बुधवार, 17 दिसंबर 2008

अनूदित साहित्य


मलयालम कविता


के. सच्चिदानंदन की पाँच कविताएं
अनुवादक : डा. विनीता/सुभाष नीरव

मैं लिख रहा हूँ

गली में गिरी सुबह की ओस पर
मैं लिख रहा हूँ तेरा नाम
जैसे पहले भी किसी कवि ने
लिखा था नाम- स्वतंत्रता का
हरेक वस्तु पर।

तेरा नाम लिखने लगा तो
मिटाना कठिन हो जाएगा
धरती और आकाश पर
क्रांति के साथ
प्रेम के लिए भी जगह है
तेरे नाम की सेज पर
सो रहा हूँ मैं
तेरे नाम की चहचहाट के साथ
जागता हूँ मैं
जहाँ-जहाँ मैं स्पर्श करता हूँ
उभर आता है तेरा नाम
झरते पत्तों के घसमैले रंगों पर
प्राचीन गुफाओं की स्याह दीवारों पर
कसाई की दुकान के दरवाजे पर
गीले रंगों पर
ताजे लहू पर
जुत रहे खेतों पर
चांदनी के फड़फड़ाते पंखों पर
काफी और नमक पर
घोड़े की नाल पर
नृतकी की मुद्रा पर
तारों के कंधों पर
शहद औ’ ज़हर पर
नींद पर, रेत पर, जड़ों पर
कुल्हाड़ी पर, बन्दूक की गोली पर
फांसी के तख़्ते पर
मुर्दाघर के ठंडे फर्श पर
श्मसान-शिला की चिकनी पीठ पर।
हमें क्या पता

हम दो बच्चें हैं
जो मम्मी-डैडी का खेल खेल रहे हैं
जानते नहीं हम आलिंगन का अर्थ
हमें क्या पता चुम्बन का विद्युतमयी प्रवाह
बस, यूँ ही स्पर्श कर लेते हैं
कुछ पत्तियाँ...
कुछ फूल...
कुछ फल...

बड़ी ममता से निहार रही है प्रकृति हमें
ज़िन्दगी में ठसाठस भरी
वंश-तृष्णा की
धीमी लौ को
अमर होने की इस
अर्थहीन इच्छा में
सुनो-
रात आँगन में दौड़ती चली जा रही है।


पीला-हरा

जब पीला पत्ता झरता है
हरा पत्ता हँसता नहीं
वह सिर्फ़ थोड़ा-सा कांप उठता है
उस फौजी की तरह
जो देख रहा है
गोली खाकर गिरते अपने पड़ोसी को।
सर्दी की बर्फीली छुअन से
जब फूलने लगती हैं उसकी नसें
ध्यान आता है उसे
नियति का रंग है पीला
और वह हो जाता है सुन्न।

और पीला पत्ता सड़ता है वेग से
ताकि वह बन सके हरा पता
खिला सके फूल
अगली बसंत में
हरा पत्ता नहीं जानता कुछ भी
मरने के बाद आत्माओं के
सफ़र के बारे में।

हरे पत्ते का दुख पीला पीला है
पीले पत्ते का सपना हरा-हरा
इसलिए जब नौजवान हँसते हैं
सूरजमुखी खिलते हैं
और.... हाँ, इसीलिए बूढ़ों के
आँसू झिलमिलाते हैं
मणियों की तरह...।

पागल

पागलों की कोई जाति नहीं होती
न धर्म होता है
वे लिंग भेद से भी परे होते हैं
उनका चाल-चलन अपना ही होता है
उनकी शुद्धता को जानना
बड़ा कठिन है।

पागलों की भाषा सपनों की भाषा नहीं
वह तो किसी दूसरे ही यथार्थ की(होती है)
उनका प्रेम चाँदनी है
जो पूर्णिमा में उमड़ता-बहता है।

जब वे ऊपर की ओर देखते हैं
तो ऐसे देवते लगते हैं
जिन्हें कभी सुना-गुना ही न हो
जब हमें लगता है कि
यूँ ही कंधे झटक रहे हैं वे
तो उड़ रहे होते हैं उस वक्त वे
अदृश्य पंखों के साथ।

