रविवार, 8 मार्च 2009

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता
डा. अमरजीत कौंके पंजाबी की नई कविता पीढ़ी के एक बेहद चर्चित और होनहार कवि हैं। यह जितने पंजाबी में अपनी कविता के लिए मकबूल हैं, उतने ही हिन्दी में भी पसंद किए जाते हैं। पंजाबी-हिन्दी का गहरा ज्ञान रखने वाले कौंके जी एक सफल अनुवादक भी हैं। इन्होंने न केवल अपनी माँ बोली पंजाबी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य का हिन्दी में प्रचुर मात्रा में सफल अनुवाद किया है, बल्कि हिन्दी के अग्रज और वरिष्ठ लेखक, कवियों की श्रेष्ठ रचनाओं का पंजाबी में अनुवाद करके अपनी माँ-बोली की झोली को और अधिक समृद्ध बनाया है। पंजाबी में इनकी छह कविता पुस्तकों के अतिरिक्त हिन्दी में भी तीन कविता पुस्तकें ''मुट्ठी भर रोशनी(1995)'', ''अँधेरे में आवाज़(1997)'' और ''अंतहीन दौड़(2006)'' प्रकाशित हो चुकी हैं। कौंके जी की कविताएं हमारे अपने समय और जीवन के यथार्थ को रेखांकित करती अद्भुत कविताएँ हैं। इनकी हर कविता ने अपनी गहरी संवेदनात्मकता के कारण मुझे इतना प्रभावित किया कि ''सेतु साहित्य'' के लिए कविताओं का चयन करते समय मेरी समझ में नहीं आया कि इनकी कौन सी कविता मैं लूँ और कौन सी छोड़ूँ। लेकिन एक ब्लॉग पत्रिका की अपनी एक सीमा होती है। लिहाजा, सात कविताएँ इनके हिन्दी कविता संग्रह ''अंतहीन दौड़'' जिनका हिन्दी अनुवाद कवि ने स्वयं किया है, से ली गई हैं और दो प्रेमपरक कविताओं का चयन तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग ''आरसी'' से किया गया है। अपनी माँ के निधन पर डा. अमरजीत कौंके ने कुछ कविताएँ पिछले बरस लिखी थीं जिन्हें उन्होंने अपनी त्रैमासिक पत्रिका ''प्रतिमान'' (जुलाई-सितम्बर 2008) में प्रकाशित किया था, उन्हीं में एक कविता ''माँ के नाम का चिराग'' भी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। मुझे उम्मीद है कि ''सेतु साहित्य'' के पाठक डा. अमरजीत कौंके की यहाँ प्रकाशित दस कविताओं को पढ़कर न केवल इनसे एक गहरा जुड़ाव महसूस करेंगे बल्कि अपने भीतर इन कविताओं पर टिप्पणी छोड़ने का दबाव भी अनुभव करेंगे।

-सुभाष नीरव
डा.अमरजीत कौंके की दस कविताएं

1
पता नहीं

पता नहीं
कितनी प्यास थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने समुद्रों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
पानी का एक छोटा-सा
क़तरा बन जाता

पता नहीं
कितनी अग्नि थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने सूरजों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
एक छोटा-सा
जुगनूँ बन जाता

पता नहीं
कितना प्यार था उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी बेपनाह मोहब्बत पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
मेरा सारा प्यार
एक तिनका मात्र रह जाता

पता नहीं
कितनी साँस थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी लम्बी साँसों पर
बहुत गर्व था
उसके पास जाता
तो मेरी साँस टूट जाती

पता नहीं
कितने मरूस्थल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने जलस्रोतों पर
बहुत गर्व था
उसकी देह में
एक छोटे से झरने की भांति
गिरता और सूख जाता

पता नहीं
कितने गहरे पाताल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे बहुत बड़ा तैराक होने का भ्रम था
उसकी आँखों में देखता
तो अंतहीन गहराइयों में
डूब जाता
डूबता ही चला जाता।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
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2
उत्तर आधुनिक आलोचक

