सोमवार, 14 सितंबर 2009

अनूदित साहित्य



नेल्सन मंडेला के पत्र - पूर्व पत्नी विनी मंडेला के नाम
प्रस्तुति और अनुवाद : यादवेन्द्र


दक्षिण अफ्रीका की स्वतंत्रता के कर्णधार नेल्सन मंडेला जेल में रहते हुए और दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति के तौर पर समय समय पर अपनी पूर्व पत्नी विनी मंडेला के नाम पत्र लिखते रहे थे, उन्हीं पत्रों में से कुछ का हिंदी अनुवाद मैं 'सेतु साहित्य' के माध्यम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। जेल से निकलने पर विनी से उनके मतभेद इतने गहरे हो गए कि उन्होंने उससे तलाक ले लिया था। इन पत्रों में एक स्वतंत्रता सैनानी की निजी अंतरंग भावनाएँ जिस पारदर्शिता से दिखाई देती हैं, इसकी मिसाल दुनिया में ढूँढ़ना मुश्किल होगा। इनमें से कुछ ख़त 'नया ज्ञानोदय' और 'अहा ज़िंदगी' में छप चुके हैं।
-यादवेन्द्र


मई 1969
(जब विनी को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया)

तुम्हें अब लगता होगा कि अपने आपको जानने के लिए जेल एक आदर्श स्थान है- यथार्थ में और निरंतर अपने मन, विचारों और भावनाओं को टटोलने की प्रक्रिया यहाँ शुरू होती है। एक व्यक्ति के तौर पर अपना आकलन करने पर हम बाहरी पक्ष पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं जैसे सामाजिक प्रतिष्ठा, प्रभाव और प्रसिद्धि, दौलत और शैक्षिक उपलब्धियाँ। पर आंतरिक पक्ष कहीं मनुष्य के तौर पर अपनी विकास यात्रा पर मनन करने के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण होता है - ईमानदारी, सचाई, सफलता, इंसानियत, शुद्धता, उदारता, लघुता के भाव से मुक्ति, अपने आसपास के लोगों की सेवा करने की तत्परता - प्रत्येक व्यक्ति की पहुँच में ये सभी क्षमताएँ हैं - ये किसी भी व्यक्ति के आध्यात्मिक जीवन के आधारस्तंभ होते हैं- यदि और कुछ न भी हो तो जेल तुम्हें दिन-ब-दिन के आचरण को देखने-परखने का अवसर तो देती ही है, जब तुम बुराई पर विजय प्राप्त कर सको और उन बातों को और मजबूती से लागू कर सको, जो अच्छी हों। हर रोज़ का ध्यान - दिन में 15 मिनट ही सही - तुम्हें तरोताज़ा रखने के लिए बेहद फायदेमंद साबित होगा। हो सकता है, शुरूआत में अपने जीवन के नकारात्मक पहलुओं पर उंगली रखना मुश्किल लगे, पर ऐसा करते रहने से धीरे-धीरे फ़ायदा महसूस होने लगेगा। हमेशा यह बात ध्यान में रखो कि विजयी वही प्राणी होता है जो अपने प्रयास कभी नहीं छोड़ता।
(मंडेला : द मॉथोराइज्ड बायोग्राफ़ी - एंथनी सैप्सन से उध्दृत)

