शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता

डा. मनमोहन की तीन कविताएं
मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव

(1)दृश्य दर्शन
('हिंदुस्तान टाइम्ज' में फसल काटती स्त्रियों की तस्वीर देखकर )

गेहूं पकने और काटने के दिन
होते हैं दबी इच्छाओं के
पूरे होने के दिन।

दरांतियों-बालियों की रगड़ की लय पर
अकस्मात् मचल पड़ते हैं अधरों पर गीत
दबे-छिपे होते हैं नये प्रेम इनमें
पुराना प्यार जाग पड़ता है चीस बनकर।

अपने हिस्से के टुकड़े को
खत्म करने की जल्दी में
भूल जाती हैं गेहूं काटती स्त्रियाँ
छोड़कर चले गए लोगों की कसक
और आने वालों की प्रतीक्षा
क्योंकि गेहूं काटने के दिन
नये शब्द और नये अर्थ
ईजाद करने होते हैं
नये विचारों को लेना होता है आकार
नई उम्मीदों को होना होता है साकार
इन्हीं दिनों में ही।

ईश्वर भी ले रहा होता है परीक्षा धैर्य की
बावजूद देह जलाती, कंठ सुखाती धूप के
इससे बढ़िया नहीं होती कोई रुत्त
क्योंकि दुखों ने सुखों में बदलना होता है
आस ने बदलना होता है सच्चाई में
तभी तो
छातियों में दूध छलकता महसूस करती हैं
गेहूं काटती स्त्रियाँ।

गेहूं काटने के दिनों में
नये शब्दों और अर्थों का सृजन
दरांतियों-बालियों की रगड़
छातियों के छलकने के दृश्य द्वारा
सृजित किया जा रहा होता है
'रिज़क' का दर्शन
इसी दर्शन के सहारे
चलना होता है
जीवन-व्यवहार साल भर।

गेहूं कटने और पकने के दिन
रहते हैं याद लम्बे समय तक
अगले बरस की आमद तक।
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(2) फोकस

कुछ भी अपनी जगह पर नहीं
धरती खिसक गई अपनी धुरी से
किनारों से समंदर छलक गया
आकाश उठ गया क्षितिज पर
पहाड़ झुक गया एक ओर
नदी जम गई ग्लेशियर बन।

किसी दिन सबसे तंग होकर
वक्त ने भी रुक जाना है
शीशे से गायब हो जाना है बिम्ब को
दरख्तों ने छोड़ देनी है अपनी छांव
पानी ने भुला देनी है ठंडक
फूल हो जाएंगे महक विहीन
फलों में भर आएगी कड़वाहट
ओस उड़ जाएगी वाष्प बन
रंग हो जाएंगे बेरंग।

सिर्फ़ रह जाएगी
कांटों के पास चुभन
अग्नि के पास तपिश
मरुस्थल के पास विरानी
बंजरों के पास ऊसरता
सूरज के पास अग्नि
पत्थरों के पास कठोरता
सड़कों के पास भटकन
रातों के पास आवारगी।

सब कुछ हिल जाएगा अपनी जगह से
या कई टिके रहेंगे
जड़ होकर अपनी जगह पर
बनी रहेगी वही स्थिति।

वैसे ही
जब देखा था तुझे पहली बार
मेरे अन्दर कुछ हिला था
जो अभी तक अपनी जगह नहीं आ सका
वर्षों बाद भी
यद्यपि मैं दिखाई देता हूँ
स्थिर बाहर से बहुत...।
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(3) प्रतिबिम्ब

अन्दर ही होता है कुछ
जो झलकता है हाव-भाव में
हर कल्पना में
जैसे पहाड़ की बगल से सोता
फूटकर
धारा बनकर बहने लगता है
धारा अन्त में
बदल जाती है दरिया में
जो समंदर से मिलकर कहता है-
बहुत दिन हुए तुमसे बिछड़े
मेरी सतह को गहराई नवाज़
मेरी लघुता को विस्तार दे
मैं तेरा ही रूप हूँ
जो वाष्प बनकर आसमान में उड़ा
कभी अथाह पतालों में
ज़मीनदोज़
चलता रहा अनजान राहों पर।

अब मैं न पहाड़ हूँ
न सोता, न ही दरिया
मेरे हर हाव-भाव में
मेरी कल्पना में
समंदर के सिवा
नहीं झलकता कुछ भी...।
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डा. मनमोहन पंजाबी की समकालीन कविता में बहुत जाना-माना नाम हैं। 'सुर संकेत', 'नमित', 'अथ', नीलकंठ' और 'अगले चौराहे तक' इनके चर्चित कविता संग्रह हैं। एक कविता संग्रह 'मेरे में चाँदनी' हिंदी में भी प्रकाशित। डा. मनमोहन ने कई आलोचनात्मक पुस्तकें भी पंजाबी साहित्य की झोली में डाली हैं जिनमें 'विचार, चिंतन ते विहार' एक प्रमुख किताब है। 'दशम ग्रंथ विच मिथ रूपान्तरण' एक खोज पुस्तक है।
सम्पर्क : जी-208, प्लॉट नं. 2, विवेकानन्द हाउसिंग सोसाइटी, सेक्टर-5, द्वारका, दिल्ली-110075
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