शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता


तू मिलना ज़रूर…
सुरजीत

हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव

तू बेशक
कड़कती धूप बनकर मिलना
या गुनगुनी दोपहर की गरमाहट बन
घोर अंधेरी रात बनकर मिलना
या सफ़ेद-दुधिया चाँदनी का आँगन बन

मैं तुझे पहचान लूँगी
खिड़की के शीशे पर पड़तीं
रिमझिम बूँदों की टप-टप में से
दावानल में जलते गिरते
दरख़्तों की कड़-कड़ में से

मलय पर्वत से आतीं
सुहानी हवाओं की
सुगंधियों में मिलना
या हिमालय पर्वत की
नदियों के किनारे मिलना

धरती की कोख में पड़े
किसी बीज में मिलना
या किसी बच्चे के गले में लटकते
ताबीज़ में मिलना
लहलहाती फ़सलों की मस्ती में
या गरीबों की बस्ती में मिलना
पतझड़ के मौसम में
किसी चरवाहे की नज़र में उठते
उबाल में मिलना
या धरती पर गिरे सूखे पत्तों के
उछाल में मिलना

मैं तुझे पहचान लूँगी…
किसी भिक्क्षु की चाल में से
किसी नर्तकी के नृत्य की लय में से
किसी वीणा के संगीत में से
किसी हुजूम के शोर में से।

तू मिलना बेशक
किसी अभिलाषी की आँख का आँसू बन
किसी साधक के ध्यान का चक्षु बन
किसी मठ के गुम्बद की गूँज बन
या रास्ता खोजता सारस बन
तू मिलना ज़रूर
मैं तुझे पहचान लूँगी।
00
पंजाबी की चर्चित कवयित्री।
प्रकाशित कविता संग्रह –‘शिरकत रंग’
वर्तमान निवास : टोरोंटो (कनैडा)
संप्रति : टीचिंग।
ब्लॉग – सुरजीत (http://surjitkaur.blogspot.com)
ई मेल : surjit.sound@gmail.com


सोमवार, 1 नवंबर 2010

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

बदला
डा. श्यामसुंदर दीप्ति
हिंदी अनुवाद : स्वयं लेखक द्वारा

“देख ! तू हर बात पर जिद मत किया कर। जो काम करने का होता है, वह तू करती नहीं।” उमा ने रचना को झिड़कते हुए कहा।
“करती तो हूँ सारा काम। सब्जी बनाने के लिए टमाटर नहीं लाके दिए थे ! आपके साथ कपड़े भी तो धुलवाये थे।” रचना ने मम्मी को दलील दी।
“यही काम तो नहीं करने होते। पढ़ भी लिया कर।” उमा को और गुस्सा आ गया।
“कर तो लिया स्कूल का काम।” रचना ने अपना स्पष्टीकरण दिया।
“अच्छा ! ज्यादा बातें मत कर और एक तरफ़ होकर बैठ।” रचना सिलाई-मशीन के कपड़े को पकड़ने लगी। उमा को गुस्सा आ गया और उसने थप्पड़ जमा दिया।
“अब अगर जो हाथ आ जाता मशीन में !”
रचना रोने लगी।
“अब रोना आ गया, चुप कर, नहीं तो और लगेगी एक। अच्छी बातें नहीं सीखनी, कोई कहना नहीं मानना।”
थोड़ी देर में दरवाजा खटका। उमा ने रचना से कहा, “अच्छा ! जाकर देख, कौन है बाहर?”
पहले तो वह बैठी रही और गुस्से से मम्मी की तरफ़ देखती रही, पर फिर दुबारा कहने पर उठी और दरवाजा खोला। रचना के पापा का कोई दोस्त था।
रचना दरवाजा खोलकर लौट आई।
“कौन था ?” रमा ने पूछा।
“अंकल थे।” रचना ने रूखा-सा जवाब दिया और साथ ही बोली, “मैंने अंकल को नमस्ते भी नहीं की।”

(उक्त लघुकथा किताब घर, नई दिल्ली से प्रकाशित सुकेश साहनी एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ द्बारा संपादित पुस्तक “बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ” से साभार ली गई है)

लेखक संपर्क :
97, गुरू नानक एवेन्यू,
मजीठा रोड
अमृतसर- 143004
दूरभाष: 098158-08506