अक्टूबर 1975

मेरी हसरत है कि मैं तुम्हें लम्बी सैर पर ले चलूँ जैसा मैंने 1968 के 12 जून को किया था। बस, एक फर्क़ इस बार मैं यह चाहता हूँ कि हम दोनों अकेले साथ हों। मैं तुमसे इतने अरसे से दूर रहा हूँ कि पास आने पर सबसे पहले यह चाहूँगा कि तुम्हें दमघोंटू वातावरण से कहीं दूर ले जाऊँ -हिफ़ाजत के साथ ड्राइव पर - और तुम ताज़ा स्वच्छ हवा में साँस ले सको, दक्षिण अफ्रीका के मनोरम स्थल दिखाऊँ, हरी-भरी घास और जंगल, रंग बिरंगे जंगली फूल, चमकती जलधारा, खुले में स्वच्छंद होकर चरते जानवरों से तुम्हें रू-ब-रू कराऊँ, और यात्रा के दौरान मिलने वाले सरल ग्रामवासियों से हम घुलमिल कर बातें कर पाएँ। सबसे पहला पड़ाव हम तुम्हारी माँ और पिता जहाँ अगल-बगल परम शांति से लेटे हुए हैं, वहाँ डालेंगे। मैं उन लोगों के प्रति आभार प्रकट करना चाहूँगा जिनकी वजह से आज मैं इतना प्रसन्न और आज़ाद हो पाया। इतने दिनों से जो बातें तुम्हें बताना चाहता रहा हूँ, संभव है उनकी शुरूआत तब हो। आसपास का माहौल सुनने की तुम्हारी व्यग्रता बढ़ा देगा और मैं उन्हीं मुद्दों पर ज्यादा ध्यान देने की कोशिश करूँगा जो दिलचस्प हों, प्रेरक और सकारात्मक भी हों। यहाँ ठहर कर इसके बाद हम मेरी माँ और पिता के पास चलेंगे, उम्मीद है कि वहाँ का माहौल भी वैसा ही सुकून देने वाला होगा। मुझे पक्का यकीन है जब हम वापस लौट कर आएँगे तो तरोताज़ा और नई ऊर्जा से ओतप्रोत होंगे।
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आजकल मैं कई बार यह सोचता हूँ कि तुम मेरी मित्र, पत्नी, माँ और मार्गदर्शक साथ-साथ हो। तुम्हें शायद इसका आभास नहीं होगा कि मैं कितनी बार ऐसा सोचते हुए मन के आईने में तुम्हारे शरीर और मनोभावों की तस्वीर बनाता हूँ - तुम्हारे ललाट, कंधे, हाथ-पाँव, रोज़ रोज़ की प्रेमपूर्ण चुहलबाजियाँ और मेरी उन तमाम दुर्बलताओं की ओर से तुम्हारे सायास आँखें मूँद लेने के बारे में अक्सर सोचता हूँ जिनसे कोई भी दूसरी स्त्री सहज ही कुंठित हो सकती है।

कई बार कहीं एकाकी बैठना और तुम्हारे साथ व्यतीत किए गए समय को एकाएक याद करना अद्भुत अनुभूति है। मुझे यह भी याद है, जब एक दिन तुम बेटी को दूध पिला रही थीं और साथ में बड़ी मुश्किल से अपने नाख़ून भी काटती जा रही थीं। अब इस वक्त उस घटना को याद करके मुझे अपने आप पर शर्म आ रही है - तुम्हारा यह काम मुझे कर देना चाहिए था। मुझे स्वीकार करने में ज़रा भी संकोच नहीं है कि दायित्व की बात छोड़ भी दें तो उस वक्त मेरा रवैया कुल मिला कर यह था कि मैंने दूसरी संतान के जन्म का रास्ता साफ कर दिया, मेरा काम पूरा हो गया- अब तुम्हारी इस शारीरिक बेकद्री की जिम्मेदार तुम हो, इसे तुम्हें सम्हालना है।

15 अप्रैल 1976

तुम्हारा प्रेम और समर्पण मुझ पर इतने भारी ऋण हैं कि जिन्हें चुका कर मुक्त होने के बारे में मैं कभी सोच भी नहीं सकता। यदि नियमित तौर पर अगले सौ साल भी किश्तों में इसे चुकाने की कोशिश करूँ तो भी हिसाब चुकता नहीं कर पाऊँगा।
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जब मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ उस वक्त भी तुम्हारी मोहक तस्वीर मेरे कंधे से दो फीट ऊपर टंगी हुई है। हर सुबह उठकर मैं इसे बड़े जतन से झाड़ता-पोंछता हूँ और मुझे ऐसा लगता है जैसे पुराने दिनों में तुम्हें सहलाते हुए आनन्द विभोर हो जाता था, वैसा ही आज भी महसूस कर पा रहा हूँ।

मैं तस्वीर में तुम्हारी नाक पर अपनी नाक रखकर आज भी वैसे ही स्तब्ध कर देने वाली चिहुँकन की अनुभूति करता हूँ जैसा पहले सचमुच ऐसा करते हुए किया करता था। मेरे ठीक सामने टेबुल पर बेटी खड़ी दिखाई देती है। इन विलक्षण स्त्रियों की निगरानी में रहते हुए ऐसा कैसे हो सकता है कि मेरा मन निराशा से घिरने लगे ?

