शनिवार, 3 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य



"सेतु-साहित्य"
के सभी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं !


दो मलयाली लघुकथाएं
हकीक़त
सी.वी. बालकृष्णन

सीढ़ियाँ उतरती हुई वह नीचे कमरे में आई। आवाज़ सुनते ही वह सोफे पर उठ बैठा। कमरा एक अनोखी खुशबू से महक उठा। अतीव आश्चर्य के साथ उसने पत्नी की ओर देखा।
'इतनी सुन्दर श्रीमती के साथ जीते इतने साल बीत गये! पहनी हुई यह रेश्मी साड़ी मैंने ही शादी के दिन इसे 'प्रेजे़न्ट' की थी।' वह उसे देखता ही रह गया।
पत्नी एक मुस्कराहट के साथ उसके करीब आ बैठी।
"आप मुझे ऐसे क्या देख रहे हैं, जैसे पहले कभी न देखा हो।"
"नहीं तो।" उसके मुँह से बस इतना भर निकला।
"सोफे पर बैठे-बैठे ही सोने का इरादा है क्या?" पत्नी दुबारा मुस्करायी।
"नहीं तो...।" उसने फिर वही शब्द दोहराये।
"अभी सो जाने का वक्त नहीं हुआ है। मैं आपके लिए पान लगा लाऊँ?"
पत्नी की बातें सुन कर उसे बहुत ही खुशी हुई। श्रीमती पान का डिब्बा ले आई, समीप बैठी और पान बनाने लगी। चाँदी का डिब्बा था। पान बनाते वक्त उसने देखा कि श्रीमती की उँगलियाँ बहुत ही सुन्दर थीं। उसने श्रीमती से कहा, "बहुत दिन बाद इतने प्यार से पान लगा रही हो।"
श्रीमती चुप रही। मुस्कराती रही। फिर बोली, "आगे से मैं आपको हमेशा इसी तरह पान खिलाती रहूँगी।"
वह और भी खुश हुआ। मन में श्रीमती के प्रति प्रेम बढ़ा। उसने प्यार से पत्नी के बालों में हाथ फेरा। श्रीमती ने पान का बीड़ा देने के लिए हाथ उसकी ओर बढ़ाया। उसने लेने से इन्कार किया।
प्यार से पत्नी ने अपने हाथों से उसके मुँह में पान रखा। वह पान चबाने लगा। पान की सुगन्धित और स्वाद-भरी पीक से उसका मुँह भर गया।
"आप यहाँ क्या कर रहे हैं? नींद आ रही है तो बैडरूम में जाकर नहीं सो सकते?" अचानक श्रीमती की दोपहर के सूरज-सी तीखी आवाज़ सुनते ही वह चौंक कर उठ बैठा।
पत्नी ने तीखी नज़रों से उसकी ओर ताका।
"मैं एक बहुत ही सुन्दर सपना देख रहा था।" वह धीरे से बोला। श्रीमती बिना कुछ बोले मुँह बिचका कर रसोई की ओर चल दी। जैसे ही, वह रसोई-घर तक पहुँची, उसने पीछे से आवाज़ दी, "सपना सुनोगी?"
"अपना पागलपन अपने पास रखो।" श्रीमती ने पलट कर जवाब दिया और रसोई में घुस गई।

धन्धा
अबुल्लिस ओलिप्पुड़ा

कमलाक्षी कल रात को मिले पैसे गिन रही थी। तभी उसने देखा कि आँगन में दो युवक खड़े हैं। एक के हाथ में एक कैमरा भी है।
एक ने कहा, "हम पत्रकार हैं। आप जैसे लोगों के बारे में हम एक फीचर तैयार कर रहे हैं। अगर आपको एतराज़ न हो तो आपकी फोटो चाहिए... और कुछ जानकारी भी दे सकें तो अच्छा रहेगा।"
कमलाक्षी मुस्कराई। उसने युवकों की बात मान ली और आवश्यक सभी जानकारी उन्हें दी। दोनों संतुष्ट होकर वापस चले गए।
उसी दिन, रात में उन युवकों में से एक फिर कमलाक्षी की कुटीर के सामने दिखाई पड़ा।
कमलाक्षी ने पूछा, "अब क्या जानना बाकी है?"
युवक ने जवाब दिए बग़ैर पचास का नोट निकाल कर कमलाक्षी की ओर बढ़ाया। फिर, कमलाक्षी की कमर पकड़ कर अन्दर घुस गया।
तब कमलाक्षी ने कहा, "आपने सुबह पूछा था न, कि हम लोग यह धन्धा बन्द क्यों नहीं करतीं?… बाबू जी, आप जैसे लोग जब तक इस दुनिया में हैं, हम यह धन्धा बन्द नहीं कर सकतीं।"
(बलराम अग्रवाल द्वारा संपादित पुस्तक "मलयालम की चर्चित लघुकथाएं" से साभार)

5 टिप्‍पणियां:

Asha Joglekar ने कहा…

बहुत अच्छी कहानियाँ हैं । पढाने के लिये आभार ।

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

भाषा कोई भी हो जीवन की सच्चाईयां वही हैं
आदमी वही है, अनुभव और अपेक्षाएं वही हैं

पारुल "पुखराज" ने कहा…

dono hi kahaaniyaan achhi lagii..shukriya

अनिल रघुराज ने कहा…

सुभाष जी, शानदार कहानियां हैं। छोटी हैं तो पढ़ने के लिए ज्यादा धैर्य रखने की जरूरत भी नहीं पड़ी। वैसे हिंदी ब्लॉगिंग में आप शानदार काम रहे हैं। धन्यवाद।

सुभाष नीरव ने कहा…

आशा जी, अविनाश जी, पारुल जी और अनिल जी, आप सबका आभारी हूँ कि आप ने "सेतु साहित्य" अपनी टिप्पणी छोड़कर मुझे अपनी राय से अवगत कराया। आशा है, आगे भी आप "सेतु साहित्य" पढ़ते रहेंगे और अपनी प्रतिक्रिया देते रहेंगे।