रविवार, 22 अगस्त 2010

अनूदित साहित्य


रूसी कविता

इवान बूनिन की दो कविताएँ
मूल रूसी से हिंदी अनुवाद : अनिल जनविजय

शब्द

मौन हैं समाधियाँ और कब्रें
चुप हैं शव और अस्थियाँ
सिर्फ़ जीवित हैं शब्द झबरे

अँधेरे में डूबे हैं महीन
यह दुनिया कब्रिस्तान है
सिर्फ़ शिलालेख बोलते हैं प्राचीन

शब्द के अलावा खास
और कोई सम्पदा नहीं है
हमारे पास

इसलिए सम्भाल कर रखो इन्हें
अपनी पूरी ताकत भर
इन द्वेषपूर्ण दु:ख-भरे दिनों में

देना न इन्हें कहीं तुम फेंक
बोलने की यह ताकत ही
हमारी अमर उपलब्धि है एक।
0
डर

पक्षियों के पास होता है घोंसला
जानवरों के पास कोई मांद
कितना दु:ख हुआ था उस दिन मुझे
जब निकल आया मैं बाहर
पिता के घर की दीवारें फांद

कहा- विदा, विदा
मैंने बचपन के घर को

जानवरों के पास होती है मांद
पक्षियों के पास कोई घोसला
धड़का दिल मेरा उदासी के साथ
घुसा जब अजनबी किराये के घर में
पुराना एक झोला था पास
और मन में हौसला…

सलीब बना छाती पे मैंने दूर किया
जीवन के हर डर को !

१० अक्तूबर १८७० को रूस के वोरोनेझ नगर में जन्म। १५ वर्ष की उम्र में ही कविता लिखने लगे। १८९६ में हेनरी लाँगफेलो की कविताओं का बूनिन द्वारा किए गए अनुवाद ने उन्हें साहित्य में स्थापित कर दिया। १८९७ में ‘दुनिया के कगार पर’ पहला कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ। १९०१ में कविता-संग्रह ‘पतझड़’ प्रकाशित हुआ। ‘पतझड़’ कविता-संग्रह पर रूस की विज्ञान अकादमी द्वारा पूश्किन पुरस्कार मिला। १९३३ में बूनिन नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए। ७ व ८ नवंबर १९५३ की मध्यरात्रि को निधन।




अनुवादक संपर्क :
अनिल जनविजय
मास्को विश्वविद्यालय, मास्को
ई मेल : aniljanvijay@gmail.com

रविवार, 27 जून 2010

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

सोच
धर्मपाल साहिल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

मैं अपना चैकअप करवाने के लिए मैटरनिटी होम गई तो कई महीनों के बाद अचानक वहाँ अपनी कुआँरी सहेली मीना को जच्चा-बच्चा वार्ड में दाख़िल पाकर मैंने हैरान होकर पूछा- “मीना तू यहाँ ? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई थी तेरे साथ?”
“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। बस, मैंने खुद ही अपनी कोख किराये पर दे दी थी।” उसने ज़र्द चेहरे पर मुस्कराहट लाकर कहा।
“यह भला क्यों किया तूने ?” मैंने हैरानी में पूछा।
“तुझे तो मालूम ही है कि मेरा एक सपना था कि मेरी आलीशान कोठी हो, अपनी कार हो और ऐशो-आराम की हर चीज़ हो।”
“फिर यह सब कैसे किया ?”
“मैंने अख़बार में इश्तहार पढ़ा। पार्टी से मुलाकात की। एग्रीमेंट हुआ। नौ महीने के लिए कोख का किराया एक लाख रुपये प्रति महीने के हिसाब से। बच्चा होने तक मेरी सेहत और निगरानी का खर्चा भी उन्हीं का।”
“इसलिए तू ग़ैर मर्द के साथ…”
“नहीं-नहीं, डॉक्टरों ने फर्टीलाइज्ड ऐग आपरेशन करके मेरी कोख में रख दिया। समय-समय पर चैकअप करवाते रहे। आज ही पूरी पेमेंट देकर बच्चा ले गए हैं।”
“न, अपनी कोख से जन्में बच्चे के लिए तेरी ममता ज़रा भी नहीं मचली। तुझे ज़रा भी दु:ख नहीं हुआ ?”
पर मीना ने मेरी बात हँसी में उड़ाते हुए कहा, “.बस इतना भर दु:ख हुआ, जितना एक किरायेदार द्वारा मकान छोड़ कर चले जाने पर होता है।”
0