जब मैंने
भूख को भूख कहा
प्यार को प्यार कहा
तो उन्हें बुरा लगा

जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को आकाश कहा
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा

परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चाँद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी

तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)

3
खोये हुए रंग
(होली पर विशेष)

जाने अनजाने हमसे
जो रंग अचानक खो गए
हो सके तो
उन रंगों को ढूँढ़ कर लाएँ
आओ इस बार
होली फिर रंगों से मनाएँ।

कुछ रंग
रंगों की खोज में निकले
वापस नहीं लौटे
घर उनकी खबर ही लौटी
कुछ रंग खूनी ऋतुओं ने निगले
कुछ रंग सरहदों पर बिखरे
कुछ रंग खेतों में तड़पते
कुछ रंगों की रूहें
अभी भी सूने घरों में तिलमिलातीं
कुछ रंगों को
अभी भी उनकी माँएँ बुलातीं
ये रंग जितने भी खोए
हमारे अपने थे
इन रंगों के बिना
हमारे आँगन में
मातम है
शोक है
सन्ताप है
इन रंगों के बिना
होली रंगों की नहीं
जख्मों की बरसात है

कोशिश करें
कि कच्चे जख्मों को
फिर हँसने की कला सिखाएँ
हो सके तो
उन रंगों को
ढूँढ़ कर लाएँ
और होली इस बार फिर
रंगों से मनाएँ।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
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4
कलाइडियोस्कोप

उन्होंने कहा
कलाइडियोस्कोप ही तो है-
ज़िन्दगी
थोड़े से
चूड़ियों के टुकड़े डालो
आँख से लगाओ
और घुमाओ

मैं देर तक सोचता रहा
कि रंग-बिरंगे
काँच के टुकड़ों के लिए
मैं कौन-सी
खनखनाती कलाइयों को
सूना करूँ...।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
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5
लालटेन

कंजक कुँआरी कविताओं का
एक कब्रिस्तान है
मेरे सीने के भीतर

कविताएँ
जिनके जिस्म से अभी
संगीत पनपना शुरू हुआ था
और उनके अंग
कपड़ों के नीचे
जवान हो रहे थे
उनके मरमरी चेहरों पर
सुर्ख आभा झिलमिलाने लगी थी

तभी अतीत ने
उन्हें क्रोधित आँखों से देखा
वर्तमान ने
तिरछी नज़रों से घूरा
और भविष्य ने त्योरी चढ़ाई

इन सुलगती हुई निगाहों से डर कर
मैंने उन कविताओं को
अपने मन की धरती में
गहरा दबा डाला
अपनी तरफ से उन्हें
गहरी नींद सुला डाला
और कहा-
कि अभी कविताओं को
प्यार करने का समय नहीं

लेकिन टिकी रात के
ख़ौफनाक अँधेरे में
मेरे भीतर अब भी
उनकी भयानक हँसी गूँजती
दिल दहला देने वाली चीख़ें
विलाप की आवाज़
मेरे मन की दीवारों से
टकरा-टकरा कर लौटती
और पूछती-
कि हमारा गुनाह क्या था ?
आवाज़ पूछती
तो मेरे मन की मिट्टी काँपती
काँपती और तड़पती
और मैं
घर से छिपकर
समाज से छिपकर
पूर्वजों से छिपकर
हाथों में
स्मृतियों की लालटेन पकड़े
सारे कब्रिस्तान की परिक्रमा करता।

और कंजक कुँआरी
कविताओं की कब्रों पर
अपने लहू का
एक-एक चिराग
रोशन करता।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
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6
धीर-धीरे

इसी तरह धीरे-धीरे
ख्वाहिशें ख़त्म होती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
मरता है आदमी