15 अप्रैल 1976

25 फरवरी को जब मैं सुबह बिस्तर से उठा तो हर रोज़ की तरह तुम्हारी और बच्चों की कमी बहुत शिद्दत से महसूस हुई। आजकल अक्सर मैं तुम्हें प्रेमिका, माँ, मित्र और मार्गदर्शक - सबके रूप में याद करता हूँ। शायद तुम्हें नहीं मालूम कि मैं तुम्हारी छवि - जिस्माती और रूहानी - कैसे कैसे सोचता और गढ़ता हूँ। मेरी अच्छी बच्ची, आखिरकार तुम यूनिवर्सिटी पहुँच ही गई। तुमने कौन कौन से विषय चुने हैं ? तुम्हें याद है कि इसी यूनिवर्सिटी में हम दोनों अट्ठारह साल पहले मिले थे ? उम्मीद हैतुम्हें यह कोर्स पसन्द आएगा, पर यह हमेशा ध्यान रखना कि अपनी क्षमताओं के अनुरूप तुम्हें और ऊँचे मानक बनाए रखने होंगे। पर मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि शाम के वक्त तुम अकेले ड्राइव करके लाइब्रेरी जाती हो - ऐसा जोख़िम क्यों उठाना ? तुम भूल गईं कि तुम बीच शहर में नहीं, बल्कि सोवेटो में रहती हो जो रात में बिलकुल सुरक्षित नहीं है। पिछले दस सालों में तुम्हारे ऊपर रात में कई बार क़ातिलाना हमले हुए हैं और तुम्हें घर से घसीट कर बाहर निकालने की कोशिशें हुई हैं। अब उन लोगों को अनुकूल अवसर क्यों प्रदान कर रही हो ? तुम्हारा और बच्चों का जीवन मेरे लिए किसी शैक्षिक सर्टिफिकेट से क्या ज्यादा महत्वपूर्ण है! मैं उम्मीद करता हूँ कि अगले पत्र में तुम यह लिखोगी कि तुमने अपनी दिनचर्या बदल ली है और काम के बाद सीधे बच्चों के पास घर लौट जाती हो। यूनिवर्सिटी और लाइब्रेरी के बीच एक वैन सर्विस चलती है, ज़रूरत पड़ने पर तुम उसका उपयोग कर सकती हो। मैं तुम्हें यह बताना भूल गया था कि कुछ जीतें ऐसी होती हैं जिनका महत्व केवल वही जान सकते हैं जो जीतते हैं, पर कुछ घाव ऐसे होते हैं जो भर जाने के बाद भी अपने गहरे निशान छोड़ जाते हैं। जब मैं घर लौटूँगा और तुम मुझे घर के अन्दर नहीं मिलोगी तो.... केवल तुम्हीं तो हो जिसे ढूँढ़ कर सबसे पहले मैं यह खबर करूँगा - और यह गौरव तुम्हारा और केवल तुम्हारा होगा।
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26 अक्टूबर 1976

बरसों बरस से मैं अपने चेहरे पर सफलतापूर्वक ऐसा मुखौटा लगाए रहा हूँ जिसके पीछे परिवार के लिए छटपटाता हुआ व्यक्ति अपने आपको छुपा लेता है - एकाकी गुमसुम। चिट्ठियों के आने वाले दिन सभी कैदी उतावले होकर उधर भागते हैं लेकिन मैं तब तक उधर नहीं जाता, जब तक कोई मेरा नाम लेकर आवाज़ न लगाए। तुम्हारे मुलाकात करके चले जाने के बाद भी मैं पीछे मुड़ कर औरों की तरह नहीं देखता रहता, हालांकि कई बार ऐसा करने की इच्छा उफान तक पहुँच जाती है। जैसे यह चिट्ठी लिखते वक्त भी महसूस कर रहा हूँ। मैं भावनाओं को काबू में रखने के लिए अपने आपसे लड़ता रहता हूँ।

तुम्हें जब गिरफ्तार कर लिया गया उसके बाद से तुम्हारी केवल एक चिट्ठी मुझ तक पहुँची है। घर पर क्या हो रहा है बिल्कुल नहीं मालूम - मकान का किराया, टेलीफोन का बिल, बच्चों की देखभाल और खर्चापानी किसी के बारे में भी मुझे नहीं मालूम। मुझे यह भी चिंता सता रही है कि जेल से छूटने के बाद दुबारा तुम्हें नौकरी पर लिया जाएगा या नहीं। जब तक तुम्हारा संदेश न पहुँचे, मैं चिंतित और रेगिस्तान की तरह सूखा रहूँगा।