जन्म : 9 अगस्त 1958
शिक्षा : एम. एस. सी., एम. एड.
प्रकाशित पुस्तकें : अक्क दे बीं(लघुकथा संग्रह), नींह दे पत्थर (कहानी संग्रह), किन्नौर तों कारगिल (सफ़रनामा), धीयां मरजाणियां (उपन्यास)- सभी पंजाबी में।

संप्रति : डिस्ट्रिक्ट ऐजुसैट कोर्डिनेटर, पंजाब शिक्षा विभाग, होशियारपुर (पंजाब)
पता : पंचवटी, एकता एन्कलेव, लेन नंबर- 2, पोस्ट ऑफिस- साधु आश्रम, होशियारपुर (पंजाब)
ई मेल : vidha_talwara@yahoo.com
फोन : 018882-228936(घर), 09876156964(मोबाइल)

शनिवार, 29 मई 2010

अनूदित साहित्य



बंगला लघु-कहानी

मुर्गा
दुर्गादास चट्टोपाध्याय

बंगला से अनुवाद : श्याम सुंदर चौधरी


हर दो-तीन साल बाद निवास बदलते रहना जैसे बानेश्वर की नियति बन चुकी थी। पहले सोदपुर, फिर नयी नवेली पत्नी को लेकर डनलप ब्रिज पर। तीन साल वहाँ रहने के बाद बेलूर आना पड़ा। वैसे यहाँ आकर कोई परेशानी नहीं हुई, वरन लाभ ही रहा। यहाँ से उसकी कार्यस्थली लिलुआ काफी करीब है। कारखाने की छुट्टी होने पर वह शाम को पत्नी और बच्चे को लेकर गंगा किनारे खुली हवा में कुछ समय गुजारने चला जाता, लेकिन मियाद खत्म होने पर उस मकान को छोड़कर फिर दूसरे आश्रय की खोज में निकल पड़ा।
अब वह दक्षिण कोलकाता के चेतला बाज़ार के पास वाली एक बस्ती में रहने लगा। वैसे यह कमरा अब तक की तुलना में काफ़ी अच्छा था। यहाँ छत से पानी टपकने की शिकायत नहीं थी। दो खिड़कियाँ भी थीं। दस सालों के भीतर उसे उत्तरी कोलकाता से दक्षिणी कोलकाता तक के (वाया हावड़ा) वास्तविक जीवन से भलीभांति परिचित होने का मौका मिला। घर बदलना उसके लिए काफ़ी कुछ पिंजड़ा बदलने जैसा हो रहा है। इसी कारण, वह किसी के भी साथ अधिक घनिष्ठ संबंध नहीं बनाता, न ही किसी से लड़ाई-झगड़ा करता। हर तरह समझौता कर लेना ही उसके जीवन की सबसे अहम् शर्त बन चुकी है। प्रतिवाद जैसा शब्द उसने सुना ज़रूर है, लेकिन कभी इसे व्यवहार में लाने की कोशिश नहीं की।
चेतला से उसका कार्यस्थल लिलुआ काफ़ी दूर है। हाँ, किराया ज़रूर यहाँ कुछ कम है, इसीलिए बाक़ी सभी कष्ट उसे छोटे लगते हैं। तीन लोगों का परिवार है उसका और इस परिवार के लिए ही वह अपना आवास या पिंजड़ा बदलता रहता है। नयी जगह आते ही वह अगले परिवर्तन के लिए तैयार रहता है।
चेतला आये हुए उसे छह महीने ही हुए थे, पर अभी तक एक रूपया भी नहीं जोड़ सका था। मकान मालिक के साथ दो साल का करार हुआ है। अभी अट्ठारह महीने बाक़ी है, लेकिन इसके बाद फिर अगला पिंजड़ा कहाँ ढूँढ़ेगा। बाज़ार की स्थिति दिनों दिन बिगड़ती जा रही है। कारखाना भी अच्छी हालत में नहीं है। पिछले महीने की पूरी तनख़्वाह भी अभी तक नहीं मिली है। दिमाग़ में ढेरों अशुभ चिंताएँ लेकर बानेश्वर पैदल चला जा रहा था। चेतला बाज़ार के भीतर से ही शॉर्टकट द्बारा बस स्टैंड पहुँचा जा सकता है।
