शनिवार, 6 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य


सोच
धर्मपाल साहिल
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)


मैं अपना चैकअप करवाने के लिए मैटरनिटी होम गई तो कई महीनों के बाद अचानक वहाँ अपनी कुआंरी सहेली मीना को जच्चा-बच्चा वार्ड में दाखिल देख मैंने हैरानी से पूछा, “मीना, तू यहाँ? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई तेरे साथ?”

“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। बस, मैंने खुद ही अपनी कोख किराये पर दे दी थी।" उसने ज़र्द चेहरे पर मुस्कराहट लाकर कहा।
“यह भला क्यों किया तूने?” मैंने हैरानी से पूछा।
“तुझे तो पता ही है कि मेरा एक सपना था कि मेरी आलीशान कोठी हो, अपनी कार हो, और ऐशो-आराम की हर चीज़ हो।"
“फिर यह सब कैसे किया?”
“मैंने अख़बार में विज्ञापन पढ़ा। पार्टी से मुलाकात की। एग्रीमेंट हुआ। नौ महीने के लिए कोख का किराया एक लाख रुपये प्रति महीने के हिसाब से। बच्चा होने तक मेरी सेहत की निगरानी का खर्चा भी उनका।"
“इसलिए तू गैर-मर्द के साथ…”
“नहीं-नहीं, डाक्टरों ने फर्टीलाइज्ड ऐग आपरेशन करके मेरी कोख में रख दिया। समय-समय पर मेरा चैकअप करवाते रहे। आज पूरी पेमेंट करके बच्चा ले गए हैं।"
“पर, अपनी कोख से जन्मे बच्चे के लिए तेरी ममता ज़रा भी नहीं तड़पी? तुझे ज़रा भी दु:ख नहीं हुआ?” मीना ने मेरी बात हँसी में उड़ाते हुए कहा, “बस, इतना भर दु:ख हुआ जितना एक किरायेदार के मकान छोड़ कर जाने पर होता है।"



रोबोट
शरन मक्कड़
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

दो मित्र आपस में बातें कर रहे थे। एक वैज्ञानिक था, दूसरा इतिहास का अध्यापक। वैज्ञानिक कह रहा था, “देखो, विज्ञान ने कितनी तरक्की कर ली है। जानवर के दिमाग में यंत्र फिट करके, उसका रिमोट हाथ में लेकर जैसे चाहो जानवर को नचाया जा सकता है।"
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह एक गधा ले आया। रिमोट हाथ में पकड़ कर वह जैसे-जैसे आदेश देता, गधा वैसा-वैसा ही करता। वह कहता, “पूंछ हिला।" गधा पुंछ हिलाने लगता। इसी प्रकार वह दुलत्तियाँ मारता, ढेचूं-ढेचूं करता। लोट-पोट हो जाता। जिस तरह का हुक्म उसे मिलता, गधा उसी तरह उसकी तामील करता। वैज्ञानिक अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था।
वैज्ञानिक का मित्र जो बहुत देर से उसकी बातें सुन रहा था, गधे के करतब देख रहा था, शांत बैठा था। उसके मुँह से प्रशंसा का एक भी शब्द न सुनकर वैज्ञानिक को गुस्सा आ रहा था। आख़िर, उसने झुंझला कर जब उसकी चुप्पी के बारे में पूछा तो इतिहास का अध्यापक कहने लगा, “इसमें भला ऐसी कौन-सी बड़ी बात है? एक गधे के दिमाग में यंत्र फिट कर देना… मैं तो जानता हूँ, हज़ारों सालों से आदमी को मशीन बनाया जाता रहा है। आदमी के दिमाग में यंत्र फिट करना कौन-सा कठिन काम है?”
वैज्ञानिक हैरान था कि एक साधारण आदमी इतनी अद्भुत बातें कर रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि हज़ारों सालों से आदमी का दिमाग कैसे मशीन बनाया जाता रहा है। अपने मित्र की हैरानी को देख कर इतिहास का अध्यापक बोला, “आओ मैं तुम्हें एक झलक दिखाता हूँ।"
वे दोनों सड़क पर चलने लगे। अध्यापक ने देखा, एक फौजी अंडों की ट्रे उठाये जा रहा था। उसने उसके पीछे जा कर एकाएक ‘अटेंशन’ कहा। ‘अटेंशन’ शब्द सुनते ही फौजी के दिमाग में भरी हुई मशीन घूम गई जो न जाने कितने ही साल उसके दिमाग में घूमती रही थी। वह भूल गया था कि अब वह फौज में नहीं था, सड़क पर अंडे की ट्रे ले जा रहा था। ‘अटेंशन’ सुनते ही वह अटेंशन की मुद्रा में आ गया। अंडे हाथों से गिर कर टूट गए।
इतिहास का अध्यापक ठंडी सांस भर कर बोला, “यह है आदमी के दिमाग में भरा हुआ अनुशासन का यंत्र ! इसी तरह धर्म का, सियासत का, परंपरा का, सत्ता का रिमोट कंट्रोल हाथ में पकड़ कर आदमी, दूसरे आदमियों को ‘रोबोट’ बना देता है।" उसकी आँखों के सामने ज़ख़्मी इतिहास के पन्ने फड़फड़ा रहे थे।
“तुमने तो एक गधे को नचाया है। क्या तुम मुझे बता सकते हो कि हिटलर के हाथ में कौन-सा रिमोट कंट्रोलर था जिससे उसने एक करोड़ बेगुनाह यहुदियों को मरवा दिया था।"
अब वैज्ञानिक चुप था !

5 टिप्‍पणियां:

हरिराम ने कहा…

विचारोत्तेजक यथार्थपूर्ण लघुकथाएँ। काफी रोचक।

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

पहली बार आई आपके ब्लॉग पर बहुत ही अच्छा एवं सार्थक कार्य कर रहे हैं आप! मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें।

विनीत कुमार ने कहा…

अपने से तो केवल हिन्दी साहित्य और रचनाएं संभल नहीं पाते और आप कई भाषाओं की रचनाएं संकलित कर रहे हैं। सचमुच बड़ी साहसिक काम कर रहे हैं।शुभकामनाएं स्वीकार करें

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

काफी रोचक और विचारोत्तेजक हैं लघुकथाएँ। शुभकामनाएं स्वीकार करें!

सुभाष नीरव ने कहा…

प्रिय हरिराम जी, कंचन जी, विनीत जी और रवीन्द्र जी, मैं आप सबका आभारी हूँ कि आपने अपनी राय से अवगत कराया। आपको "सेतु साहित्य" और इसमें प्रकाशित रचनाएं पसंद आईं, यह भी मेरे लिए प्रसन्नता की बात है। इस प्रकार की टिप्पणियों से न केवल और अच्छा करने का प्रोत्साहन मिलता है, बल्कि आत्मिक बल भी मिलता है। बहुत-बहुत धन्यवाद।