कारू रेगिस्तान से होकर तो कई बार गुजरा हूँ। बोत्स्वाना के रेगिस्तान भी देखे हैं - रेत के असंख्य टीले और पानी की एक बूँद भी नहीं। तुम्हारी एक भी चिट्ठी नहीं मिली। मैं रेगिस्तान की तरह सूखा महसूस कर रहा हूँ।

तुम्हारी और परिवार के अन्य लोगों की चिट्ठियों का आना बरसात के आह्लादपूर्ण आगमन की तरह होता है और ऐसा लगता है जैसे मेरे जीवन में निर्मल जलधारा बह निकली हो।

जब भी तुम्हें पत्र लिखता हूँ, मेरे भीतर शारीरिक उत्तेजना का संचार होने लगता है और मैं तमाम दु:खदर्द भूल जाता हूँ। मैं प्रेम की सरिता में उतराने लगता हूँ।

26 जून 1977

बहुत कठिन समय झेल कर हमारी बेटियाँ अब बड़ी हो गई हैं। बड़ी वाली का तो अब अपना परिवार है और वह उनकी अच्छी तरह से परवरिश भी कर रही है।

अफ़सोस है कि हमने साथ-साथ जो सोचा था - एक लड़का पैदा करने के बारे में - वह पूरा नहीं कर पाए। मैंने तुम्हारे लिए एक घर बनाने के बारे में सोचा था - छोटा सा ही सही - जिसमें आखिरी उदास और एकाकी दिनों में साथ-साथ जीवन व्यतीत कर पायें। विडम्बना देखो कि मैं ऐसा कुछ भी कर पाता उससे पहले ही धाराशायी हो गया। अपने बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि हवा में अपने किले बना रहा था।

21 जनवरी 1979

तुम्हारे प्यार भरे पत्र, क्रिसमस, जन्मदिन और शादी की वर्षगांठ के मौकों पर भेजे गए संदेश हमेशा सही समय पर मेरे पास पहुँचते रहे हैं और इनसे मेरे मन में यह आस घर करने लगती है कि अगले महीने भी ऐसा ही कुछ होगा। अनवरत चौदह वर्षों से एक ही व्यक्ति का आपके पास संदेश आता रहे तो जाहिर है, इस प्रत्याशा से ताज़गी और नयेपन का उल्लास कुंद पड़ जाना चाहिए। पर जैसे ही तुम्हारा पत्र पहुँचता है, मैं दमकने लगता हूँ और वहाँ उड़ने लगता हूँ जहाँ चीलों की पहुँच न हो सके। हालांकि बातों को सरल परन्तु स्पष्ट तौर पर कहने की तुम्हारी क्षमता मुझे भलीभाँति मालूम है, पर अट्ठारह वर्षों के हमारे साथ का जैसे तुमने बयान किया, उसका ढंग बेहद मोहक था। मुझे लगता है, यही अट्ठारह वर्ष तुम्हारे जीवन में सबसे कष्टसाध्य रहे होंगे। हर बार की तरह तुम्हारा वह संदेश मुझे चकित और मुदित साथ-साथ कर गया।
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मैं हर समय तुम्हें प्रेम करता हूँ, चाहे वह ठिठुरा देने वाली निष्ठुर ठंड हो या गर्मियों में जब प्रकृति सम्पूर्ण सौंदर्य, चमक और उष्मा के साथ वापस लौट कर आती है। जब तुम खिलखिला कर हँसती हो तो मेरी खुशी का कोई ओर-छोर नहीं दिखता। कल्पना में तुम अक्सर ऐसे ही आविर्भूत होती हो- मेरी माँ तुम्हें व्यस्त रखने को इतना कुछ काम पड़ा है, लेकिन कितनी भी कठिन स्थितियाँ सामने हों, चेहरे पर मुस्कान सर्वदा विद्यमान रहती है।

6 मई 1979

मैंने सोचा था कि जिंजी के साथ अपनी जीवनी लिखने के प्रोजेक्ट के बारे में बातचीत करूँगा। तुमने ही बताया था कि इस वर्ष वह इसे प्रकाशित करने की योजना बना रही है। मेरी निजी राय है कि कुछ खास लोगों के बारे में वह चुप ही रहे तो अच्छा, पर इस बारे में फैसला उसी को करना है। हालांकि ऐसी किताबों में प्रामाणिक ब्यौरा ही दर्ज होना चाहिए- चाहे प्रिय हो या अप्रिय। सभी व्यक्तियों के बारे में चाहे वह जिंजी को कितने भी प्रिय हों, देवदूत मान कर चर्चा नहीं करनी चाहिए बल्कि यथार्थ के धरातल पर खड़े अच्छाइयों और दुर्बलताओं को धारण किए हुए हाड़मांस के मनुष्यों के तौर पर उनके बारे में लिखना चाहिए।