रोज़ इसी रास्ते से होकर वह कारखाने के लिए निकलता है, लेकिन आज अचानक मुर्गे के पिंजड़े की ओर नज़र जाते ही वह ठिठक कर देखता है। एक हाथ पिंजड़े के छोटे से दरवाजे के भीतर घुसता चला जा रहा है। झट से वह हाथ मुर्गे को पकड़ लेता है और मुर्गे के गले को खींचकर हँसिये से काट डालता है। सिर कटा मुर्गा उस आदमी के पाँव के पास छटपटाने लगा। यह घटना बहुत सामान्य और स्वाभाविक-सी ही थी,पर बानेश्वर के भीतर एक अजीब-सा डर समा गया। उसे न जाने क्यों लगने लगा कि घटना कतई स्वाभाविक नहीं है।
बस में चढ़ने के बाद भी बानेश्वर के दिलो-दिमाग़ से मुर्गे वाली घटना हटने का नाम नहीं ले रही थी। वह सोचने लगा, मुर्गा कितनी बार एक के बाद एक पिंजड़ा बदल कर चेतला आया है। नहीं-नहीं, ये ऊटपटांग बातें उसके दिमाग़ में क्यों आ रही हैं। यह सोचकर उसने सिर को एक बार दायें और एक बार बायें झटका दिया। फिर वह बड़बड़ाने लगा, ‘मैं मुर्गा क्यों होऊँगा… मैं तो बानेश्वर हूँ। मैं तो मनुष्य हूँ। मनुष्य और मुर्गा दोनों भला एक ही चीज़ कैसे हो सकते हैं ?’
समय से वह कारखाने के गेट पर पहुँच गया, लेकिन भीतर नहीं जा सका। गेट पर लॉक-आउट का नोटिस लटक रहा था। श्रमिक लोग बाहर खड़े होकर नारेबाजी कर रहे थे। वह भी उन लोगों की आवाज़ के साथ आवाज़ मिलाने की कोशिश करने लगा, किंतु उसके गले से किसी भी तरह मनुष्य का स्वर नहीं निकल पा रहा था। मुर्गे की कराह जैसी कोई आवाज़ निकलने लगी। वह हाथ से गले को सहलाने लगा। लेकिन यह क्या ? उसका सिर उसके धड़ के ऊपर क्यों नहीं है ? वह बार-बार हाथ से अपने सिर को ढूँढ़ने लगा।
00
जन्म : 26 मई 1958 को वीरभूम (पश्चिम बंगाल) के पांचरा नामक गांव में ।
शिक्षा : कोलकाता विश्वविद्यालय से बी ए ।
लगभग तीन दशकों से विभिन्न साहित्यिक विधाओं में सक्रिय। बंगला की विभिन्न छोटी-बड़ी पत्रिकाओं और पत्रों में रचनाओं का प्रकाशन। कई संपादित संकलनों में भी कहानियाँ, कविताएँ और निबंध आदि प्रकाशित। इसके अतिरिक्त ‘खूनीर शास्ती चाई’, ‘तेजा’ नामक दो कहानी संग्रह, ‘हलफ़’, ‘कोनटा राखी ऐलबमें’ तथा ‘ अलौकिक चाभीवाला’ जैसे तीन काव्य संग्रह तथा संपादित कहानी संकलन ‘ अल्पो कथार गल्पो’ प्रकाशित। उत्तरबंग नाट्य समाज, सिलिगुड़ी, देवयान साहित्य पत्रिका, बारूईपुर – लोकसखा वेल्फेयर सोसाइटी, कोलकाता आदि अनेक संस्थाओं से साहित्यिक कार्य के लिए सम्मानित तथा पुरस्कृत। कई कहानियों का हिंदी में अनुवाद।
संप्रति : ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में संलग्न।
सम्पर्क : 19/19/1, पीताम्बर घटक लेन, अलीपुर, कोलकाता-27
दूरभाष : 09231980784 (मोबाइल)

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता


वह कहती
तरसेम
मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव

वह कहती-
सपनों में न आया कर
सपनों की पहचान नहीं होती
साक्षात मिला कर
किसी मेले में
उत्सव में
या कहीं भीड़ वाली जगह में
बहुत दिल करता है
हाथों में हाथ थामे
दो कदम चलने को
डरना नहीं,
भीड़ की आँखें नहीं होतीं।

वह कहती-
बेशक समुंदर की सीमा नहीं होती
प्यार की भी कोई उम्र नहीं होती
पर, बड़ी अभागी होती है
पानी में रहकर, पानी की प्यास
तू प्यास तो बन
मैं पानी की हर बूँद में समा जाऊँगी।