इसी तरह धीरे-धीरे
आँखों से सपने
सपनों से रंग खत्म होते
रंगों से खत्म होती है दुनिया
सफ़ेद कैनवस पर काली चिड़ियाँ
मृत नज़र आती हैं

इसी तरह धीरे-धीरे
इबारतें कविताओं में सिमटतीं
कविताएँ पँक्तियों में सिकुड़तीं
पँक्तियाँ शब्दों में लुप्त होतीं
और शब्द शून्य में खो जाते

इसी तरह धीरे-धीरे
इन्तज़ार करते
आँखों में इन्तज़ार खत्म होता
तड़पते-तड़पते
होठों का लरजना भूल जाता
छुअन को ललकते
पोरों से कम्पन गायब हो जाता

इसी तरह धीरे-धीरे
घर इन्सान को खा जाते
दीवारें उसकी मजबूरी बन जातीं
रिश्ते जो उसके पाँव की बेडियाँ होते
आदमी उन्हें
पाजेब बना कर थिरकने लगता है

इसी तरह धीरे-धीरे
व्यवस्था के खिलाफ़ जूझता आदमी
व्यवस्था का अहम् हिस्सा बन जाता
रंगों की दुनिया में
मटमैला-सा रंग बन जाता
और कैनवस से एक दिन लुप्त हो जाता

इसी तरह धीरे-धीरे
सोचते-सोचते
आदमी जड़ हो जाता है एक दिन
पता ही नहीं चलता
कब कोई
उसके हाथों से कलम
कोई कागज़
छीन कर ले जाता

इसी तरह धीरे-धीरे
एक कवि
कवि से कोल्हू का बैल बन जाता
और आँखों पर पट्टी बाँध कर
मुर्दा ज़िन्दगी की
परिक्रमा करने लगता।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
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7
बहुत दूर

बहुत दूर
छोड़ आया हूँ मैं
वो खाँस-खाँस कर
जर्जर हुए ज़िस्म
भट्टियों की अग्नि में
लोहे के साथ ढलते शरीर
फैक्ट्रियों की घुटन में कैद
बेबसी के पुतले
मैं
बहुत दूर छोड़ आया हूँ

दूर छोड़ आया हूँ
वह पसीने की बदबू
एक-एक निवाले के लिए
लड़ा जाता युद्ध
छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए
जिबह होते अरमान
दिल में छिपी कितनी आशाएँ
होठों में दबा कितना दर्द
मैं
कितनी दूर छोड़ आया हूँ

दूर छोड़ आया हूँ
मैं वह युद्ध का मैदान
जहाँ हम सब लड़ रहे थे
रोटी की लड़ाई
अपने-अपने मोर्चों में

पर मुझे मुट्ठी भर
अनाज क्या मिला
कि मैं सबको
मोर्चों पर लड़ता छोड़ कर
दूर भाग आया हूँ

वे सब अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं
अंतहीन लड़ाई
उदास
निराश
फैक्ट्रियों में
तिल-तिल मरते
सीलन भरे अँधेरों में गर्क होते
मालिक की
गन्दी गालियों से डरते
थोड़े से पैसों से
अपना बसर करते
पल पल मरते

वे सब
अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं

मैं ही
बहुत दूर
भाग आया हूँ।
(हिंदी रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा)
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माँ के नाम का चिराग़

घर को कभी न छोड़ने वाली माँ
उन लम्बे रास्तों पर निकल गई
जहाँ से कभी कोई लौट कर नहीं आता

उसके जाने के सिवा
सब कुछ उसी तरह है

शहर में उसी तरह
भागे जा रहे हैं लोग
काम-धंधों में उलझे
चलते कारखाने
काली सड़कों पर बेचैन भीड़
सब कुछ उसी तरह है।

उसी तरह
उतरी है शहर पर शाम
ढल गई है रात
जगमगा रहा है शहर सारा
रौशनियों से

सिर्फ़ एक माँ के नाम का
चिराग़ है बुझा...।
(हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)
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9
करामात

मैं अपनी प्यास में
डूबा रेगिस्तान था।

मुद्दत से मैं
अपनी तपिश में तपता
अपनी अग्नि में जलता
अपनी काया में सुलगता

भुला बैठा था मैं
छांव
प्यास
नीर...

