रविवार, 30 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य



"सेतु साहित्य" के पाठकों को
नव वर्ष 2008 की हार्दिक शुभकामनाएं !

इस अंक में "अनूदित साहित्य" के अंतर्गत प्रस्तुत हैं - पंजाबी के प्रसिद्ध कवि मोहनजीत की तीन कविताओं का हिंदी रूपांतर –

तीन पंजाबी कविताएं/ मोहनजीत
हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव


(1) माँ

मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी

हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-
क्या लिखा है?
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!

गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते
माथे को छूते- सवेर होती
दूधभरी छातियों को स्पर्श करते
तो चाँद निकलता

पता नहीं गीत का कितना हिस्सा
पहले का था
कितना माँ का

माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते
चलती तो एक लय बनती

माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर
'रबाब' भी कह लेती थी

पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है
और आह के साथ जो हूक निकलती है
उससे कौन-सा साज़ बना
माँ नहीं जानती थी

माँ कहाँ खोजनहार थी !
चरखा कातते-कातते सो जाती
उठती तो चक्की पर बैठ जाती

भीगी रात का माँ को क्या पता !
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती

मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ
इतना ही तो जानता हूँ
माँ सांस लेती तो लगता
रब जीवित है!


(2) चलना ही बनता है

आ जाओ ! बैठो !
पर दो पल रुको
कि अभी पवन से गुफ़्तगू में हूँ
सुबह से,संध्या से और चुप पसरी रात से
और उस सबसे जो नज़र के सामने है
और नज़र से परे भी

सोचता हूँ- फूल और खुशबू में क्या सांझ है !
मन और काल का क्या रिश्ता है !
प्यार हर जगह एक-सा है !
दोस्ती का दर्द क्यों डसता है !

तो क्या यों ही बैठा रहूँ
पहाड़ की तरह
प्रतीक्षा की तरह
या फिर चल पड़ूँ
पानी के बहाव की तरह
वक्त की सांस की तरह

मूल का क्या पता- कहाँ है
और अंत है कहाँ

अगर राह से वास्ता है
तो चलना ही बनता है।


(3) संवाद

वो तो एक पीर था
जो दूजे पीर से मिला
एक के पास दूध का कटोरा था- मुँह तक भरा
दूसरे के पास चमेली का फूल
माथों के तेज से
वस्तुएं अर्थों में बदल गईं

हम तो चलते हुए राह हैं
किसी मोड़, किसी चौराहे पर मिलते हैं
एक-दूजे के पास से गुजर जाते हैं
या एक-दूजे से बिछुड़ जाते हैं

वो भी एक चुप का दूसरी चुप से संवाद था
यह भी एक चुप का दूसरी चुप से संवाद है


कवि संपर्क :
सी-22, सेक्टर-18
मिलेनियम अपार्टमेंट
रोहिणी, दिल्ली-110085
दूरभाष : 09811398223

ई मेल : snehambar@yahoo.com

शनिवार, 22 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य


दलित चेतना और संवेदना के प्रमुख
पंजाबी कवि बलबीर माधोपुरी की तीन कविताएं
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव


(1) अभिलाषा


ज़िन्दगी-
मैं तेरे संग ऐसे जीना चाहता हूँ
जैसे मिट्टी संग पौधा
पत्ते संग हरियाली
और आँखों संग दृश्य ।

ज़िन्दगी-
मैं तेरे साथ रखना चाहता हूँ
ऐसा मोह
जैसे सागर संग मछली
सूरज संग गरमाहट
फूल संग खुशबू ।

ज़िन्दगी-
मैं ढलानों को, शिखरों को
यूँ करना चाहता हूँ पार
जैसे सागर की लहरों को किश्ती
ऊँची-ऊँची पहाडि़यों को
कोई पहाड़ी गडरिया ।

ज़िन्दगी-
मैं चाहता हूँ रात-दिन
कि तपते मरुस्थल पर
छा जाऊँ बादल बन कर
गरमाहट भरे पंख बन जाऊँ
ठिठुरते-सिकुड़ते बोटों के लिए ।

ज़िन्दगी-
मैं इस तरह विशाल होना चाहता हूँ
जैसे सात समुन्दरों का एक रूप
सतरंगी किरनों की एक धूप
अनेक टहनियों-पत्तों वाला
हरा-भरा एक पेड़ ।

ज़िन्दगी-
मैं तेरे संग ऐसे जीना चाहता हूँ
जैसे मिट्टी संग पौधा,
पत्ते संग हरियाली
और आँखों संग दृश्य !


(2) काव्य-इच्छा

मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
बरसाती नालों की भाँति
किसी नदी में गिर कर
खो बैठें अपनी पहचान ।

मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसके धर्मग्रंथ
एक विशाल खेत को
बाँटते हैं टुकड़ों में
मखमली घास की हरियाली
आरक्षित करते हैं चोटी-टोपी के लिए
वर्जित करते हैं तीसरा नेत्र खोलना
मेरे जैसे लाखे रंग के लोगों के लिए ।

मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उन परिन्दों के नाम हों
जो गाँव की बस्तियों-मुहल्लों को पार कर
चुग्गा चुगने के लिए उतर आते हैं
इन-उन आँगनों में
घरों की ऊँची-नीची
छतों की परवाह किए बगैर ।

बस, मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसमें एकलव्य, बंदाबहादुर की वीर गाथाएँ हैं
पीर बुद्धूशाह का जूझना हैपाब्लो नेरूदा की वेदना है ।




(3) तिनके से हल्का आदमी

कई बार
सरकलम किए पेड़ की तरह
हो जाता हूँ बौना
जिसके ऊपर से गुज़रती है
बिजली की तार ।

छांग दिया जाता हूँ बेमौसम
जब अकस्मात ही
कोई पूछ लेता है मेरा धर्म ।

कई बार
पानी से भी पतला
हो जाता है माटी का यह पुतला ।

शब्द–
जुबान का छोड़ जाते हैं साथ
जैसे पतझड़ में पेड़ों से पत्ते ।

सिर पर से गुज़र जाता है पानी
धरती देती नहीं जगह
जब अचानक ही
कोई पूछ लेता है मेरी जात ।

कई बार
मन के आकाश पर
चढ़ आते हैं
घोर उदासियों के बादल
जब महानगरीय हवा में
पंख समेट कर बैठ जाता है
उड़ाने भरता, कल्लोल करता
चुग्गा चुगने आया कोई परिंदा
पूछे जब कोई सहसा
उसका मूल प्रदेश
पहले गाँव, फिर मुहल्ला ।

कई बार क्या, अक्सर ही
बिंध जाता है उड़ता हुआ परिंदा
कभी धर्म, कभी जात, कभी मुहल्ले से
तो कभी
अवर्ण के बाण से ।

कवि सम्पर्क :
आर ज़ैड ए-44, महावीर विहार
पालम, नई दिल्ली-110045
ई मेल : madhopuri@yahoo.co.in.
दूरभाष : 011-25088112(निवास)
09350548100(मोबाइल)


एक सूचना

सेतु साहित्यसाप्ताहिक को जनवरी 2008 से मासिक किया जा रहा है। जनवरी 2008 से अब यह माह में एक बार पोस्ट हुआ करेगा।

शनिवार, 15 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य

दो संथाली कविताएं/निर्मला पुतुल
हिंदी अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा


क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकान्त ?