हाल ही में कुछ आत्मकथाएँ सामने आई हैं - खास तौर पर युवतर पीढ़ी की, पर खतरनाक रूप से बेबाक और सनसनीजनक! इनमें से कुछ तो इतने अंतरंग स्तरों तक पहुँच जाती हैं कि इन्हें किसी भी दृष्टि से जायज नहीं ठहराया जा सकता। तुमने सोफिया लौरेन और मार्गरेट त्रुदो( कनाडा के प्रधानमंत्री की पूर्व पत्नी) की किताबें देखी हैं ? मुझे सही-सही नहीं मालूम कि दूसरी वाली किताब ने कनाडा के प्रधानमंत्री के राजनैतिक कद को कितना आघात पहुँचाया है। किसी भी सार्वजनिक व्यक्ति का सुखी पारिवारिक जीवन उसके लिए अहम आधार स्तंभ के तौर पर काम करता है। इसी नज़रिये से देखें तो जिंजी की किताब का उद्देश्य व्यावसायिक लाभ या प्रचार नहीं होना चाहिए, बल्कि इन्हें वृहत्तर मुद्दों पर केन्द्रित होना चाहिए।

यदि मेरे पास तुम्हारी मुलाकातों, बेशकीमती चिट्ठियों और प्यार की निधि न होती तो मैं कई वर्ष पहले ही बिखर गया होता। मैं थोड़ी देर सुस्ताता हूँ, थोड़ी कॉफी पीता हूँ, फिर अपनी किताबों की अल्मारी पर रखी तस्वीरों की धूल झाड़ता हूँ। सबसे पहले जेनी की, फिर जिंजी की और अंत में तुम्हारी- मेरी डार्लिंग माँ ! ऐसा करने से तुम्हारे लिए दिल में उठती तड़प कुछ कुछ शांत हो जाती है।

21 जुलाई 1979

किसी आदमी और उसकी माँ, पिता व अभिन्न मित्र मेरे लिए तुम थोड़ा थोड़ा सब कुछ हो - के बीच जो नाजुक और अन्तरंग रिश्ता होता है, वह इतना विलक्षण होता है कि अपने अस्तित्व से उसे खींच कर अलग करना संभव नहीं है।

22 नवम्बर 1979

पिछली बार जब तुम मुझसे मिलने आई थीं, इतवार का दिन था। तब अपने परिधान में तुम बेहद खूबसूरत और दमकती हुई लग रही थीं। तुम्हें देख कर यह लगता ही नहीं था कि दो बच्चों की माँ हो। तुम्हारा यौवन और शारीरिक सुंदरता थोड़ी भी तो निस्तेज नहीं हुई।

17 नवम्बर को जब तुम मिलने आई थीं, सचमुच शानदार लग रही थीं - बिलकुल वैसी ही स्त्री जिससे मैंने विवाह किया था। तुम्हारे चेहरे पर विलक्षण आभा थी। जबर्दस्त संयमित भोजन(डायटिंग) के दिनों में तुम्हारी आँखों में जो उदासी और भावशून्यता झलका करती थी, अच्छा हुआ वे दिन बीत गए। हर बार की तरह मैं तुम्हें ‘माँ’ कह कर सम्बोधित कर रहा था, पर मेरा शरीर बार-बार मुझे आगाह कर रहा था कि मेरे सामने एक जीवंत स्त्री बैठी है। मेरा मन निरंतर कुछ गुनगुनाने को करने लगा था।

31 मार्च 1983

पिछले महीने तुम अप्रत्याशित ढंग से अचानक आ गईं इसलिए मैं इतना गदगद हो गया। मेरी जैसी उम्र है, इसमें युवावस्था की तमाम इच्छाएँ कुम्हला जानी चाहिएं, पर मेरे साथ ऐसा होता लगता नहीं। तुम्हारी झलक पाते ही, यहाँ तक कि तुम्हारे बारे में सोचना शुरू करने भर से मेरे अन्दर हज़ारों चिंगारियाँ एक साथ जल उठती हैं।