उनका विचार है कि
मक्खियों में आत्मा होती है
देवता टिड्डे बन कर हरी टांगों पर फुदकते हैं
कभी-कभी तो उन्हें वृक्षों से
रक्त टपकता दिखाई देता है
कभी-कभी गलियों में
शेर दहाड़ते दिखाई देते हैं।

कभी-कभी बिल्ली की आँखों में
स्वर्ग चमकता देखते हैं
इन कामों में तो वे हमारे जैसे ही हैं
फिर भी चींटियों के झुण्ड को गाते हुए
केवल वही सुन सकते हैं।

जब वे सहलाते हैं पवन को तो
धरती को धुरी पर घुमाते हुए
आंधी को पालतू बनाते हैं
जब वे पैरों को पटक कर चलते हैं तो
जापान के ज्वालामुखी को
फटने से बचा रहे होते हैं।

पागलों का काल भी दूसरा होता है
हमारी एक सदी
उनके लिए एक क्षण भर होती है
बीस चुटकियाँ ही काफी है उनके लिए
ईशा के पास पहुँचने के लिए
आठ चुटकियों में तो वे बुद्ध के पास पहुँच जाएंगे।

दिन भर में तो वे
आदिम विस्फोट में पहुँच जाएंगे
वे बेरोक चलते रहते हैं
क्योंकि धरती चलती रहती है

पागल
हमारे जैसे
पागल नहीं होते।

पंचभूतों ने जो मुझे सिखलाया

धरती ने मुझे सिखलाया है-
सब कुछ स्वीकारना
सब कुछ के बाद
सबसे परे हो जाना
हर ऋतु में बदलना
यह जानते हुए कि
स्थिरता मृत्यु है
चलते चले जाना है
अन्दर और बाहर।

अग्नि ने मुझे सिखलाया है-
तृष्णा में जलना
नाचते-नाचते हो जाना राख
दुख से होना तपस्वी
काली चट्टानों के दिल और
सागर के गर्भ में
प्रकाश जागते हुए
ध्यानमग्न होना।

जल ने मुझे सिखलाया है-
बिना चेतावनी
आँख और बादल में से
टप टप टपकना
आत्मा और देह में
गहराई तक रिसना
और इन दोनों को देना संवार
फूल और आँसू से
स्वयं होना मुक्त
नाव और ठांव से
और विलय हो जाना
स्मृतियों के किनारे
उस अतल नील में।

पवन ने मुझे सिखलाया है-
बांस के झुरमुट में निराकार गाना
पत्तियों के माध्यम से भविष्य बतलाना
बीजों को पर-पंख
हवा-सा दुलराना
आंधी-सा रुद्र होना।

पंचभूतों ने मुझे यह सिखलाया-
जोड़ना-जुड़ना
टूटना-बिखरना
रूप बदलते रहना
जब तक न मिले मुक्ति
मुझे सारे रूपों से।
00

(मलयालम के प्रख्यात कवि के. सच्चिदानंदन की कविताओं का पंजाबी अनुवाद डा. वनीता ने किया है जिसे “पीले पत्ते का सपना” शीर्षक से पुस्तक रूप में साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 2003 में प्रकाशित किया गया था। डा. वनीता स्वयं पंजाबी की चर्चित कवयित्री और आलोचक हैं। उक्त पाँचों कविताएं इसी पंजाबी कविता संग्रह से ली गई हैं और पंजाबी से इनका हिन्दी अनुवाद सुभाष नीरव ने किया है )

मलियालम के प्रसिद्ध कवि के. सच्चिदानंदन का जन्म 1946 में हुआ। वह कई वर्षों तक ‘इंडियन लिटरेचर’ के संपादक रहने के बाद ‘साहित्य अकादमी’ के सचिव भी रहे। वह अन्य कई संस्थाओं से संबद्ध रहे। इन्हें केरल साहित्य अकादमी के चार तथा अन्य कई पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। इनकी बहुत सी कविताओं का अनुवाद भारत और विश्व की अनेक भाषाओं में हो चुका है। इन्होंने नाटक और आलोचना के क्षेत्र में भी विशेष कार्य किया है। इनके उन्नीस कविता संग्रह, सामाजिक और आलोचना से संबंधित सोलह पुस्तकें और कई अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं।

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता

गुरप्रीत की सात कविताएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

(1) घर

गुम हुई चीज को
तलाशने के लिए
खंगाल डालती थी
घर का हर अंधेरा-तंग कोना
मेरी माँ !
बीवी भी अब ऐसा ही करती है
और अपनी ससुराल में बहन भी !