घर, प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन
के बारे में बता सकते हो तुम ?

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता ?

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री ?

सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने-आपसे लड़ते ?

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गांठें खोल कर
कभी पढ़ा है
तुमने उसके भीतर का
खेलता इतिहास ?
पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा के उसके चेहरे को ?

उसके अन्दर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर ?

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण ?

बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा ?

अगर नहीं
तो फिर क्या जानते हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...?

बिटिया मुर्मू के लिए कविता

वे दबे पांव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में
वे तुम्हारे नृत्य की बड़ाई करते हैं
वे तुम्हारी आँखों की प्रशंसा में
कसीदे पढ़ते हैं

वे कौन है...?

सौदागर हैं वे... समझो...
पहचानो उन्हें बिटिया मुर्मू... पहचानो !
पहाड़ों पर आग वे ही लगाते हैं
उन्हीं की दूकानों पर तुम्हारे बच्चों का
बचपन चीत्कारता है
उन्हीं की गाड़ियों पर
तुम्हारी लड़कियाँ सब्ज़बाग़ देखने
कलकत्ता और नेपाल के बाजारों में उतरती हैं
नगाड़े की आवाज़ें
कितनी असमर्थ बना दी गई हैं
जानो उसे...।

(
अनामिका द्वारा संपादित और इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित पुस्तक "कहती हैं औरतें" से साभार)

शनिवार, 8 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य

दो पंजाबी कविताएं/ देवेन्द्र सैफ़ी
हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी
मुझे उस औरत जैसी लगी
जिसने चढ़ती उम्र में
'मरियम' बनने का सपना देखा हो।

फिर पूरी जवानी
जिसने मर्द बदलने में बिता दी हो
और अब बूढ़ी होकर
एक कोने में टूटी हुई चारपाई पर लेटी
तिनके से धरती पर लकीरें खींचती
जवानी में बदले हुए मर्दों के नाम गिनती
शर्मसार हो रही हो !

ज़िन्दगी
मुझे उस आदमी जैसी लगी
जो 'हीर की चूरी' की तलाश में निकला हो
और राहों में ठोकरें खाते-खाते
बेहोश हो गया हो
होश आने पर

वेश्या की सीढ़ियाँ उतर रहा हो।

मुर्गियाँ

हमारा पहला मालिक
हमें 'कुड़-कुड़' नहीं करने देता था
जब उसका दिल करता
हमें मार कर खा जाता था

नया मालिक
हमें दड़बे में रखेगा
हमारी 'कुड़-कुड़' पर
पाबन्दी नहीं लगायेगा
रोज़ हमारे अंडे लेकर जायेगा
पर हमें नहीं खायेगा

हम नाचती हैं
ऐसे मालिक के स्वागत में
हम नये युग की
समझदार मुर्गियाँ हैं।

सम्पर्क :
गांव– मोरांवाली
जि़ला– फरीदकोट, पंजाब(भारत)
फोन : 094174-26954

रविवार, 2 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य

तीन नेपाली कविताएं/मुकुल दाहाल
मूल नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी

देवलोक

मैं सिमेंट-सुरक्षित पर्याय में
सिमेंट-सभ्य जीवन के
खोखली शर्तों के
चक्रब्यूह में फँसा हूं।

बिजलीवाला पर्दा
चूस रहा है सुबह-शाम
मेरी आँखों का पानी।

सड़क के मानव-तूफान
और सवारियों के समुद्र में
बना हूं मैं एक कौवा।

मैं पानी की वह एक बूंद
जिसे रेत पी चूका होता है।

इसी बीच
दूर के धूमिल गांव से
एक लिफाफा आया है
एक चिट्ठी लेकर।

चिट्ठी में तीस साल पहले का
एक बालक
मुझसे बतिया रहा है।

वक्त वाष्पीकृत हो गया है
दूरी सिमट गयी है, भूगोल की।

दो बालक हम
नदी किनारों की पीठ पर चढ़ते हैं
पानी के गालों पर
थप्पड़ रसीद करते हैं।

त्योहार बने हैं रेत
पर्व बने हैं किनारे
उत्सव बने हैं पत्थर
फिर देवलोक बना है जीवन।

कविता के जन्मदिन पर

आंगन में
अंधेरा साँड़
बनता रहा

चेहरे पे
काली रात
आकर सोती रही

स्वाद का अर्थ
जिह्वा में
न लिखा गया

बदन
सर्वांग न छिप सका आजीवन
वस्त्र में

सफाई
कौन सी सुविधा है
कौन सा चमत्कार है
मालूम न पड़ा

ऐसे परिवार में
जन्म लिया एक दिन
मेरी कविता ने

वह नहीं रोई
आदमी जैसे
जन्म लेने पर

वह जन्मी
परिपक्व, पूर्ण

अर्थ लिए
आवाज लिए
स्वर लिए

मेरे घाव
मेरे दर्द

मेरे सब वंशज गुण लेकर
वह मर्यादित
जीती गई

मैं प्रत्येक जन्मदिन के
ढलान पर लुढ़कता रहा,

टकराता रहा
और नीला पड़ता गया

हर जन्मदिन के सोपान पर
वह चढ़ती रही आकाश की तरफ

और वयस्क बनती रही

मैं हर जन्मदिन में
लोगों की भीड़
लादता रहा

बिखरते हुए जीवनपिंड से
भागने के लिए

वह एकदम तन्हा
बेखौफ़ है जैसे ‘आज’

क्योंकि
आज उसका जन्मदिन है

मैं उसकी
दीप्त जीवन की आभा
महसूस कर रहा हूं

वह मुझे चोंच मारके
मेरी ही ठंडी आंख से
मुझे देख रही है

मुझे ज्ञात हो रहा है
मेरा रिसता हुआ
जीवन का रस
उसकी लम्बी आयु के
अर्थवत्ता से छोटा है
संकीर्ण है।

क्रोध

क्रोध में
शेर बन गये मुर्गे
घड़ियाल बन गए केचुए
सदा जीभ के नीचे दबने वाले स्वर
गर्जन बन गए

क्रोध ने विवेक का
रथ भेदन किया
दृष्टिभ्रम किया

हाथ में पैना
हथियार थमा दिया

और दिया आदेश
प्रहार का ।

सम्पर्क :
द्वारा श्री कुमुद अधिकारी
प्रधान संपादक
हिंदी साहित्य सरिता
ई-मेल :kumudadhikari@gmail.com

शनिवार, 24 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य

छ: पंजाबी कविताएं/कमल
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव


तलाश

मुझे वो शहर पता नहीं
किस दिन मिलेगा?

वो शहर
जो दूर क्षितिज से पार बसता है
जहाँ गहरे नीले पानी की झील में
सपनों के हंस तैरते हैं
जहाँ ज़िंदगी
गुलाब की तरह महकती है
जहाँ दरिया
कभी न खत्म होने का
गीत गाता है...

