शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

अनूदित साहित्य


पंजाबी लघुकथा

डॉ. दलीप कौर टिवाणा की लघुकथा


डॉ. दलीप कौर टिवाणा पंजाबी की एक प्रतिष्ठित और बहु-चर्चित लेखिका हैं जिनके अब तक दो दर्जन से अधिक उपन्यास, अनेक कहानी संग्रह, कई आलोचनात्मक पुस्तकें, एक आत्मकथा ‘नंगे पैरों का सफ़र’ तथा एक साहित्यिक स्व-जीवनी ‘पूछ्ते हो तो सुनो’ पंजाबी में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी अनेक रचनाएं कई भाषाओं में अनूदित होकर लोकप्रिय हो चुकी हैं। डॉ. टिवाणा पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में प्रोफ़ेसर हैं और अपने पंजाबी साहित्य लेखन के लिए अनेक प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवार्डों से विभूषित हो चुकी हैं। प्रस्तुत लघुकथा उनकी पंजाबी पुस्तक ‘मेरियाँ सारियां कहाणियाँ’ में से साभार ली गई है। पुस्तक में यह एक कहानी के रूप में प्रकाशित है, परन्तु मुझे यह एक श्रेष्ठ लघुकथा के अधिक करीब लगी, इसलिए यहाँ एक लघुकथा के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ…

एक्सीडेंट
डॉ. दलीप कौर टिवाणा
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

बस एकदम रुक गई। आगे बहुत भीड़ थी। ठेले का और कार का एक्सीडेंट हो गया था। हमारी बस की सवारियाँ भी देखने के लिए उतर गईं। मैं अपनी सीट पर बैठी रही। ऐसे दृश्य देख कर मेरा दिल घबराने लग जाता है।
मेरे से अगली सीट वाली औरत और मर्द भी नहीं उतरे।
मर्द ने औरत के पीछे की टेक पर अपनी बांह रखी हुई थी और औरत से बहुत सटकर बैठा हुआ था। औरत की गोद में बच्चा था। वह थोड़ा-सा घूम कर बच्चे को दूध पिलाने लगी। मर्द ने गौर से दूध पीते बच्चे की ओर देखा। मूंछों पर हाथ फेरा। पैरों में पड़ी गठरी को ठीक करके वह सरक कर औरत के और करीब हो गया और दूसरी तरफ़ झांकने लग पड़ा।
औरत ने मर्द की ओर झांक कर बच्चे को हल्की-सी चपत लगाते हुए कहा- “हरामी ! दांत काटता है ?” इसके साथ ही उसने उसके मुँह में से स्तन निकाल कर उसे सहलाया और फिर उसके मुँह में दे दिया।
“टब्बर कहाँ है ?” औरत ने मर्द का जायज़ा लेते हुए पूछा।
“पठानकोट।”
“कितने दिन बाद आ जाते हो ?”
“दो चार महीने के बाद।” मर्द ने यूँ बेदिली से जवाब दिया मानो परिवार और परिवारवालों की बातों में उसे कोई दिलचस्पी न हो।
“टब्बर को पास ही रखना चाहिए, ज़माना खराब है। बंदे की बुद्धि भ्रष्ट होने में कौन-सी देर लगती है।” औरत अपनी पीठ को छूती मर्द की बांह से बिलकुल अनजान बनते हुए कहने लगी।
“बात तो ठीक है, पर तुम्हारे जैसा बंदा तो कहीं भी रहे, किसी की क्या मजाल है।” मर्द ने औरत पर झुकते हुए खिड़की में से बाहर वाले एक्सीडेंट की ओर देखते हुए कहा।
“तुम्हारा बच्चा बड़ा शरारती है।” मर्द ने खिड़की में से सिर अन्दर करते हुए दूध चूँघते बच्चे की तरफ़ देखकर कहा।
“मुझे तो यही डर है कि कहीं बाप पर ही न चला जाए। वह तो निरा ही झुड्डू है।” औरत खुश होकर बोली।
“तुम्हें तो हर आदमी ही झुड्डू लगता होगा।”
“नहीं।” औरत ने हँसकर कहा।
“लाओ, काका मुझे पकड़ा दो। थक गए होगे इतने सफ़र में।”
बच्चे को लेते हुए मर्द ने औरत का हाथ बीच में ही दबाया और हँस पड़ा।
औरत भी हँस पड़ी और साथ ही, अपने बेटे के कपड़े संवारती हुई कहने लगी, “बेटा, पेशाब न कर देना अपने मामा पर।”
मर्द ने दूसरी खिड़की में से झांक कर देखा, लोग लौट आए थे। रास्ता साफ़ हो गया था और बस पुन: अपनी राह पर चलने को तैयार थी।
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