैंने खुद ही अपनी कोख किराये पर दे दी थी।” उसने ज़र्द चेहरे पर मुस्कराहट लाकर कहा।
“यह भला क्यों किया तूने ?” मैंने हैरानी में पूछा।
“तुझे तो मालूम ही है कि मेरा एक सपना था कि मेरी आलीशान कोठी हो, अपनी कार हो और ऐशो-आराम की हर चीज़ हो।”
“फिर यह सब कैसे किया ?”
“मैंने अख़बार में इश्तहार पढ़ा। पार्टी से मुलाकात की। एग्रीमेंट हुआ। नौ महीने के लिए कोख का किराया एक लाख रुपये प्रति महीने के हिसाब से। बच्चा होने तक मेरी सेहत और निगरानी का खर्चा भी उन्हीं का।”
“इसलिए तू ग़ैर मर्द के साथ…”
“नहीं-नहीं, डॉक्टरों ने फर्टीलाइज्ड ऐग आपरेशन करके मेरी कोख में रख दिया। समय-समय पर चैकअप करवाते रहे। आज ही पूरी पेमेंट देकर बच्चा ले गए हैं।”
“न, अपनी कोख से जन्में बच्चे के लिए तेरी ममता ज़रा भी नहीं मचली। तुझे ज़रा भी दु:ख नहीं हुआ ?”
पर मीना ने मेरी बात हँसी में उड़ाते हुए कहा, “.बस इतना भर दु:ख हुआ, जितना एक किरायेदार द्वारा मकान छोड़ कर चले जाने पर होता है।”
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जन्म : 9 अगस्त 1958
शिक्षा : एम. एस. सी., एम. एड.
प्रकाशित पुस्तकें : अक्क दे बीं(लघुकथा संग्रह), नींह दे पत्थर (कहानी संग्रह), किन्नौर तों कारगिल (सफ़रनामा), धीयां मरजाणियां (उपन्यास)- सभी पंजाबी में।

संप्रति : डिस्ट्रिक्ट ऐजुसैट कोर्डिनेटर, पंजाब शिक्षा विभाग, होशियारपुर (पंजाब)
पता : पंचवटी, एकता एन्कलेव, लेन नंबर- 2, पोस्ट ऑफिस- साधु आश्रम, होशियारपुर (पंजाब)
ई मेल : vidha_talwara@yahoo.com
फोन : 018882-228936(घर), 09876156964(मोबाइल)

13 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

सुभाष नीरव जी अब क्या कहे आज इसे लोग फ़ेशन कहत्वे है, अधुनिकता कहते है, त्याग कहते है, ओर मेरे जेसे लोग इसे बेहायई कहते है, गिरा पन कहते है, बिकाऊ माल कहते है..... पता नही कोन सही है, बच्चा बेचाने वाला या किराये पर कोख देने वाला.... या हम तुम?????
बहुत अच्छा लिखा आप ने

PRAN SHARMA ने कहा…

DUNIYA MEIN MERE DOSTO
KYAA - KYA NAHIN HOTA
KOEE BATAAYE KAUN SAA
DHANDHA NAHIN HOTA
SAHIL SAHIB KEE
LAGHU KATHAA PASAND AAYEE
HAI.ANUWAAD BHEE ACHCHHA HAI.

ashok andrey ने कहा…

DharamPal Sahil jee ki laghu katha ek bilkul nai soch ke sath tatha nae vishay ko lekar samajik vikrit soch par prahaar karti hue likhii gai hai jise pad kar laga ki hum kahaan aa gae hain jaraa sesukh ke liye hum koi bhee sadhan apnaa sakte hain isse koi pharak nahi padtaa ki koi kayaa kahega.Bahut sundar v sarthak laghu katha ke liye badhai deta hoon.

रचना दीक्षित ने कहा…

क्या कहें आज तो कोई भी बात सुनकर हैरानी नहीं होती कुछ भी सम्भव है

सुनील गज्जाणी ने कहा…

धरम पाल जी .सुभाष जी ,
नमस्कार !
लघु कथा के सवाल छोडती है कि क्या आज कि नारी इतनी संवेदन हीन हो गयी है कि अपनी कोख और कमरे में कोई अंतर नहीं समझती , मात्र किराये से मतलब है ? महा नगरों में शायद ये चलन में हो . कथा का समापन अवाक् करने वाला है . साधुवाद ,
आभार

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बेनामी ने कहा…

आपकी “सोच” कहानी का तर्जुमा पढ़ा ,एक और तरह से सोचने को बाध्य करती है पाठक को ! बधाई स्वीकार करें !
Rekha Maitra
rekha.maitra@gmail.com

बेनामी ने कहा…

एक सोच यह भी है , तभी तो ये दुकानें चल रही हैं | भोगवादी संस्कृति की एक और देन जिसके निर्मम पक्ष को आपकी कहानी बड़ी सरलता से अभिव्यक्त करती है |
इला

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

“.बस इतना भर दु:ख हुआ, जितना एक किरायेदार द्वारा मकान छोड़ कर चले जाने पर होता है।”

बहुत ही सार्थक और वास्तविक. अंतिम वाक्य पूरी रचना की जान.

बधाई.

चन्देल

सुरेश यादव ने कहा…

धर्मपाल साहिल की लघु कथा 'सोच'एक ऐसी लघुकथा है जो सोचने को विवश करती है क्योंकि इसका विषय ही ऐसा है .नीरव जी को सहज अनुवाद के लिए धन्यवाद.

उमेश महादोषी ने कहा…

अच्छी लघुकथा है।

shama ने कहा…

Kathakaar ne bas katha saamne rakh dee..koyi comment nahi,nazariya nahi...yahi baat sab se badhiya lagi.Badi sashakt kahani.

प्रदीप कांत ने कहा…

एक बहुत नाज़ुक मसले पर धारदार और चोट करती लघुकथा

Rahul Singh ने कहा…

शब्‍दों की दीनता का अहसास कराती अनभिव्‍यक्‍त व्‍यथा.