मैं बड़े जन्मों से
इस शहर की तलाश में हूँ

इसको खोजते-खोजते
ज़िंदगी उस सपने की तरह हो गई है
जिसके अन्दर बस
चलते ही जाते हैं
पहुँचते कहीं भी नहीं।



सफ़र

अकेले
लम्बा सफ़र तय करते
थक कर चूर हो चुका है
मेरा एक पैर

जहाँ से दो पैरों से चली थी
वापस उसी जगह पर
एक पैर से नहीं पहुँचा जा सकता

और एक पैर से
किसी सूरत भी नाचा नहीं जा सकता
न घुंघुरू बांध कर
न जंजीर पहन कर।


मुहब्बत का ख़्वाब

मेरी मुहब्बत का ख़्वाब
चमेली का बूटा
जिसके नीचे
हकीकत का
'काला नाग' रहता है ।

फासला

मेरे घर से
तेरे घर तक
दो कदमों का नहीं फासला
पर
मेरे दिल से
तेरे दिल तक
पूरा एक मरुस्थल है।


डर

प्रेतों के वहम के कारण
डर कर
पीछे मुड़ कर नहीं देखा

यकीन नहीं था
कि सुनसान जंगल में
पीछे से आवाज़
तूने दी थी।


इंतज़ार

बड़ी देर से मौसम
एक ही हालत में ठहरा हुआ है
न यह बहार बनता है
न पतझर
काश! यह मौसम मेरे मन के
मौसम के बराबर हो सके

एक मुद्दत से माहौल में
बड़ा शोर मचा हुआ है
न यह चुप में बदलता है
और न ही संगीत बनता है
काश! अगर कभी यह सरगम बन सके
सुरताल में बंध सके

बरसों से यह
पत्थर का बुत बना हुआ है
काश! रब्ब बन जाए
कि मैं उसे पूज सकूँ
या फिर जीता-जागता
इन्सान बन जाए
मैं उसके संग बातें कर सकूँ।

कमल
9, फतेहगढ़ चूड़ियां रोड
अमृतसर (पंजाब)
ई-मेल kimim@rediffmail.com
gillkam@yahoo.com
दूरभाष : 09815433166

शनिवार, 17 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य

दो रूसी लघुकथाएं


दाता और दाता
इवान तुर्गनेव

मैं सड़क के किनारे-किनारे जा रहा था कि एक बूढ़े मुझे टोका। लाल सुर्ख और आंसुओं में डूबी आँखें, नीले होंठ, गंदे हाथ और सड़ते हुए घाव... 'ओह! गरीबी ने कितने भयानक रूप से इसे खा डाला है।'

उसने अपना सूजा हुआ गंदा हाथ मेरे सामने फैला दिया।

एक-एक कर मैंने अपनी सारी जेबें टटोलीं, लेकिन मुझे न तो अपना बटुआ मिला और न ही घड़ी हाथ लगी, यहाँ तक कि रूमाल भी नदारद था। मैं अपने साथ कुछ भी नहीं लाया था और भिखारी का फैला हुआ हाथ इंतजार करते हुए बुरी तरह कांप रहा था।

लज्जित होकर मैंने उसका वह गंदा, कांपता हुआ हाथ पकड़ लिया, "नाराज मत होना मेरे दोस्त, इस समय मेरे पास कुछ भी नहीं है।"

भिखारी अपनी सुर्ख आँखों से मेरी ओर देखता रह गया। उसके नीले होंठ मुस्करा उठे और उसने मेरी ठंडी उंगलियाँ थाम लीं, "तो क्या हुआ भाई।" वह धीरे से बोला, "इसके लिए शुक्रिया, यह भी तो मुझे कुछ मिला ही है न !"
और मुझे लगा, मानो मैंने भी अपने उस भाई से कुछ पा लिया है।

कमजोर
एंतोव चेखव
अपने बच्चों की अध्यापिका यूलिमा वार्सीलियेब्ना का आज मैं हिसाब चुकता करना चाहता था।

"बैठ जाओ यूलिया वार्सीलियेब्ना।" मैंने उससे कहा, "तुम्हारा हिसाब चुकता कर दिया जाए। हाँ, तो फैसला हुआ कि तुम्हें महीने के तीस रूबल मिलेंगे, है न?"
"नहीं, चालीस।"
"नहीं, तीस। तुम हमारे यहाँ दो महीने रही हो।"
"दो महीने और पाँच दिन।"
"पूरे दो महीने। इन दो महीनों के नौ इतवार निकाल दो। इतवार के लिए तुम कोल्या को सिर्फ़ सैर कराने के लिए ही लेकर जाती थी। और फिर तीन छुट्टियाँ... नौ और तीन, बारह। तो बारह रूबल कम हुए। कोल्या चार दिन बीमार रहा, उन दिनों तुमने उसे नहीं पढ़ाया। सिर्फ़ वान्या को ही पढ़ाया, और फिर तीन दिन तुम्हारे दांत में दर्द रहा। उस समय मेरी पत्नी ने तुम्हें छुट्टी दे दी थी। बारह और सात, हुए उन्नीस। इन्हें निकाला जाए तो बाकी रहे... हाँ, इकतालीस रूबल, ठीक है?”

यूलिया की आँखों में आँसू भर आए।

"और नए साल के दिन तुमने एक कप-प्लेट तोड़ डाला। दो रूबल इनके घटाओ। तुम्हारी लापरवाही से कोल्या ने पेड़ पर चढ़कर अपना कोट फाड़ डाला था। दस रूबल उसके और फिर तुम्हारी लापरवाही के कारण ही नौकरानी वान्या के बूट लेकर भाग गयी। सो, पाँच रूबल उसके कम हुए... दस जनवरी को दस रूबल तुमने उधार लिए थे। इकतालीस में से सत्ताइस निकालो। बाकी रह गए- चौदह।"

यूलिया की आँखों में आँसू उमड़ आए, "मैंने एक बार आपकी पत्नी से तीन रूबल लिए थे।"

"अच्छा, यह तो मैंने लिखा ही नहीं। चौदह में से तीन निकालो, अब बचे ग्यारह। सो, यह रही तुम्हारी तनख्वाह ! तीन, तीन, तीन.... एक और एक।"

"धन्यवाद !" उसने बहुत ही हौले से कहा।
"तुमने धन्यवाद क्यों कहा?"
"पैसों के लिए।"
"लानत है ! क्या तुम देखती नहीं कि मैंने तुम्हें धोखा दिया है? मैंने तुम्हारे पैसे मार लिए हैं और तुम इस पर मुझे धन्यवाद कहती हो ! अरे, मैं तो तुम्हें परख रहा था... मैं तुम्हें अस्सी रूबल ही दूँगा। यह रही पूरी रकम।"

वह धन्यवाद कहकर चली गयी। मैं उसे देखता हुआ सोचने लगा कि दुनिया में ताकतवर बनना कितना आसान है!

(अशोक भाटिया द्वारा संपादित "विश्व साहित्य से लघुकथाएं" पुस्तक से साभार)

रविवार, 11 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य


रूसी लघुकथाएं


बोझ
लियो तोल्स्तोय

कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागा हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था।

किसान ने उससे कहा, "मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आए तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे।"

"दुश्मन मेरा क्या करेगा?" घोड़ा बोला।

"वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा।"
"तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?" घोड़े ने कहा, "मुझे क्या फ़र्क पड़ता है कि मैं किसका बोझ उठाता हूँ।"



देहाती की बुद्धि
लियो तोल्स्तोय

एक शहर के चौराहे पर एक विशाल शिला पड़ी थी। यह शिला इतनी बड़ी थी कि यातायात में बाधा पहुँचाती थी। उस शिला को हटाने के लिए इंजीनियरों को बुला कर पूछा गया कि शिला को कैसे हटाएं और इसको हटाने में कितना खर्च आएगा?

