रुपिंदर मान
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)
लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
जब हँसती हैं तो यूं लगती हैं
जैसे अनार ने मुँह खोला हो
रोते समय फव्वारे-सी होती हैं
सहमी हों तो
बिल्ली से डरे कबूतर जैसी
खामोश होती हैं तो
सरोवर में शांत पानी-सी लगती हैं
गुनगुनाती हैं तो
हौले-हौले बहती बयार की
‘सन-सन’ बन जाती हैं
बेचैन होती हैं
दरिया के वेग-सी लगती हैं
ख़रमस्तियाँ करते हुए
समुन्दर की लहरें बन जाती हैं
लड़कियाँ बहुत ही अच्छी होती हैं
धीमे-धीमे चलती हैं तो
टीलों से फिसलकर गुजरती हवाएं लगती हैं
नहा कर निकलती हैं तो
सुल्फे की लपट-सी दहकती हैं
अंधेरे में दौड़ती हैं तो
जलती-बुझती मोमबत्तियाँ लगती हैं
लड़कियाँ तो आग की नदियाँ हैं
सुस्ताती हैं तो और भी हसीन लगती हैं
लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
रूठ जाती हैं तो बड़ा तंग करती हैं
जीत कर भी हारती हैं
हर ज्यादती को सहती हैं
मेमना बन कर पांवों में लेटती हैं
गुस्से-गिले को दूर फेंकती हैं
लड़कियों के बग़ैर लड़के निरे भेड़ा हैं
जंगल में गुम हुए कुत्ते-से
या फिर
शहर में खो गए ग्रामीण-से…
लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं।
·
(‘लकीर-94’ से साभार)
बेटियाँ
सुरिंदर ढिल्लों
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)
मेरी बेटी
गहरी नींद में सो रही है
सूरज अपने पूरे जोबन पर आ चुका है
मैं बेटी को
प्यार से उठाने की कोशिश करता हूँ
पर वह करवट बदल कर
फिर गहरी नींद में सो जाती है
अब मैं खीझ कर
फिर से उसे उठाने लगता हूँ
तो मेरी बेटी उनींदी आँखों से
मेरी ओर देखती है
मानो वास्ता दे रही हो
‘पापा…
मुझे बचपन की नींद तो
जी-भरकर ले लेने दो
फिर तो मैंने
सारी उम्र ही जागना है…।
·
(‘लकीर-98’ से साभार)
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