वह कहती-
पते घरों के होते हैं
सड़कों के नहीं
सड़कों ने तो बतानी ही है
घरों की राह।

वह कहती-
रेत का वजूद तो
हवा के साथ है
जब चाहे, जिधर भी ले जाए उड़ा कर
बना दे, रेत का टीला
या बना दे, टीले को मैदान
उड़ा कर ले जाए किसी बाग में
या फेंक दे किसी कीचड़ में।

वह कहती-
नदियाँ कुछ नहीं होतीं
किसी के विरह-दु:ख में
बहे हुए आँसू होते हैं
जो नदियाँ बन जाते हैं
ये नदियाँ
जब जम जाती हैं
चट्टानें बन जाती हैं
चट्टानें कुछ नहीं होतीं
किसी की प्रतीक्षा में
पथराई आँखें ही होती हैं !
0

जन्म : 21 जुलाई 1967, बरनाला(पंजाब)।
शिक्षा : एम.ए.(पंजाबी,हिंदी), बी.एड.
कृतियाँ : दो कविता संग्रह -'खुली अक्ख दा सुपना' और 'माया', बाल कहानी संग्रह-'हरी किश्ती' । इसके अतिरिक्त 'महाकवि संतोख सिंह : जीवन ते रचना', साक्षात्कार की दो पुस्तकें - 'मंथन' और 'रू-ब-रू', तीन संपादित पुस्तकें - 'सतरां दे रंग(कविता)', 'अदबी मुहांदरे(लेखकों के पैन स्कैच)', 'साहित सिरजणा और समीखिया(डा. सतिंदर सिंह नूर की मुलाकातें)'। लगभग दस पुस्तकों का हिंदी से पंजाबी व पंजाबी से हिंदी में अनुवाद।
संप्रति : अध्यापन।
संपर्क : बी-IV/814, दशमेश गली, गांधी आर्य हाई स्कूल के पास,
बरनाला-148101 (पंजाब)
फोन : 098159-76485

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता

डा. मनमोहन की तीन कविताएं
मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव

(1)दृश्य दर्शन
('हिंदुस्तान टाइम्ज' में फसल काटती स्त्रियों की तस्वीर देखकर )

गेहूं पकने और काटने के दिन
होते हैं दबी इच्छाओं के
पूरे होने के दिन।

दरांतियों-बालियों की रगड़ की लय पर
अकस्मात् मचल पड़ते हैं अधरों पर गीत
दबे-छिपे होते हैं नये प्रेम इनमें
पुराना प्यार जाग पड़ता है चीस बनकर।

अपने हिस्से के टुकड़े को
खत्म करने की जल्दी में
भूल जाती हैं गेहूं काटती स्त्रियाँ
छोड़कर चले गए लोगों की कसक
और आने वालों की प्रतीक्षा
क्योंकि गेहूं काटने के दिन
नये शब्द और नये अर्थ
ईजाद करने होते हैं
नये विचारों को लेना होता है आकार
नई उम्मीदों को होना होता है साकार
इन्हीं दिनों में ही।

ईश्वर भी ले रहा होता है परीक्षा धैर्य की
बावजूद देह जलाती, कंठ सुखाती धूप के
इससे बढ़िया नहीं होती कोई रुत्त
क्योंकि दुखों ने सुखों में बदलना होता है
आस ने बदलना होता है सच्चाई में
तभी तो
छातियों में दूध छलकता महसूस करती हैं
गेहूं काटती स्त्रियाँ।

गेहूं काटने के दिनों में
नये शब्दों और अर्थों का सृजन
दरांतियों-बालियों की रगड़
छातियों के छलकने के दृश्य द्वारा
सृजित किया जा रहा होता है
'रिज़क' का दर्शन
इसी दर्शन के सहारे
चलना होता है
जीवन-व्यवहार साल भर।

गेहूं कटने और पकने के दिन
रहते हैं याद लम्बे समय तक
अगले बरस की आमद तक।
0

(2) फोकस

कुछ भी अपनी जगह पर नहीं
धरती खिसक गई अपनी धुरी से
किनारों से समंदर छलक गया
आकाश उठ गया क्षितिज पर
पहाड़ झुक गया एक ओर
नदी जम गई ग्लेशियर बन।