एक इंजीनियर ने कहा कि इस शिला के टुकड़े करने पड़ेंगे और उन टुकड़ों को गाड़ी अथवा ठेले में ले जाना पड़ेगा। इससे लगभग आठ हजार रुपये का खर्च होगा।

दूसरे इंजीनियर ने सलाह दी कि शिला के नीचे एक बड़े मजबूत ठेले का फट्टा लगाया जाए और लुढ़का कर शिला को उस पर रखकर ले जाया जाए। इसमें लगभग छह हजार रुपये का खर्च आएगा।

वहां पर एक देहाती भी था, जो उन लोगों की बातें सुन रहा था। सुनकर वह बोला, "मैं इस शिला के पास एक बहुत बड़ा गड्ढ़ा खुदवाऊँगा। उस बड़े गड्ढ़े में इस शिला को लुढ़कवा दूँगा। ऊपर से खोदी हुई मिट्टी से समतल कर दूँगा।"

अधिकारियों को उसकी योजना पसंद आयी और उन्होंने उसको स्वीकृति दे दी। देहाती ने वैसा ही किया। उसे सौ रुपये दिए गए, ऊपर से सौ रुपये इनाम के भी!
(अशोक भाटिया द्वारा संपादित "विश्व साहित्य से लघुकथाएं" पुस्तक से साभार)

शनिवार, 3 नवंबर 2007

अनूदित साहित्य



"सेतु-साहित्य"
के सभी पाठकों को दीपावली की शुभकामनाएं !


दो मलयाली लघुकथाएं
हकीक़त
सी.वी. बालकृष्णन

सीढ़ियाँ उतरती हुई वह नीचे कमरे में आई। आवाज़ सुनते ही वह सोफे पर उठ बैठा। कमरा एक अनोखी खुशबू से महक उठा। अतीव आश्चर्य के साथ उसने पत्नी की ओर देखा।
'इतनी सुन्दर श्रीमती के साथ जीते इतने साल बीत गये! पहनी हुई यह रेश्मी साड़ी मैंने ही शादी के दिन इसे 'प्रेजे़न्ट' की थी।' वह उसे देखता ही रह गया।
पत्नी एक मुस्कराहट के साथ उसके करीब आ बैठी।
"आप मुझे ऐसे क्या देख रहे हैं, जैसे पहले कभी न देखा हो।"
"नहीं तो।" उसके मुँह से बस इतना भर निकला।
"सोफे पर बैठे-बैठे ही सोने का इरादा है क्या?" पत्नी दुबारा मुस्करायी।
"नहीं तो...।" उसने फिर वही शब्द दोहराये।
"अभी सो जाने का वक्त नहीं हुआ है। मैं आपके लिए पान लगा लाऊँ?"
पत्नी की बातें सुन कर उसे बहुत ही खुशी हुई। श्रीमती पान का डिब्बा ले आई, समीप बैठी और पान बनाने लगी। चाँदी का डिब्बा था। पान बनाते वक्त उसने देखा कि श्रीमती की उँगलियाँ बहुत ही सुन्दर थीं। उसने श्रीमती से कहा, "बहुत दिन बाद इतने प्यार से पान लगा रही हो।"
श्रीमती चुप रही। मुस्कराती रही। फिर बोली, "आगे से मैं आपको हमेशा इसी तरह पान खिलाती रहूँगी।"
वह और भी खुश हुआ। मन में श्रीमती के प्रति प्रेम बढ़ा। उसने प्यार से पत्नी के बालों में हाथ फेरा। श्रीमती ने पान का बीड़ा देने के लिए हाथ उसकी ओर बढ़ाया। उसने लेने से इन्कार किया।
प्यार से पत्नी ने अपने हाथों से उसके मुँह में पान रखा। वह पान चबाने लगा। पान की सुगन्धित और स्वाद-भरी पीक से उसका मुँह भर गया।
"आप यहाँ क्या कर रहे हैं? नींद आ रही है तो बैडरूम में जाकर नहीं सो सकते?" अचानक श्रीमती की दोपहर के सूरज-सी तीखी आवाज़ सुनते ही वह चौंक कर उठ बैठा।
पत्नी ने तीखी नज़रों से उसकी ओर ताका।
"मैं एक बहुत ही सुन्दर सपना देख रहा था।" वह धीरे से बोला। श्रीमती बिना कुछ बोले मुँह बिचका कर रसोई की ओर चल दी। जैसे ही, वह रसोई-घर तक पहुँची, उसने पीछे से आवाज़ दी, "सपना सुनोगी?"
"अपना पागलपन अपने पास रखो।" श्रीमती ने पलट कर जवाब दिया और रसोई में घुस गई।

धन्धा
अबुल्लिस ओलिप्पुड़ा

कमलाक्षी कल रात को मिले पैसे गिन रही थी। तभी उसने देखा कि आँगन में दो युवक खड़े हैं। एक के हाथ में एक कैमरा भी है।
एक ने कहा, "हम पत्रकार हैं। आप जैसे लोगों के बारे में हम एक फीचर तैयार कर रहे हैं। अगर आपको एतराज़ न हो तो आपकी फोटो चाहिए... और कुछ जानकारी भी दे सकें तो अच्छा रहेगा।"
कमलाक्षी मुस्कराई। उसने युवकों की बात मान ली और आवश्यक सभी जानकारी उन्हें दी। दोनों संतुष्ट होकर वापस चले गए।
उसी दिन, रात में उन युवकों में से एक फिर कमलाक्षी की कुटीर के सामने दिखाई पड़ा।
कमलाक्षी ने पूछा, "अब क्या जानना बाकी है?"
युवक ने जवाब दिए बग़ैर पचास का नोट निकाल कर कमलाक्षी की ओर बढ़ाया। फिर, कमलाक्षी की कमर पकड़ कर अन्दर घुस गया।
तब कमलाक्षी ने कहा, "आपने सुबह पूछा था न, कि हम लोग यह धन्धा बन्द क्यों नहीं करतीं?… बाबू जी, आप जैसे लोग जब तक इस दुनिया में हैं, हम यह धन्धा बन्द नहीं कर सकतीं।"
(बलराम अग्रवाल द्वारा संपादित पुस्तक "मलयालम की चर्चित लघुकथाएं" से साभार)

