शनिवार, 24 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य

छ: पंजाबी कविताएं/कमल
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव


तलाश

मुझे वो शहर पता नहीं
किस दिन मिलेगा?

वो शहर
जो दूर क्षितिज से पार बसता है
जहाँ गहरे नीले पानी की झील में
सपनों के हंस तैरते हैं
जहाँ ज़िंदगी
गुलाब की तरह महकती है
जहाँ दरिया
कभी न खत्म होने का
गीत गाता है...

मैं बड़े जन्मों से
इस शहर की तलाश में हूँ

इसको खोजते-खोजते
ज़िंदगी उस सपने की तरह हो गई है
जिसके अन्दर बस
चलते ही जाते हैं
पहुँचते कहीं भी नहीं।



सफ़र

अकेले
लम्बा सफ़र तय करते
थक कर चूर हो चुका है
मेरा एक पैर

जहाँ से दो पैरों से चली थी
वापस उसी जगह पर
एक पैर से नहीं पहुँचा जा सकता

और एक पैर से
किसी सूरत भी नाचा नहीं जा सकता
न घुंघुरू बांध कर
न जंजीर पहन कर।


मुहब्बत का ख़्वाब

मेरी मुहब्बत का ख़्वाब
चमेली का बूटा
जिसके नीचे
हकीकत का
'काला नाग' रहता है ।

फासला

मेरे घर से
तेरे घर तक
दो कदमों का नहीं फासला
पर
मेरे दिल से
तेरे दिल तक
पूरा एक मरुस्थल है।


डर

प्रेतों के वहम के कारण
डर कर
पीछे मुड़ कर नहीं देखा

यकीन नहीं था
कि सुनसान जंगल में
पीछे से आवाज़
तूने दी थी।


इंतज़ार

बड़ी देर से मौसम
एक ही हालत में ठहरा हुआ है
न यह बहार बनता है
न पतझर
काश! यह मौसम मेरे मन के
मौसम के बराबर हो सके

एक मुद्दत से माहौल में
बड़ा शोर मचा हुआ है
न यह चुप में बदलता है
और न ही संगीत बनता है
काश! अगर कभी यह सरगम बन सके
सुरताल में बंध सके

बरसों से यह
पत्थर का बुत बना हुआ है
काश! रब्ब बन जाए
कि मैं उसे पूज सकूँ
या फिर जीता-जागता
इन्सान बन जाए
मैं उसके संग बातें कर सकूँ।

कमल
9, फतेहगढ़ चूड़ियां रोड
अमृतसर (पंजाब)
ई-मेल kimim@rediffmail.com
gillkam@yahoo.com
दूरभाष : 09815433166

शनिवार, 17 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य

दो रूसी लघुकथाएं


दाता और दाता
इवान तुर्गनेव

मैं सड़क के किनारे-किनारे जा रहा था कि एक बूढ़े मुझे टोका। लाल सुर्ख और आंसुओं में डूबी आँखें, नीले होंठ, गंदे हाथ और सड़ते हुए घाव... 'ओह! गरीबी ने कितने भयानक रूप से इसे खा डाला है।'

उसने अपना सूजा हुआ गंदा हाथ मेरे सामने फैला दिया।

एक-एक कर मैंने अपनी सारी जेबें टटोलीं, लेकिन मुझे न तो अपना बटुआ मिला और न ही घड़ी हाथ लगी, यहाँ तक कि रूमाल भी नदारद था। मैं अपने साथ कुछ भी नहीं लाया था और भिखारी का फैला हुआ हाथ इंतजार करते हुए बुरी तरह कांप रहा था।

लज्जित होकर मैंने उसका वह गंदा, कांपता हुआ हाथ पकड़ लिया, "नाराज मत होना मेरे दोस्त, इस समय मेरे पास कुछ भी नहीं है।"

भिखारी अपनी सुर्ख आँखों से मेरी ओर देखता रह गया। उसके नीले होंठ मुस्करा उठे और उसने मेरी ठंडी उंगलियाँ थाम लीं, "तो क्या हुआ भाई।" वह धीरे से बोला, "इसके लिए शुक्रिया, यह भी तो मुझे कुछ मिला ही है न !"
और मुझे लगा, मानो मैंने भी अपने उस भाई से कुछ पा लिया है।

कमजोर
एंतोव चेखव
अपने बच्चों की अध्यापिका यूलिमा वार्सीलियेब्ना का आज मैं हिसाब चुकता करना चाहता था।