किसी दिन सबसे तंग होकर
वक्त ने भी रुक जाना है
शीशे से गायब हो जाना है बिम्ब को
दरख्तों ने छोड़ देनी है अपनी छांव
पानी ने भुला देनी है ठंडक
फूल हो जाएंगे महक विहीन
फलों में भर आएगी कड़वाहट
ओस उड़ जाएगी वाष्प बन
रंग हो जाएंगे बेरंग।

सिर्फ़ रह जाएगी
कांटों के पास चुभन
अग्नि के पास तपिश
मरुस्थल के पास विरानी
बंजरों के पास ऊसरता
सूरज के पास अग्नि
पत्थरों के पास कठोरता
सड़कों के पास भटकन
रातों के पास आवारगी।

सब कुछ हिल जाएगा अपनी जगह से
या कई टिके रहेंगे
जड़ होकर अपनी जगह पर
बनी रहेगी वही स्थिति।

वैसे ही
जब देखा था तुझे पहली बार
मेरे अन्दर कुछ हिला था
जो अभी तक अपनी जगह नहीं आ सका
वर्षों बाद भी
यद्यपि मैं दिखाई देता हूँ
स्थिर बाहर से बहुत...।
0

(3) प्रतिबिम्ब

अन्दर ही होता है कुछ
जो झलकता है हाव-भाव में
हर कल्पना में
जैसे पहाड़ की बगल से सोता
फूटकर
धारा बनकर बहने लगता है
धारा अन्त में
बदल जाती है दरिया में
जो समंदर से मिलकर कहता है-
बहुत दिन हुए तुमसे बिछड़े
मेरी सतह को गहराई नवाज़
मेरी लघुता को विस्तार दे
मैं तेरा ही रूप हूँ
जो वाष्प बनकर आसमान में उड़ा
कभी अथाह पतालों में
ज़मीनदोज़
चलता रहा अनजान राहों पर।

अब मैं न पहाड़ हूँ
न सोता, न ही दरिया
मेरे हर हाव-भाव में
मेरी कल्पना में
समंदर के सिवा
नहीं झलकता कुछ भी...।
00

डा. मनमोहन पंजाबी की समकालीन कविता में बहुत जाना-माना नाम हैं। 'सुर संकेत', 'नमित', 'अथ', नीलकंठ' और 'अगले चौराहे तक' इनके चर्चित कविता संग्रह हैं। एक कविता संग्रह 'मेरे में चाँदनी' हिंदी में भी प्रकाशित। डा. मनमोहन ने कई आलोचनात्मक पुस्तकें भी पंजाबी साहित्य की झोली में डाली हैं जिनमें 'विचार, चिंतन ते विहार' एक प्रमुख किताब है। 'दशम ग्रंथ विच मिथ रूपान्तरण' एक खोज पुस्तक है।
सम्पर्क : जी-208, प्लॉट नं. 2, विवेकानन्द हाउसिंग सोसाइटी, सेक्टर-5, द्वारका, दिल्ली-110075
दूरभाष : 011-25083390 (निवास)

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

अनूदित साहित्य


गत 9 जनवरी 2010 को आकाशवाणी की ओर से 'सर्वभाषा कवि सम्मेलन-2010' गुवाहटी(असम) में आयोजित किया गया। इसमें 22 प्रान्तीय भाषाओं के मूल कवियों ने अपनी एक एक कविता का मंच से पाठ किया जिसका हिंदी अनुवाद भी मंच पर पढ़ा गया। हिंदी के दो वरिष्ठ कवियों -डा। बलदेव वंशी और किशन सरोज द्वारा भी हिंदी में एक-एक कविता पढ़ी गई। इस अवसर पर मलयालम कवि दिवाकरन विष्णुमंगलम् ने अपनी प्रसिद्ध कविता ''वृक्षगीत'' अपने सुमधुर स्वर में सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इस कविता का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद सुभाष नीरव ने प्रस्तुत किया। उसी हिंदी अनुवाद को 'सेतु साहित्य' के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें खुशी का अनुभव हो रहा है। आशा है, यह कविता 'सेतु साहित्य' के पाठकों को अवश्य आकर्षित करेगी। आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है...


मलयालम कविता

वृक्षगीत

मूल कवि : दिवाकरन विष्णुमंगलम्
अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


हे पथिक !
लौट आए क्या पुन: तुम
प्यासी ऑंखों से
आश्रय और छाँव तकते ?
लौट आए क्या पुन: तुम
धधकते अंगारों-सी राह में
झुलसते ?