रविवार, 28 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य


गंदा नाला
सतिपाल खुल्लर
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल

बस से उतर कर उसने बस-स्टैण्ड की ओर उड़ती-सी नज़र डाली। बस-स्टैण्ड पर अभी पूरी तरह चहल-पहल नहीं हुई थी। फिर वह मुख्य सड़क पर आ गई। सड़क के किनारे आकर उसने दायें-बायें देखा। सड़क बिलकुल वीरान थी। उसने सड़क पार की और सड़क के बाईं ओर साथ-साथ चलने लगी। वह बाज़ार की ओर जा रही थी। बाज़ार शुरू होते ही वह कुछ संभल कर चलने लगी।
आठ वर्ष से अस्सी वर्ष तक की उम्र की प्रत्येक नज़र ने उसे मैली आँख से देखा। उसके बदन का भूगोल परखा। कइयों ने द्वि-अर्थी आवाज़ें कसीं। लेकिन वह सजग हुई चलती रही। उसका दफ़्तर बाज़ार के पार, उत्तर की ओर स्टेशन की तरफ था। वह चलती गई। गंदी आवाज़ें सारी राह छींटे बनकर उससे टकराती रहीं।
"तुम पर बलिहारी जाऊँ…" एक बौने-से दुकानदार ने मेंढ़क की तरह टर्र-टर्र की।
"ले गई रे, कलेजा निकाल कर, सुबह-सुबह।" एक रेहड़ी वाले ने कछुए की तरह गर्दन बाहर निकाल कर कहा।
नंगी आवाज़ों की जैसे बाढ़-सी आ गई। लेकिन, लड़की अपना दुपट्टा संभालती अपनी चाल चलती गई।
उस बत्तख-सी लड़की ने देखते ही देखते नित्य की तरह आज भी गंदा नाला पार कर लिया था। अब वह अपने दफ़्तर की ओर जा रही थी।

लेखक सम्पर्क-
गाँव व डाक : तलवंडी भाई
ज़िला- फिरोज़पुर(पंजाब)-142050


रिश्ते का नामकरण
दलीप सिंह वासन
मूल पंजाबी से अनुवाद : श्याम सुंदर अग्रवाल

उजाड़ से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की से मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बनकर यहाँ आई है। रात को रेलवे-स्टेशन पर ही रहेगी। सुबह यहीं से ड्यूटी पर जा उपस्थित होगी। मैं गांव में अध्यापक लगा हुआ था। पहले हो चुकी एक-दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी।
"आपका रात में यहाँ ठहरना सुरक्षित नहीं। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी के घर में आपके ठहरने का प्रबंध कर दूँगा।"
जब हम गांव में से गुजर रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया, "मैं इस चौबारे पर रहता हूँ।" वह अटैची ज़मीन पर रख कर बोली, "थोड़ी देर आपके कमरे में ही रुक जाते हैं। मैं हाथ-मुंह धोकर कपड़े बदल लूंगी।"
बिना किसी वार्तालाप के हम-दोनों कमरे में आ गए।
"आपके साथ और कौन रहता है?"
"मैं अकेला ही रहता हूँ।"
"बिस्तर तो दो लगे हुए हैं।"
"कभी-कभी मेरी माँ आ जाती है।"
गुसलखाने में जाकर उसने हाथ-मुंह धोए, वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।
"आपने रसोई भी रखी हुई है?"
"यहाँ कौन-सा होटल है।"
"फिर तो मैं खाना भी यहीं खाऊँगी।"
बातों-बातों में रात बहुत गुजर गई थी। वह माँ वाले बिस्तर पर लेट गई थी।
मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था लेकिन, नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठकर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था, लेकिन उस में बसी औरत गहरी नींद में सोई थी।
मैं सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर जाकर टहलने लगा। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लगी।
"जाओ, सो जाओ। आपने सुबह ड्यूटी पर हाज़िर होना है," मैंने कहा।
"आप सोये नहीं?"
"मैं बहुत देर सोया रहा हूँ।"
"झूठ !"
"..."
वह बिलकुल मेरे सामने आ खड़ी हुई, "अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आप यूँ उनींदे नहीं रहते।"
"नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।" और मैंने उसके सिर पर हाथ फेर दिया


लेखक सम्पर्क–
101-सी, विकास कालोनी
पटियाला(पंजाब)–147003

रविवार, 21 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य



"सेतु-साहित्य" के सभी पाठकों-दर्शकों को दशहरे की शुभकामनाएं !





फूल
डा. श्याम सुंदर दीप्ति

बहुत कोशिश के बाद भी
खत्म न हो सका मेरा वजूद
मैं तो वो फूल हूँ
जिसको मसलने पर
खुशबू तो फैली ही सारे बाग में
तेरे हाथों में भी रह गई।



नक्शा
डा. श्याम सुंदर दीप्ति

तुझे तो शायद अब याद नहीं होगा
जब हम दोनों ने मिलकर
एक घर का नक्शा तैयार किया था

फूलों की क्यारियों के लिए जगह छोड़कर
सबसे से पहले मेहमान कमरा था
उसके बाद तेरा और मेरा शयनकक्ष
और फिर अपने भविष्य का

उसके बाद थोड़ी-सी जगह बची थी
जिसके लिए अपना झगड़ा भी हुआ था
तूने कहा - स्टोर बनाएंगे
और मैंने कहा था- लायब्रेरी
इसपर तूने फिर कहा था
एक ही बात है
तुम्हारी किताबें स्टोर में ही पड़ी रहेंगी

नक्शे की लकीरें
छतें, दीवारें न बन सकीं
और आज
वह नक्शा मैंने
एक किराये के कमरे की दीवार पर
उलटा लटका छोड़ा है
जो रोज़ नई शक्लों में नज़र आता है
कभी वह तेरी आँखें बन जाता है
मानो वे आसमान को निहार रही हों

और कभी अंग्रेजी बोलते होंठ
और कभी तेरे पैर
किसी कैफे, होटल या रेस्तरां की ओर
जाते प्रतीत होते हैं

और कभी तेरा हाथ
लगता है जैसे अलविदा कह रहा हो।



किताब
डा. श्याम सुंदर दीप्ति

तू कोई सुंदर-सी किताब बन कर मिल
जिसमें न 'घटा' हो, न 'भाग' हो
सिर्फ़ 'जोड़' हो और 'गुणा' हो
कोई ऐसा हिसाब बन कर मिल।

कोई गीता नहीं, कोई कुरान नहीं
किसी भी फलसफे़ का ज्ञान नहीं
किसी काव्य-किस्से का बखान नहीं
जैसे 'पहली कक्षा' में शुरू होता है– 'अ… आ'
जैसे धरती पर उतरती है सूरज की लाली
तू किसी इल्म का आफ़ताब बन कर मिल
कोई प्यारी-सी किताब बन कर मिल।

जैसे इतिहास की सच्ची मिसाल हो
जैसे वैज्ञानिक का कोई कमाल हो
जैसे विज्ञान की कोई पड़ताल हो
सवाल को सवाल बन कर न काट
सवाल का सही जवाब बन कर मिल
तू कोई सोहणी-सी किताब बन कर मिल।

वापस लौट कर उस अस्तित्व को देख
सुकरात का ज़हर और ईशा की सूली देख
कब पंडित, भाई, मुल्ला और आये ये शेख
क्यों सीखा दीवारों को ही खड़ी करना?…
जो रूहों से जुड़ा है, वो पंजाब बन कर मिल
तू कोई सुंदर पठनीय किताब बन कर मिल
कमरे वाला नहीं,
बागों में जो महके, वो गुलाब बन कर मिल।

ज़िन्दगी जीने का एक मसला है
जो भी अकेला है, वही पगला है
सांसों और धड़कनों का इक सिलसिला है
मैं पानी बनूं, तू हवा बन
मैं हवा बनूं, तू आब बन कर मिल
तू कोई बढि़या-सी किताब बन कर मिल
जिसमें सिर्फ़ 'जोड़' हो और 'गुणा' हो
जिसमें लड़ाई का न कोई जिक्र हो
जिसमें प्रेम के किस्से हों, कहानियां हो
मिल तो वो इतिहास बन कर मिल।