चीज़ों के गुम होने
और इनके रोने के लिए
अगर घर में अंधेरी-तंग जगहें न होंती
तो घर का नाम भी
घर नहीं होता।

(2) दोस्ती

जब छोटे-छोटे कोमल पत्ते फूटते हैं
और खिलते हैं रंग-बिरंगे फूल
मैं याद करता हूँ जड़ें अपनी
अतल गहरी ।

जब पीले पत्ते झड़ते हैं
और फूल बीज बन
मिट्टी में दब जाते हैं
मैं याद करता हूँ जड़ें अपनी
अतल गहरी ।

(3) जीने की कला

ये अर्थ
जो जीवंत हो उठे
मेरे सामने
अगर ये शब्दों की देह से होकर
न आते
तो कैसे आते
मैं हँसता हूँ, प्यार करता हूँ
रोता हूँ, लड़ता हूँ
चुप हो जाता हूँ
पार नहीं हूँ सब कुछ से
मुझे जीना आता है
जीने की कला नहीं।

(4) माँ

मैं माँ को प्यार करता हूँ
इसलिए नहीं
कि जन्म दिया है
उसने मुझे

मैं माँ को प्यार करता हूँ
इसलिए नहीं
कि पाला-पोसा है
उसने मुझे

मैं माँ को प्यार करता हूँ
इसलिए
कि उसको
अपने दिल की बात कहने के लिए
शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती मुझे।

(5) पिता होने की कोशिश

दु:ख
गठरी मेंढ़कों की
गाँठ खोलता हूँ
तो उछ्लते-कूदते बिखर जाते हैं
घर के चारों तरफ

हर रोज़
एक नई गाँठ लगाता हूँ
इस गठरी में

कला यही है मेरी
दिखने नहीं दूँ
सिर पर उठाई गठरी यह
बच्चों को।
(6) चिट्ठियों से भरा झोला

कविता आई सुबह-सुबह
जागा नहीं था मैं अभी
सिरहाने रख गई- ‘उत्साह’।

उठा जब
दौड़कर मिला मुझे ‘उत्साह’
कविता की चिट्ठियों से भरा झोला थमाने।

एक चिट्ठी
मैंने अपनी बच्ची को दी
‘पढ़ती जाना स्कूल तक
मन लगा रहेगा…’

एक चिट्ठी बेटे को दी
कि दे देना अपने अध्यापक को
वह तुझे बच्चा बन कर मिलेगा…

चिट्ठी एक कविता की
मैंने पकड़ाई पत्नी को
गूँध दी उसने आटे में।

पिता इसी चिट्ठी से
आज किसी घर की
छत डाल कर आया है!

नहीं दी चिट्ठी मैंने माँ को
वह तो खुद एक चिट्ठी है !

(7) राशन की सूची और कविता

5 लीटर रिफाइंड धारा
5 किलो चीनी
5 किलो साबुन कपड़े धोने वाला
1 किलो मूंगी मसरी
1 पैकेट सोयाबीन
पैकेट एक नमक, भुने चने
थैली आटा
इलायची-लौंग 25 ग्राम…

कविता की किताब में
कहाँ से आ गई
रसोई के राशन की सूची ?

मैं इसे कविता से
अलग कर देना चाहता हूँ
पर गहरे अंदर से उठती
एक आवाज़
रोक देती है मुझे
और कहती है –
अगर रसोई के राशन की सूची
जाना चाहती है कविता के साथ
फिर तू कौन होता है
इसे पृथक करने वाला
फैसला सुनाता ?