हे पथिक !
देह और मन से थके पूर्वज तुम्हारे
सिर टिका कर मेरी जड़ों पर
और फैलाकर देह को
छाया में लम्बा
नींद लेते थे और पाते थे शान्ति
दु:ख के पलों में
चेतना का भाल छूते थे अलौकिक
चीरकर तम की तहों को

हैं वो जीवित सब तुम्हारी स्मृतियों में...

झड़े पत्तों की इन शाखाओं वाले
वृक्ष का चीरकर कलेजा
अश्रूपूरित ऑंखों से
टटोलते मनहूस अंधेरे को
जब तुम्हारी पीढ़ी की चाहतों का
सूख रहा है सोता
तब तुम आए पथिक
शरणार्थी बनकर मेरे पास।

मैं तुम्हें एक रहस्य बताता हूँ।

ध्यान से सुनो
अपने हृदय में उमड़ते शोकगीत और स्वर-लहरियाँ
शिराओं में बहती जीवन की प्यास
मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ

मेरे जीवन की अन्तर्वेदना से
अपरिचित हो तुम।

संताप के डंक से दंशित
घाव की जलन को मरहम लगाने के लिए
जब तुम जड़ी-बूटियों की दवा को तरसते रहे
तब तुम्हारे सहोदरों ने
मेरी उदारता को लूटा
महसूस कर सकते हो तो करो
कैसे उनके विषाक्त लहराते बादलों ने
छीन ली मुझसे मेरे हिस्से की धूप।

हाँ, मैं मर रहा हूँ,
लेकिन बावजूद इसके
अपनी प्रकृति के अनुरूप
मैं सौंप रहा हूँ तुम्हें
अपने अन्तर में पलती
हरी-हरी कोंपलें
बस, इतनी सी प्यारी भेंट।

करो ग्रहण इसे, ले जाओ
अपने घर-ऑंगन में
करुणा और प्रेम की खाद से
करो इसे पल्लवित और पुष्पित।
यह तुम्हारी धरती को
जल-प्रवाह के कटाव से बचाकर
अपनी जड़ों के बन्धन में
रखेगी उसे सुरक्षित।

इसी में है
प्रेम की ऊष्मा से झिलमिलाती
दूध की नदियों सी बहती खुशहाली
इसी में है तुम्हारे कुटुम्ब के
भरण पोषण के लिए भर पेट अन्न
इसी में है जीवन-अमृत का पवित्र स्तुति गान
इसी में हैं जीवन-श्वांस
इसी में हैं इसकी करुणा और स्वप्न का रिमझिम संगीत
इसी में हैं दुनिया की जिजीविषा को बचाये रखने की शक्ति।

होने दो अंकुरित इन्हें
कि तरंग सा पवन के पंखों पर करें नृत्य
नेकियाँ केसर बनकर रंगोलियाँ सजायें
पर-परागण फैलें ऐसे दूर दूर कि
वन की हरीतिमा को चमकायें
तब इसकी शाखाओं पर नन्हा सुग्गा
गाएगा प्रेम राग,
जगत का सच्चा जीवन राग
सुनकर जिसे तुम्हारे हृदय में
परमानंद की होगी बरसात।

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कवि परिचय
जन्म : 05 मार्च 1965, विष्णुमंगलम्, अंजनूर, जिला-कसारागोड(केरल)
शिक्षा : एम.एससी(जियोलोजी)
संप्रति : जियोलोजिस्ट।
प्रकाशित पुस्तकें : निर्वाचनम्(कविता)- 1994
पदावली(कविता)- 2004
जीवन्ते बटन( कविता)-2006
सम्मान/पुरस्कार : वी.टी. कुमारन स्मारिका कविता अवार्ड( 1989)
महाकवि कुट्टामथ अवार्ड (1995)
केरल साहित्य अकादमी कनकश्री इंडोमेंट अवार्ड (1996)
वलोप्पिली अवार्ड (1997)
इडासेरी अवार्ड (2005)
ज्वाला अवार्ड मुम्बई (2006)
आबूदाबी सक्ति अवार्ड(2007)
सम्पर्क : हरिपुरम पी.ओ. , आनन्दाश्रम, वाया कसरागोड डिस्ट्रिक, केरल -671531
दूरभाष : 0467-2266688 (घर), 09446339708( मोबाइल)