अगर मिलना है तो सच्चा-पवित्र ख़्वाब बन कर मिल
'गुणा' और 'जोड़' वाला हिसाब बन कर मिल
कोई पठनीय किताब बन कर मिल।
(इन कविताओं का मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव़)

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कवि-सम्पर्क :
97, गुरू नानक एवेन्यू,
मजीठा रोड
अमृतसर- 143004
दूरभाष: 098158-08506

शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य



भविष्यवाणी
भूपिंदर सिंह

“जबरदस्त बरसात और आंधी आने वाली है बेटा।" बुजु़र्ग ने कहा।
“आपको कैसे मालूम?”
“वह देख, चींटियाँ अपने अंडे मुंह में रख कर ऊँची और सुरक्षित जगह की ओर चली जा रही हैं।" मेरी माँ ने दीवार पर ऊपर की ओर चढ़ती हुई चींटियों की लम्बी कतार को दिखाते हुए कहा, “कुदरत का करिश्मा है। इन्हें आने वाली जोरदार बरसात का पहले ही पता चल जाता है।"
मैं चींटियों पर से निगाहें हटा कर बाहर झांकने लगा। विद्यार्थी चुपचाप स्कूल जा रहे थे। मज़दूर चुपचाप कारखानों की ओर बढ़ रहे थे। कर्मचारी खामोश से दफ्तरों की ओर जा रहे थे।
ये सब मुझे चींटियों-से लगे।
"कोई बड़ा इन्कलाब आने वाला है।" मैं बुदबुदाया।


रोटी का टुकड़ा
भूपिंदर सिंह

बच्चा पिट रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर अपराध का भाव नहीं था। वह ऐसे खड़ा था जैसे कुछ हुआ ही न हो। औरत उसे पीटती जा रही थी "मर जा जा कर... जमादार हो जा... तू भी भंगी बन जा... तूने उसकी रोटी क्यों खाई?"
बच्चे ने भोलेपन से कहा, "माँ, एक टुकड़ा उनके घर का खाकर क्या मैं भंगी हो गया?"
"और नहीं तो क्या...।"
"और जो वो पिछले दस सालों से हमारे घर से रोटी खा रहा है तो वो क्यों नहीं बामण हो गया?" बच्चे ने पूछा।
माँ का उठा हुआ हाथ हवा में ही लहरा कर वापस आ गया। वह अपने बेटे के प्रश्न का जवाब देने में असमर्थ थी। वह कभी बच्चे को तो कभी उसके हाथ में पकड़ी हुई रोटी के टुकड़े को देख रही थी।
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

अनूदित साहित्य




भविष्यवाणी
भूपिंदर सिंह

“जबरदस्त बरसात और आंधी आने वाली है बेटा।" बुजु़र्ग ने कहा।
“आपको कैसे मालूम?”
“वह देख, चींटियाँ अपने अंडे मुंह में रख कर ऊँची और सुरक्षित जगह की ओर चली जा रही हैं।" मेरी माँ ने दीवार पर ऊपर की ओर चढ़ती हुई चींटियों की लम्बी कतार को दिखाते हुए कहा, “कुदरत का करिश्मा है। इन्हें आने वाली जोरदार बरसात का पहले ही पता चल जाता है।"
मैं चींटियों पर से निगाहें हटा कर बाहर झांकने लगा। विद्यार्थी चुपचाप स्कूल जा रहे थे। मज़दूर चुपचाप कारखानों की ओर बढ़ रहे थे। कर्मचारी खामोश से दफ्तरों की ओर जा रहे थे।
ये सब मुझे चींटियों-से लगे।
"कोई बड़ा इन्कलाब आने वाला है।" मैं बुदबुदाया।




रोटी का टुकड़ा
भूपिंदर सिंह

बच्चा पिट रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर अपराध का भाव नहीं था। वह ऐसे खड़ा था जैसे कुछ हुआ ही न हो। औरत उसे पीटती जा रही थी "मर जा जा कर... जमादार हो जा... तू भी भंगी बन जा... तूने उसकी रोटी क्यों खाई?"
बच्चे ने भोलेपन से कहा, "माँ, एक टुकड़ा उनके घर का खाकर क्या मैं भंगी हो गया?"
"और नहीं तो क्या...।"
"और जो वो पिछले दस सालों से हमारे घर से रोटी खा रहा है तो वो क्यों नहीं बामण हो गया?" बच्चे ने पूछा।
माँ का उठा हुआ हाथ हवा में ही लहरा कर वापस आ गया। वह अपने बेटे के प्रश्न का जवाब देने में असमर्थ थी। वह कभी बच्चे को तो कभी उसके हाथ में पकड़ी हुई रोटी के टुकड़े को देख रही थी।

(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

शनिवार, 6 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य


सोच
धर्मपाल साहिल
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)


मैं अपना चैकअप करवाने के लिए मैटरनिटी होम गई तो कई महीनों के बाद अचानक वहाँ अपनी कुआंरी सहेली मीना को जच्चा-बच्चा वार्ड में दाखिल देख मैंने हैरानी से पूछा, “मीना, तू यहाँ? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई तेरे साथ?”

“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। बस, मैंने खुद ही अपनी कोख किराये पर दे दी थी।" उसने ज़र्द चेहरे पर मुस्कराहट लाकर कहा।
“यह भला क्यों किया तूने?” मैंने हैरानी से पूछा।
“तुझे तो पता ही है कि मेरा एक सपना था कि मेरी आलीशान कोठी हो, अपनी कार हो, और ऐशो-आराम की हर चीज़ हो।"
“फिर यह सब कैसे किया?”
“मैंने अख़बार में विज्ञापन पढ़ा। पार्टी से मुलाकात की। एग्रीमेंट हुआ। नौ महीने के लिए कोख का किराया एक लाख रुपये प्रति महीने के हिसाब से। बच्चा होने तक मेरी सेहत की निगरानी का खर्चा भी उनका।"
“इसलिए तू गैर-मर्द के साथ…”
“नहीं-नहीं, डाक्टरों ने फर्टीलाइज्ड ऐग आपरेशन करके मेरी कोख में रख दिया। समय-समय पर मेरा चैकअप करवाते रहे। आज पूरी पेमेंट करके बच्चा ले गए हैं।"
“पर, अपनी कोख से जन्मे बच्चे के लिए तेरी ममता ज़रा भी नहीं तड़पी? तुझे ज़रा भी दु:ख नहीं हुआ?” मीना ने मेरी बात हँसी में उड़ाते हुए कहा, “बस, इतना भर दु:ख हुआ जितना एक किरायेदार के मकान छोड़ कर जाने पर होता है।"