भूल गए थे मुझे
ये सारे शब्द
शब्दों के सारे मायने
मेरे कण-कण में
अपनी वीरानगी
अपनी तपिश
अपनी उदासी में
बहलना सीख लिया था

पर तेरी हथेलियों में से
प्यार की
कुछ बूँदें क्या गिरीं
कि मेरे कण-कण में
फिर से प्यास जाग उठी

जीने की प्यास
अपने अन्दर से
कुछ उगाने की प्यास

तुम्हारे प्यार की
कुछ बूँदों ने
यह क्या करामात कर दी
कि एक मरुस्थल में भी
जीने की ख्वाहिश भर दी।
(हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)

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फूल खिलेगा

तूने एक रिश्ते पर
कितनी आसानी से
मिट्टी डाल दी
तेरे साथ वालों ने
मिट्टी फेंक-फेंक कर
इक रिश्ते की कब्र बना दी

शायद तुझे भ्रम है
कि रिश्ते यूँ खत्म हो जाते
लेकिन
बरसों बाद
सदियों बाद
जन्मों बाद
इस कब्र में से
फिर इस रिश्ते की
सुर्ख कोंपल फूटेगी

फिर इस कब्र में से
प्यार का महकता फूल खिलेगा।
(हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)
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जन्म : 27 अगस्त 1964
शिक्षा : एम.ए.(पंजाबी), पीएच.डी ।
प्रकाशन : हिन्दी में ''मुट्ठी भर रोशनी(1995)'', ''अँधेरे में आवाज़(1997) और ''अंतहीन दौड़(2006)'' काव्य संग्रह।

पंजाबी में ''दायरियाँ दी कब्र चों(1985)'', ''निर्वाण दी तलाश विच(1987)'', ''द्वन्द्व कथा(1990)'', ''यकीन(1993)'', ''शब्द रहणगे कोल(1996)'' तथा ''स्मृतियों की लालटेन( 2002, 2004)'' काव्य संग्रह।

अनुवाद : हिन्दी के दिग्गज लेखकों- डा. केदार नाथ सिंह की ''अकाल में सारस'', श्री नरेश मेहता की ''अरुण्या'', अरुण कमल की ''नये इलाके में'', मिथिलेश्वर की ''उस रात की बात'', मधुरेश की ''देवकी नंदन खत्री'', हिमांशु जोशी की ''छाया मत छूना मन'', बलभद्र ठाकुर की ''राधा और राजन'' पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद। पंजाबी कवि रविंदर रवी, परमिंदर सोढ़ी, डा. रविंदर, सुखविंदर कम्बोज की पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद।

संपादन : त्रैमासिक पंजाबी पत्रिका ''प्रतिमान'' का निरंतर संपादन।

सम्मान एवं पुरस्कार : भाषा विभाग, पंजाब से हिन्दी पुस्तक ''मुट्ठी भर रोशनी'' के लिए 1995 का सर्वोत्तम हिन्दी पुस्तक पुरस्कार। गुरू नानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर से पुस्तक ''शब्द रहणगे कोल'' के लिए वर्ष 1998 में मोहन सिंह माहिर पुरस्कार। समूचे काव्य लेखन के लिए इयापा(I.A.A.P.A.), कैनाडा सम्मान से सम्मानित।

अन्य : भारत की अनेक भाषाओं में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित।

सम्प्रति : लेक्चरार ।

सम्पर्क : 718, रणजीत नगर- ए, भड़सों रोड, पटियाला-147 001(पंजाब)
दूरभाष : 0175-5006463, 098142 31698(मोबाइल)

ई मेल : amarjeetkaunke@yahoo.co.in