"बैठ जाओ यूलिया वार्सीलियेब्ना।" मैंने उससे कहा, "तुम्हारा हिसाब चुकता कर दिया जाए। हाँ, तो फैसला हुआ कि तुम्हें महीने के तीस रूबल मिलेंगे, है न?"
"नहीं, चालीस।"
"नहीं, तीस। तुम हमारे यहाँ दो महीने रही हो।"
"दो महीने और पाँच दिन।"
"पूरे दो महीने। इन दो महीनों के नौ इतवार निकाल दो। इतवार के लिए तुम कोल्या को सिर्फ़ सैर कराने के लिए ही लेकर जाती थी। और फिर तीन छुट्टियाँ... नौ और तीन, बारह। तो बारह रूबल कम हुए। कोल्या चार दिन बीमार रहा, उन दिनों तुमने उसे नहीं पढ़ाया। सिर्फ़ वान्या को ही पढ़ाया, और फिर तीन दिन तुम्हारे दांत में दर्द रहा। उस समय मेरी पत्नी ने तुम्हें छुट्टी दे दी थी। बारह और सात, हुए उन्नीस। इन्हें निकाला जाए तो बाकी रहे... हाँ, इकतालीस रूबल, ठीक है?”

यूलिया की आँखों में आँसू भर आए।

"और नए साल के दिन तुमने एक कप-प्लेट तोड़ डाला। दो रूबल इनके घटाओ। तुम्हारी लापरवाही से कोल्या ने पेड़ पर चढ़कर अपना कोट फाड़ डाला था। दस रूबल उसके और फिर तुम्हारी लापरवाही के कारण ही नौकरानी वान्या के बूट लेकर भाग गयी। सो, पाँच रूबल उसके कम हुए... दस जनवरी को दस रूबल तुमने उधार लिए थे। इकतालीस में से सत्ताइस निकालो। बाकी रह गए- चौदह।"

यूलिया की आँखों में आँसू उमड़ आए, "मैंने एक बार आपकी पत्नी से तीन रूबल लिए थे।"

"अच्छा, यह तो मैंने लिखा ही नहीं। चौदह में से तीन निकालो, अब बचे ग्यारह। सो, यह रही तुम्हारी तनख्वाह ! तीन, तीन, तीन.... एक और एक।"

"धन्यवाद !" उसने बहुत ही हौले से कहा।
"तुमने धन्यवाद क्यों कहा?"
"पैसों के लिए।"
"लानत है ! क्या तुम देखती नहीं कि मैंने तुम्हें धोखा दिया है? मैंने तुम्हारे पैसे मार लिए हैं और तुम इस पर मुझे धन्यवाद कहती हो ! अरे, मैं तो तुम्हें परख रहा था... मैं तुम्हें अस्सी रूबल ही दूँगा। यह रही पूरी रकम।"

वह धन्यवाद कहकर चली गयी। मैं उसे देखता हुआ सोचने लगा कि दुनिया में ताकतवर बनना कितना आसान है!

(अशोक भाटिया द्वारा संपादित "विश्व साहित्य से लघुकथाएं" पुस्तक से साभार)

रविवार, 11 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य


रूसी लघुकथाएं


बोझ
लियो तोल्स्तोय

कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागा हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था।

किसान ने उससे कहा, "मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आए तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे।"

"दुश्मन मेरा क्या करेगा?" घोड़ा बोला।

"वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा।"
"तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?" घोड़े ने कहा, "मुझे क्या फ़र्क पड़ता है कि मैं किसका बोझ उठाता हूँ।"



देहाती की बुद्धि
लियो तोल्स्तोय

एक शहर के चौराहे पर एक विशाल शिला पड़ी थी। यह शिला इतनी बड़ी थी कि यातायात में बाधा पहुँचाती थी। उस शिला को हटाने के लिए इंजीनियरों को बुला कर पूछा गया कि शिला को कैसे हटाएं और इसको हटाने में कितना खर्च आएगा?

एक इंजीनियर ने कहा कि इस शिला के टुकड़े करने पड़ेंगे और उन टुकड़ों को गाड़ी अथवा ठेले में ले जाना पड़ेगा। इससे लगभग आठ हजार रुपये का खर्च होगा।

दूसरे इंजीनियर ने सलाह दी कि शिला के नीचे एक बड़े मजबूत ठेले का फट्टा लगाया जाए और लुढ़का कर शिला को उस पर रखकर ले जाया जाए। इसमें लगभग छह हजार रुपये का खर्च आएगा।

वहां पर एक देहाती भी था, जो उन लोगों की बातें सुन रहा था। सुनकर वह बोला, "मैं इस शिला के पास एक बहुत बड़ा गड्ढ़ा खुदवाऊँगा। उस बड़े गड्ढ़े में इस शिला को लुढ़कवा दूँगा। ऊपर से खोदी हुई मिट्टी से समतल कर दूँगा।"

अधिकारियों को उसकी योजना पसंद आयी और उन्होंने उसको स्वीकृति दे दी। देहाती ने वैसा ही किया। उसे सौ रुपये दिए गए, ऊपर से सौ रुपये इनाम के भी!
(अशोक भाटिया द्वारा संपादित "विश्व साहित्य से लघुकथाएं" पुस्तक से साभार)

शनिवार, 3 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य



"सेतु-साहित्य"
के सभी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं !


दो मलयाली लघुकथाएं
हकीक़त
सी.वी. बालकृष्णन

सीढ़ियाँ उतरती हुई वह नीचे कमरे में आई। आवाज़ सुनते ही वह सोफे पर उठ बैठा। कमरा एक अनोखी खुशबू से महक उठा। अतीव आश्चर्य के साथ उसने पत्नी की ओर देखा।
'इतनी सुन्दर श्रीमती के साथ जीते इतने साल बीत गये! पहनी हुई यह रेश्मी साड़ी मैंने ही शादी के दिन इसे 'प्रेजे़न्ट' की थी।' वह उसे देखता ही रह गया।
पत्नी एक मुस्कराहट के साथ उसके करीब आ बैठी।
"आप मुझे ऐसे क्या देख रहे हैं, जैसे पहले कभी न देखा हो।"
"नहीं तो।" उसके मुँह से बस इतना भर निकला।
"सोफे पर बैठे-बैठे ही सोने का इरादा है क्या?" पत्नी दुबारा मुस्करायी।
"नहीं तो...।" उसने फिर वही शब्द दोहराये।
"अभी सो जाने का वक्त नहीं हुआ है। मैं आपके लिए पान लगा लाऊँ?"
पत्नी की बातें सुन कर उसे बहुत ही खुशी हुई। श्रीमती पान का डिब्बा ले आई, समीप बैठी और पान बनाने लगी। चाँदी का डिब्बा था। पान बनाते वक्त उसने देखा कि श्रीमती की उँगलियाँ बहुत ही सुन्दर थीं। उसने श्रीमती से कहा, "बहुत दिन बाद इतने प्यार से पान लगा रही हो।"
श्रीमती चुप रही। मुस्कराती रही। फिर बोली, "आगे से मैं आपको हमेशा इसी तरह पान खिलाती रहूँगी।"
वह और भी खुश हुआ। मन में श्रीमती के प्रति प्रेम बढ़ा। उसने प्यार से पत्नी के बालों में हाथ फेरा। श्रीमती ने पान का बीड़ा देने के लिए हाथ उसकी ओर बढ़ाया। उसने लेने से इन्कार किया।
प्यार से पत्नी ने अपने हाथों से उसके मुँह में पान रखा। वह पान चबाने लगा। पान की सुगन्धित और स्वाद-भरी पीक से उसका मुँह भर गया।
"आप यहाँ क्या कर रहे हैं? नींद आ रही है तो बैडरूम में जाकर नहीं सो सकते?" अचानक श्रीमती की दोपहर के सूरज-सी तीखी आवाज़ सुनते ही वह चौंक कर उठ बैठा।
पत्नी ने तीखी नज़रों से उसकी ओर ताका।
"मैं एक बहुत ही सुन्दर सपना देख रहा था।" वह धीरे से बोला। श्रीमती बिना कुछ बोले मुँह बिचका कर रसोई की ओर चल दी। जैसे ही, वह रसोई-घर तक पहुँची, उसने पीछे से आवाज़ दी, "सपना सुनोगी?"
"अपना पागलपन अपने पास रखो।" श्रीमती ने पलट कर जवाब दिया और रसोई में घुस गई।

धन्धा
अबुल्लिस ओलिप्पुड़ा

कमलाक्षी कल रात को मिले पैसे गिन रही थी। तभी उसने देखा कि आँगन में दो युवक खड़े हैं। एक के हाथ में एक कैमरा भी है।
एक ने कहा, "हम पत्रकार हैं। आप जैसे लोगों के बारे में हम एक फीचर तैयार कर रहे हैं। अगर आपको एतराज़ न हो तो आपकी फोटो चाहिए... और कुछ जानकारी भी दे सकें तो अच्छा रहेगा।"
कमलाक्षी मुस्कराई। उसने युवकों की बात मान ली और आवश्यक सभी जानकारी उन्हें दी। दोनों संतुष्ट होकर वापस चले गए।
उसी दिन, रात में उन युवकों में से एक फिर कमलाक्षी की कुटीर के सामने दिखाई पड़ा।
कमलाक्षी ने पूछा, "अब क्या जानना बाकी है?"
युवक ने जवाब दिए बग़ैर पचास का नोट निकाल कर कमलाक्षी की ओर बढ़ाया। फिर, कमलाक्षी की कमर पकड़ कर अन्दर घुस गया।
तब कमलाक्षी ने कहा, "आपने सुबह पूछा था न, कि हम लोग यह धन्धा बन्द क्यों नहीं करतीं?… बाबू जी, आप जैसे लोग जब तक इस दुनिया में हैं, हम यह धन्धा बन्द नहीं कर सकतीं।"
(बलराम अग्रवाल द्वारा संपादित पुस्तक "मलयालम की चर्चित लघुकथाएं" से साभार)