मैं मुस्कराता हूँ
राशन की सूची को
कविता की दोस्त ही रहने देता हूँ।

दोस्तो !
नाराज़ मत होना
यह मेरा नहीं मेरे अंदर का फैसला है
अंदर को भला कौन रोके !

सूची अगर तुम
मेरी रसोई की नहीं
तो अपनी की पढ़ लेना

कविता अगर तुम
मेरी नहीं
तो अपने अंदर की पढ़ लेना।
0
गुरप्रीत
संप्रति : पंजाबी अध्यापक ।
प्रकाशित कविता पुस्तकें : शबदां दी मरज़ी(1996), अकारन(2001)
पुरस्कार : कविता पुस्तक “शबदां दी मरज़ी” को गुरू नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर की ओर से वर्ष 1996 का प्रो0 मोहन सिंह कविता पुरस्कार।

अन्य रुचियाँ : वाटर कलर में कुछ पेंटिग्स जो किताबों और पत्रिकाओं के टाइटिल पर लगीं। कुछ रेखांकन ‘संडे ऑबजर्वर’, ‘हंस’, ‘जनसत्ता’, ‘वागर्थ’ और ‘नया ज़माना’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।

संपर्क : वार्ड नं0 9
रामसिंह कुन्दन वाली गली
सिनेमा रोड, मानसा- 151505(पंजाब)
दूरभाष : 09872375898
ई-मेल : gurpreet-sukhan@yahoo.com

शनिवार, 30 अगस्त 2008

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता

पिछले दिनों पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका “प्रवचन” के नए अंक (जुलाई-सितम्बर 2008) में इमरोज़ जी की कविताएं पढ़ने को मिलीं। कविताएं पढ़कर हैरान था क्योंकि मैंने इमरोज़ जी को रंगों और ब्रश के कलाकार के रूप में ही अभी तक देखा-जाना था। उनकी पेंटिंग्स और स्कैच्स मुझे अपनी ओर खींचते रहे हैं। पर एक कवि के रूप उन्हें पहली बार देख-पढ़ रहा था। मैंने तुरन्त इमरोज़ जी से सम्पर्क किया। उन्होंने सहर्ष अपनी कविताओं के हिन्दी अनुवाद को “सेतु साहित्य” में प्रकाशन की अनुमति देते हुए कहा कि “अगर मेरी ये नज्में पाठकों को अच्छी लगती हैं तो अब ये उन्हीं की ही हैं।” अपने बारे में बेहद संक्षिप्त जानकारी देते हुए कहा कि मैं रंगों और ब्रश का कलाकार रहा हूं, पर आजकल कविताएं भी लिखने लगा हूँ। उन्होंने बताया कि वे लाहौर आर्ट स्कूल में तीन वर्ष रहे, पर जो कुछ भी सीखा है, वह खुद काम करके सीखा है। उनका मानना है कि पेटिंग और कविता सिखाई नहीं जा सकती। बस, जिनके अन्दर इनका बीज होता है, वह स्वयं फूट पड़ता है और फलता-फूलता रहता है।

मेरे लिए यह दिलचस्प संयोग की बात रही कि इधर मैंने इमरोज़ जी की पंजाबी कविताएं पढ़ीं और उनसे बात करके उनके हिन्दी अनुवाद को “सेतु साहित्य” में प्रकाशित करने का मन बनाया, उधर उसी दिन ‘अमृता-इमरोज़’ पर शायदा जी की बेहद खूबसूरत तीन पोस्टें उनके ब्लाग “उनींदरा” में पढ़ने को मिलीं। इस पोस्ट में दिए इमरोज़ जी के पहले दो चित्र “उनींदरा” से ही साभार लिए गए हैं।


इमरोज़ की कविताएं
पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव

बीज

एक ज़माने से
तेरी ज़िन्दगी के दरख़्त
कविता को
तेरे साथ रहकर
देखा है
फूलते, फलते और फैलते…
और जब
तेरी ज़िन्दगी का दरख़्त
बीज बनना शुरू हो गया
मेरे अन्दर जैसे
कविता की पत्तियाँ
फूटने लग पड़ीं
और जिस दिन
तेरी ज़िन्दगी का दरख़्त बीज बन गया
उस रात इक कविता ने
मुझे बुलाकर अपने पास बिठाया
और अपना नाम बताया