19 फरवरी को हालांकि तुम हँस बोल रही थीं, पर कहीं थोड़ी बीमार भी लग रही थीं और तुम्हारी आँखों से प्रेम और कोमलता जैसे हमेशा फूटती थी, उस दिन उनमें तैरती नमी में जैसे धुल गई हो।

29 अक्टूबर को तो तुम गहरे हरे रंग के परिधान में एकदम महारानी लग रही थीं और मुझे लगा, अच्छा ही हुआ कि अपने मन में आ रहे विचारों को मैं तुम तक नहीं पहुँचा पाया और न ही स्वयं तुम तक पहुँच पाया। मुझे कईबार लगता है कि सड़क के किनारे खड़ा होकर मैं जीवन के रथ को गुजरता हुआ चुपचाप देखता जा रहा हूँ।
(नेल्सन मंडेला की अधिकृत जीवनी 'हायर दैन होप' से उद्धृत। लेखिका-फातिमा मीर)
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अपने परिचय-स्वरूप यादवेन्द्र जी का कहना है कि यूँ तो वह रहने वाले बनारस के हैं पर उनका बचपन बीता है बिहार में और बिहार के हाजीपुर, भागलपुर और पटना में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है, इसलिए प्राय: दफ़्तर या अन्य जगहों पर इस बात पर अक्सर विवाद कर बैठते हैं कि बिहार के मायने केवल लालू ही नहीं होता। जन्म- 1957 में। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद थोड़े समय कोरबा(छत्तीसगढ़) में रहे, फिर 1979 से निरंतर रुड़की में हैं। यहाँ सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इन्स्टीच्यूट में एक वैज्ञानिक और उप-निदेशक के तौर पर काम कर रहे हैं। ‘दिनमान’, ‘रविवार’, ‘आविष्कार’, ‘जनसत्ता’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘हिंदुस्तान’, ‘समकालीन जनमत’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘कथादेश’, और ‘कादम्बिनी’ जैसी अनेक हिंदी की शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में मुख्यतौर पर विज्ञान लेखन करते रहे हैं। गत कुछ वर्षों से अनुवाद की ओर रुख किया है। अपनी माँ को अंग्रेजी में लिखी एक भारतीय कहानी पढ़वाने के लिए अनुवाद शुरू किया और अब इसमें उनका खूब मन रमता है।
सम्पर्क : ए-24, शांति नगर, रुड़की-247667,उत्तराखंड
फोन : 01332- 283245, 094111 11689
ई-मेल : yaa_paa@rediffmail.com

''सेतु साहित्य'' के अगले अंग में पढ़ें -

नेल्सन मंडेला के शेष पत्र तथा विनी मंडेला से तलाक के बारे में उनके द्वारा 13 अप्रैल 1992 को एक प्रेस कांफ्रेंस में दिए गए वक्तव्य का यादवेन्द्र जी द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद।

11 टिप्‍पणियां:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

भाई सुभाष,

श्री यादवेन्द्र जी द्वारा अनूदित नेल्शन मांडेला के अपनी पत्नी के नाम लिखे गये पत्रों को प्रकाशित करके तुमने एक महत्वपूर्ण कार्य किया है. बहुत ही सुन्दर अनुवाद है. अबाधित पठनीयता और कलात्मक भाषा. दोंनो को बधाई.

रूपसिंह चन्देल

सहज साहित्य ने कहा…

मत्त्वपूर्ण सामग्री के लिए धन्यवद कुछ न कुछ नया करते रहने से सेतु साहित्य बहुतों को जोड़ रहा है ।

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

नीरव जी ,

यादवेन्द्र जी द्वारा अनुदित ये नेल्सन मंडेला जी के महत्वपूर्ण दतावेज कहीं मन की तहों को झकझोर गए ...शायद किसी अपने से बहुत ज्यादा अपेक्षाये ही दूरियों की वजह बन जाती है .....यादवेन्द्र जी ने एक बार ये अनुवाद मुझे भेजे थे पर तब मैं पढ़ नहीं पाई थी ....आज आपके ज़रिये यह मलाल भी जाता रहा ....इनका अनुवाद तो लाजवाब होता है ....!!

बेनामी ने कहा…

Yadavendra ji ke anupam anuvad kee saanjhedaaree ka shukriya !