रोबोट
शरन मक्कड़
(मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

दो मित्र आपस में बातें कर रहे थे। एक वैज्ञानिक था, दूसरा इतिहास का अध्यापक। वैज्ञानिक कह रहा था, “देखो, विज्ञान ने कितनी तरक्की कर ली है। जानवर के दिमाग में यंत्र फिट करके, उसका रिमोट हाथ में लेकर जैसे चाहो जानवर को नचाया जा सकता है।"
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह एक गधा ले आया। रिमोट हाथ में पकड़ कर वह जैसे-जैसे आदेश देता, गधा वैसा-वैसा ही करता। वह कहता, “पूंछ हिला।" गधा पुंछ हिलाने लगता। इसी प्रकार वह दुलत्तियाँ मारता, ढेचूं-ढेचूं करता। लोट-पोट हो जाता। जिस तरह का हुक्म उसे मिलता, गधा उसी तरह उसकी तामील करता। वैज्ञानिक अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था।
वैज्ञानिक का मित्र जो बहुत देर से उसकी बातें सुन रहा था, गधे के करतब देख रहा था, शांत बैठा था। उसके मुँह से प्रशंसा का एक भी शब्द न सुनकर वैज्ञानिक को गुस्सा आ रहा था। आख़िर, उसने झुंझला कर जब उसकी चुप्पी के बारे में पूछा तो इतिहास का अध्यापक कहने लगा, “इसमें भला ऐसी कौन-सी बड़ी बात है? एक गधे के दिमाग में यंत्र फिट कर देना… मैं तो जानता हूँ, हज़ारों सालों से आदमी को मशीन बनाया जाता रहा है। आदमी के दिमाग में यंत्र फिट करना कौन-सा कठिन काम है?”
वैज्ञानिक हैरान था कि एक साधारण आदमी इतनी अद्भुत बातें कर रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि हज़ारों सालों से आदमी का दिमाग कैसे मशीन बनाया जाता रहा है। अपने मित्र की हैरानी को देख कर इतिहास का अध्यापक बोला, “आओ मैं तुम्हें एक झलक दिखाता हूँ।"
वे दोनों सड़क पर चलने लगे। अध्यापक ने देखा, एक फौजी अंडों की ट्रे उठाये जा रहा था। उसने उसके पीछे जा कर एकाएक ‘अटेंशन’ कहा। ‘अटेंशन’ शब्द सुनते ही फौजी के दिमाग में भरी हुई मशीन घूम गई जो न जाने कितने ही साल उसके दिमाग में घूमती रही थी। वह भूल गया था कि अब वह फौज में नहीं था, सड़क पर अंडे की ट्रे ले जा रहा था। ‘अटेंशन’ सुनते ही वह अटेंशन की मुद्रा में आ गया। अंडे हाथों से गिर कर टूट गए।
इतिहास का अध्यापक ठंडी सांस भर कर बोला, “यह है आदमी के दिमाग में भरा हुआ अनुशासन का यंत्र ! इसी तरह धर्म का, सियासत का, परंपरा का, सत्ता का रिमोट कंट्रोल हाथ में पकड़ कर आदमी, दूसरे आदमियों को ‘रोबोट’ बना देता है।" उसकी आँखों के सामने ज़ख़्मी इतिहास के पन्ने फड़फड़ा रहे थे।
“तुमने तो एक गधे को नचाया है। क्या तुम मुझे बता सकते हो कि हिटलर के हाथ में कौन-सा रिमोट कंट्रोलर था जिससे उसने एक करोड़ बेगुनाह यहुदियों को मरवा दिया था।"
अब वैज्ञानिक चुप था !

शनिवार, 29 सितंबर 2007

अनूदित साहित्य


लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
रुपिंदर मान
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)


लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
जब हँसती हैं तो यूं लगती हैं
जैसे अनार ने मुँह खोला हो

रोते समय फव्वारे-सी होती हैं
सहमी हों तो
बिल्ली से डरे कबूतर जैसी
खामोश होती हैं तो
सरोवर में शांत पानी-सी लगती हैं
गुनगुनाती हैं तो
हौले-हौले बहती बयार की
‘सन-सन’ बन जाती हैं
बेचैन होती हैं
दरिया के वेग-सी लगती हैं
ख़रमस्तियाँ करते हुए
समुन्दर की लहरें बन जाती हैं

लड़कियाँ बहुत ही अच्छी होती हैं
धीमे-धीमे चलती हैं तो
टीलों से फिसलकर गुजरती हवाएं लगती हैं
नहा कर निकलती हैं तो
सुल्फे की लपट-सी दहकती हैं
अंधेरे में दौड़ती हैं तो
जलती-बुझती मोमबत्तियाँ लगती हैं
लड़कियाँ तो आग की नदियाँ हैं
सुस्ताती हैं तो और भी हसीन लगती हैं

लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
रूठ जाती हैं तो बड़ा तंग करती हैं
जीत कर भी हारती हैं
हर ज्यादती को सहती हैं
मेमना बन कर पांवों में लेटती हैं
गुस्से-गिले को दूर फेंकती हैं
लड़कियों के बग़ैर लड़के निरे भेड़ा हैं
जंगल में गुम हुए कुत्ते-से
या फिर
शहर में खो गए ग्रामीण-से…

लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं।
·

(‘लकीर-94’ से साभार)



बेटियाँ
सुरिंदर ढिल्लों
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)

मेरी बेटी
गहरी नींद में सो रही है
सूरज अपने पूरे जोबन पर आ चुका है
मैं बेटी को
प्यार से उठाने की कोशिश करता हूँ
पर वह करवट बदल कर
फिर गहरी नींद में सो जाती है

अब मैं खीझ कर
फिर से उसे उठाने लगता हूँ
तो मेरी बेटी उनींदी आँखों से
मेरी ओर देखती है
मानो वास्ता दे रही हो
‘पापा…
मुझे बचपन की नींद तो
जी-भरकर ले लेने दो
फिर तो मैंने
सारी उम्र ही जागना है…।
·
(‘लकीर-98’ से साभार)

अनूदित साहित्य



लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
रुपिंदर मान
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)


लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
जब हँसती हैं तो यूं लगती हैं
जैसे अनार ने मुँह खोला हो

रोते समय फव्वारे-सी होती हैं
सहमी हों तो
बिल्ली से डरे कबूतर जैसी
खामोश होती हैं तो
सरोवर में शांत पानी-सी लगती हैं
गुनगुनाती हैं तो
हौले-हौले बहती बयार की
सन-सनबन जाती हैं
बेचैन होती हैं
दरिया के वेग-सी लगती हैं
ख़रमस्तियाँ करते हुए
समुन्दर की लहरें बन जाती हैं

लड़कियाँ बहुत ही अच्छी होती हैं
धीमे-धीमे चलती हैं तो
टीलों से फिसलकर गुजरती हवाएं लगती हैं
नहा कर निकलती हैं तो
सुल्फे की लपट-सी दहकती हैं
अंधेरे में दौड़ती हैं तो
जलती-बुझती मोमबत्तियाँ लगती हैं
लड़कियाँ तो आग की नदियाँ हैं
सुस्ताती हैं तो और भी हसीन लगती हैं

लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
रूठ जाती हैं तो बड़ा तंग करती हैं
जीत कर भी हारती हैं
हर ज्यादती को सहती हैं
मेमना बन कर पांवों में लेटती हैं
गुस्से-गिले को दूर फेंकती हैं
लड़कियों के बग़ैर लड़के निरे भेड़ा हैं
जंगल में गुम हुए कुत्ते-से
या फिर
शहर में खो गए ग्रामीण-से

लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
·
(‘लकीर-94से साभार)


बेटियाँ
सुरिंदर ढिल्लों
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)


मेरी बेटी
गहरी नींद में सो रही है
सूरज अपने पूरे जोबन पर चुका है
मैं बेटी को
प्यार से उठाने की कोशिश करता हूँ
पर वह करवट बदल कर
फिर गहरी नींद में सो जाती है