अमृता-
जो दरख़्त से बीज बन गई

मैं काग़ज़ लेकर आया
वह कागज़ पर अक्षर-अक्षर हो गई

अब कविता अक्सर आने लग पड़ी है
तेरी शक्ल में तेरी ही तरह मुझे देखती
और कुछ समय मेरे संग हमकलाम होकर
मेरे अन्दर ही कहीं गुम हो जाती है…
0

प्यास
आदमी ज़िन्दगी जीने को
शिद्दत से बड़ा प्यासा था
इस प्यास के संग चलता
ज़िन्दगी का पानी खोजता-तलाशता
वह एक चश्मे तक पहुँच गया
प्यास इतनी थी
कि वह न देख सका, न पहचान सका
कि यह ज़िन्दगी का चश्मा नहीं
वह तो प्यासे पानी का चश्मा था
प्यास बुझाने को जब वह
पानी के करीब गया
प्यासे पानी ने आदमी को पी लिया…
0

सोहणी
तस्वीरों की दुकान के बाहर
सोहणी की तस्वीर देखी
मैं इस सोहणी को घर ले आया
इस सोहणी को देखते-देखते
मुझे कल की
वह सोहणी दिखाई देने लग पड़ी
जिसने पंजाब का एक दरिया
कच्चे घड़े से पार किया था
कई बार…
और आज मुझे
एक और सोहणी दिखाई दे रही है
जिसने आधी सदी से
अपनी कलम से
सारा पंजाब पार किया है-
लगातार…
0

चार छोटी कविताएं

(1)
हाथ में पकड़ा फूल
चुपचाप कह सकता है
कि मैं अमन के लिए हूँ
पर हाथ में पकड़ी तलवार
बोलकर भी नहीं कह सकती
कि मैं अमन के लिए हूँ…
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(2)
आसमान पर भले ही
आसमान जितना लिखा हो
कि ज़िन्दगी दु:ख है
तो भी
धरती पर आदमी
अपने बराबर तो लिख ही सकता है
कि ज़िन्दगी सुख भी है…
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(3)
मैं रंगों के संग खेलता
रंग मेरे संग खेलते
रंगों के संग खेलता-खेलता
मैं इक रंग हो गया
कुछ बनने, कुछ न बनने से
बेफिक्र, बेपरवाह…
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(4)
बिखरने के लिए लोग ही लोग
पर एक होने के लिए
एक भी मुश्किल…
दरख़्त पंछियों को जन्म नहीं देते
पर पंछियों को घर देते हैं…
0
संपर्क : के-25, हौजख़ास,
नई दिल्ली-110016



फोन : 011-26519278

शनिवार, 5 जुलाई 2008

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता

विशाल पंजाबी कविता का एक होनहार कवि है जो अपने वतन की मिट्टी से दूर इटली में रहते हुए अपनी माँ-बोली में अपनी संवेदनाओं को कविता में बखूबी व्यक्त कर रहा है। इस कवि की जब मैंने तीन कविताएं अपने दूसरे ब्लाग “गवाक्ष” के प्रथम अंक (जनवरी 2008) में प्रकाशित की थीं तो कविता-प्रेमियों ने उन कविताओं को बेहद पसंद किया था और खूब सराहा था। “सेतु साहित्य” के इस अंक में पंजाबी के इस विशिष्ट कवि की पाँच प्रेम कविताएं जिन्हें उनकी कविता पुस्तक “मैं अजे होणा है” से लिया गया है, ब्लाग और वेब पत्रिकाओं के विशाल हिन्दी पाठकों के सम्मुख रख रहा हूँ, इस आशा और विश्वास के साथ कि ये कविताएं उनके हृदय पर अवश्य दस्तक देंगी-


पाँच प्रेम कविताएं- विशाल
पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव

नदी में तैरते हुए

उससे मैं मिला तो वह गुस्से में
काग़ज़ के टुकड़े फाड़-फाड़ कर
डस्टबिन में फेंके जा रही थी

मैंने पूछा- यह क्या ?
वह ऐसे बोली जैसे सिसक रही हो-
‘ख़त थे कुछ रूहों जैसे
यूँ ही पते गलत लिख बैठी थी’
इस गहरी चुप के दरम्यान
मैंने देखा कि नदियाँ आँखों में कैसे सूख जाती हैं !