Rekha Maitra
rekha.maitra@gmail.com

Sushil Kumar ने कहा…

नेल्सन मंडेला के स्वातंत्र्य-संघर्ष और दक्षिण अफ्रीका के लिये उनके कई संबोधनों को मैं पहले कई बार सुन चुका हूं मिडिया में और प्रभावित भी था अपने किशोरावस्था से ही। यह भी सुना था कि उनके जेल-यात्रा की डायरी अत्यंत भावप्रवण और मर्मस्पर्शी हैं पर आज यादवेन्द्र जी का यह सहज-सुलभ डायरी पढ़ कर भावातिरेक हो गया! जेल -डायरी के ये पन्ने मंडेला के जीवन के संघर्ष के द्वंद्व की अप्रतिम गाथा है जिसमें प्रेम और जीवन-मूल्य की मोतियाँ छिपी हुई है। इसे पढकर एक ओर पाठक जहाँ नेल्सन के व्यक्तित्व के जीवन- उर्जा से भर कर आह्लादित हो उठता है तो वहीं दूसरी ओर उस महामानव की कंटकाकीर्ण जीवन-संघर्ष को देख उसके नयन अश्रु-पूरित हो जाते हैं।यादवेन्द्र जी का अनुवाद भी मूल रचना के बराबर है जो पाठक को अंत तक हिलने नहीं देता। भाई सुभाष नीरव जी, बहुत अच्छी और पठनीय चीज लगायी है आपने सेतु पर !

Sushil Kumar ने कहा…

नेल्सन मंडेला के स्वातंत्र्य-संघर्ष और दक्षिण अफ्रीका के लिये उनके कई संबोधनों को मैं पहले कई बार सुन चुका हूं मिडिया में और प्रभावित भी था अपने किशोरावस्था से ही। यह भी सुना था कि उनके जेल-यात्रा की डायरी अत्यंत भावप्रवण और मर्मस्पर्शी हैं पर आज यादवेन्द्र जी का यह सहज-सुलभ डायरी पढ़ कर भावातिरेक हो गया! जेल -डायरी के ये पन्ने मंडेला के जीवन के संघर्ष के द्वंद्व की अप्रतिम गाथा है जिसमें प्रेम और जीवन-मूल्य की मोतियाँ छिपी हुई है। इसे पढकर एक ओर पाठक जहाँ नेल्सन के व्यक्तित्व के जीवन- उर्जा से भर कर आह्लादित हो उठता है तो वहीं दूसरी ओर उस महामानव की कंटकाकीर्ण जीवन-संघर्ष को देख उसके नयन अश्रु-पूरित हो जाते हैं।यादवेन्द्र जी का अनुवाद भी मूल रचना के बराबर है जो पाठक को अंत तक हिलने नहीं देता। भाई सुभाष नीरव जी, बहुत अच्छी और पठनीय चीज लगायी है आपने सेतु पर !

Ek ziddi dhun ने कहा…

ye padhkar khasi bechaini hai. prem ka aveg aur vivek bhi rishte ki jatilta ko suljha nahi pata. akhir ve donon alag ho gaye.
...ek ladke ki unki chah?

Ria Sharma ने कहा…

नीरव जी
बहुत सुन्दर ,सजीव सा अनुवाद किया है यादवेन्द्र जी ने .....

आप का भी बहुत आभार share करने का
आगे के अनुवादों का इंतज़ार रहेगा !!

सुरेश यादव ने कहा…

नेल्सन मंडेला का जीवन अत्यंत संघर्ष मय रहा है.वलिदानी व्यक्तियों का संघर्ष जितना कठोर होता है उनका हृदय उतना ही उदार होता है.नेल्सन मंडेला के जीवन के अन्तरंग पल यादवेन्द्र जी के सहज अनुवाद में जीवंत हो उठे हैं.नीरव जी को इस प्रस्तुति के लिए बधाई.

Randhir Singh Suman ने कहा…

तुम हँस बोल रही थीं, पर कहीं थोड़ी बीमार भी लग रही थीं और तुम्हारी आँखों से प्रेम और कोमलता जैसे हमेशा फूटती थी.nice

PRAN SHARMA ने कहा…

TUKDO-TUKDO MEIN SAARAA KAA SAARAA
VIVRAN PADHA HAI.BAHUT ACHCHHA LAGAA HAI.KAEE NAYEE JANKAARIYAN
MILEE HAIN.BEHTREEN ANUWAD KE LIYE
YAADVENDRA JEE KO BADHAAEE.