अब मैं खीझ कर
फिर से उसे उठाने लगता हूँ
तो मेरी बेटी उनींदी आँखों से
मेरी ओर देखती है
मानो वास्ता दे रही हो
पापा
मुझे बचपन की नींद तो
जी-भरकर ले लेने दो
फिर तो मैंने
सारी उम्र ही जागना है…।
·
(‘लकीर-98से साभार)

शनिवार, 22 सितंबर 2007

अनूदित साहित्य


सेतु साहित्य के पिछले अंक पर भारत से ही नहीं वरन विदेशों से भी ढेरों ई-मेल प्राप्त हुए हैं, जो नि:संदेह उत्साहवर्धक हैं। जिन्होंने हमारे इस अकिंचन प्रयास पर अपनी राय व्यक्त करके हमारा हौसला बढ़ाया, हम उन सबका हृदय से आभार व्यक्त करते हैं और आशा करते हैं कि भविष्य में भी वे अपना स्नेह-प्यार बनाये रखेंगे और समय-समय पर अपनी बेबाक राय देकर “सेतु साहित्य” को और बेहतर बनाने में अपना योगदान देते रहेंगे। इस संदर्भ में “सेतु साहित्य” को लेखकों, अनुवादकों से भी सहयोग अपेक्षित है। उनसे अनुरोध है कि वे “सेतु साहित्य” के लिए उत्कृष्ट साहित्य का ही अनुवाद भेजें और अनुवाद भेजने से पहले निम्न बातों को भी ध्यान में रखें –

Ø “सेतु साहित्य” एक अव्यवसायिक ब्लाग-पत्रिका है और लेखक-अनुवादकों को किसी भी प्रकार का मानदेय दे पाने की स्तिथि में नहीं है।
Ø रचनायें केवल 'कृतिदेव’ फोन्ट अथवा यूनिकोड(मंगल) में ही ई-मेल से भेजी जानी चाहिएं। अनुवाद किसी भी भारतीय भाषा के साहित्य से हो सकता है। छोटी रचनाओं का ही अनुवाद अपेक्षित है जैसे- लघुकथा, कविता और कहानी।
Ø मूल लेखक की अनुमति-सहमति लेने की जिम्मेदारी अनुवादक की है और उसे इस बारे में स्पष्ट उल्लेख करना होगा कि उसने मूल लेखक की अनुमति-सहमति ले रखी है।
Ø अनुवादक अपना और मूल लेखक का संक्षिप्त परिचय और चित्र भी भेज सकते हैं।
Ø रचनायें अथवा अपनी प्रतिक्रिया subhneerav@gmail.com पर भेजें।
-संपादक

सेतु साहित्य में ‘अनूदित साहित्य’ के अंतर्गत इस बार प्रस्तुत हैं, डा.सुतिंदर सिंह नूर की कविताओं का हिन्दी अनुवाद। डा. सुतिंदर सिंह नूर पंजाबी के वरिष्ठ कवि, गहन चिंतक और प्रखर आलोचक हैं। डा. नूर की पंजाबी में पाँच कविता पुस्तकें (‘विरख निपत्तरे’, ‘कविता दी जलावतनी’, ‘सरदल दे आर-पार’, ‘मौलसिरी’ और ‘नाल-नाल तुरदियाँ’), एक कविता-संग्रह हिंदी में (साथ-साथ चलते हुए) तथा आलोचना की लगभग ढाई दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक पुस्तकों का संपादन किया है। यू.के., अमेरिका, थाईलैंड, पाकिस्तान में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठियों और सेमिनारों में शिरकत की है। डा. नूर भारतीय साहित्य अकादमी, पंजाबी साहित्य अकादमी, दिल्ली, भाषा विभाग, पंजाब के साथ-साथ सफ़दर हाशमी तथा अनेक भारतीय तथा अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं। दिल्ली विश्ववि़द्यालय से सेवा-निवृत्त है और फिलहाल पंजाबी अकादमी, दिल्ली की पत्रिका ‘समदर्शी’ के सम्पादक हैं।

प्यार और किताब
सुतिंदर सिंह नूर


प्यार करने
और किताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता

कुछ किताबों का हम
मुख्य पृष्ठ देखते हैं
अन्दर से बोर करती है
पृष्ठ पलटते हैं और रख देते हैं।

कुछ किताबें हम
रखते हैं सिरहाने
अचानक जब नींद से जागते हैं
तो पढ़ने लगते हैं

कुछ किताबों का
शब्द-शब्द पढ़ते हैं
उनमें खो जाते हैं
बार-बार पढ़ते हैं
और आत्मा तक बसा लेते हैं

कुछ किताबों पर
रंग-बिरंगे निशान लगाते हैं
प्रत्येक पंक्ति पर रीझते हैं
और कुछ किताबों के
नाजुक पन्नों पर
निशान लगाने से भी डरते हैं

प्यार करने
और किताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता।


घरों से चले गये मित्रो
सुतिंदर सिंह नूर


घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
खेत तड़प कर बंजर हो जाएं
मिट्टी की प्यास मर जाए
बालियाँ भूल जाएं मूक जुबां में बोलना
पंछी भूल जाएं परों को तौलना

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
प्रतीक्षा, प्रतीक्षा करते-करते बूढ़ी हो जाए
क्षितिज की ओर ताकती आँखें पथरा जाएं
सपने, उदास शामें, अंधेरी रातें
कभी श्मसान और कभी कब्र बन जाएं

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
सितारे भूल जाएं गर्दिशें
अंतरिक्ष बिखर जाए चिंदी-​चिंदी होकर
रंगों-सुगंधों के अर्थ गुम हो जाएं
रातें सुर्ख सूर्यों को पी जाएं

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
विषधर समय को डस लें
निगल जाएं तुम्हारे कदमों के निशान
और बहुत दूर निकल गये तुम
बिसरा बैठो पंगडंडियाँ, चरागाह और मुंडेरें

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सुतिंदर सिंह नूर


कविता को उगने दो अपने अंदर
एक वृक्ष की तरह
और वृक्ष को करने दो बातें
हवा से, धूप से,
बरसते पानी से
तूफानों से।

वृक्षों के खोड़ों में
पंछियों को खो जाने दो
चिहु-चिहु करने दो
और घोंसले बनाने दो।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरजमुखी के फूल की तरह
जो आकाश की ओर देखता है
महकता है, विकसित होता है
आज़ाद हवाओं में साँस लेता
किसे का मोहताज नहीं होता
और वीरान जंगलों में
कोसों दूर जाते कारवां को भी
हांक मार लेता है।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरज की तरह
जो क्षणों में
वनों, तृणों, दरियाओं
और समुन्दरों पर फैल जाता है।
सीने में अग्नि संभाले
ब्रह्मांड से बातें करता
किरण दर किरण
निरंतर चले जाता है।

कविता को उगने दो अपने अंदर
चांदनी की तरह
जिसके मद्धम-मद्धम सरोद में
हम रूह तक भीग जाते हैं
क्षितिज तक फैली
शांत गहरी रात में
दूधिया किरणों के जाम
दिल के अँधेरे कोनों तक
एक सांस में पी जाते हैं।

कविता को उगने दो अपने अंदर
वृक्ष की तरह
सूरजमुखी की तरह
सूरज की तरह
चांदनी की तरह!
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(हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव)


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