फिर मैंने उसे एक ख़त लिखा-
‘ज़रूरी नहीं कि हर छांव तुम्हारे लिए महफूज ही हो
और किसी वक़्त गमलों में लगाते तो फूल हैं
पर उग आता है कैक्टस !’

उसने जवाब भेजा-
‘तूने ख़त तो ठीक पते पर भेजा है
पर इबारत तेरी रूहों से बहुत कच्ची है, माफ करना।’

फिर जब हम मिले तो उसने कहा-
‘बात तो कर कोई,
चुप तो रेता होती है निरी !’

और मैंने कहा-
‘मेरी बात के लिए
तेरे पास कोई डस्टबिन नहीं होगा।’
0

बजा हुआ शंख

एक दिन मैंने उससे कहा
कि मुझे तेरा कांधा चाहिए
तो उसने कहा-
‘बात कहने के लिए
तुझे शब्दों की ज़रूरत क्यों पड़ती है?’

और फिर एक दिन आई
और कहने लगी-
‘हवा में तैरती उंगलियों को मैं क्या समझूं
अपने रिश्ते का कोई नाम ही रख दे !’

प्रत्युत्तर में मैंने कहा-
‘समझने के लिए
तुझे अर्थों की ज़रूरत क्यों पड़ती है ?’

वह इतनी ज़ोर से हँसी कि मुझे लगा
कहीं रो ही न दे
उसने हँसते-हँसते हुए कहा-
‘मूर्ख है निरा तू भी
और मैं भी किसी पगली से कम नहीं !’
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अपने आप और तेरे ‘तू’ तक पहुँचने का यत्न

एक रात का अन्तर पार करके
तूने सवेर जीत ली
और मैं हार गया
अपने सारे सूरज एक ही रात में

वैसे मैंने भी कभी नहीं चाहा था
कि अंधियारी गुफाएं
मेरी आदत बनें
पर जब मेरे लिए
सब उजाले वर्जित हो गए
तो मैंने एक जुगनू का
दावेदार बनना चाहा था

मेरे अन्दर सरकने लगी
ऐसे ही एक जलावतन ॠतु
और मैं कुचले हुए गुलाब जेबों में रखकर
जामुनी ॠतु के भरम पालता रहा
मैं बात को कहीं से भी शुरू नहीं करना चाहता
क्योंकि बात
कहीं भी खत्म नहीं होगी
पर तू मेरे पास-पास ही रहना

भीड़ में गुम हो जाऊँगा कभी
डूब जाऊँगा किसी किनारे पर ही
एकाकीपन से भी भर उठूँगा
होऊँगा तन्हा कमरे से ज्यादा
चीख से ज्यादा खामोश भी हो सकता हूँ
मेरे पैरों में आवारगी ही नहीं
तलाश भी है उन बादबानों की
जहाँ कहीं जहाज़ डूबते हैं

बस, तू मेरे पास-पास ही रहना
वैसे ही
जैसे रात कहती है
सवेरा बुलाता है
और मुझे उतना भर रख लेना
कि बाकी कुछ न बचे।
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वार्तालाप की गूंज

मैं आजकल अक्सर
तुझे सोचने लग पड़ा हूँ
जैसे कोई पानियों में पानी होकर सोचता है।

तुझे गुनगुनाने लग पड़ा हूँ इस तरह
जैसे प्रात:काल के ‘सबद’ का अलाप
तेरी तलाश का सफ़र
किसी अनहद राग का मार्ग
तेरी याद, तेरा मिलन
सरगम के सारे सुर
अधूरे सिलसिले
कुछ संभव, कुछ असंभव
अतृप्त मन की कथा
अथाह पानियों में घिरा हुआ भी
मेरे लिबास की तपिश वैसी ही

तू बर्फ़ की तरह मेरे करीब रह
मेरी रेतीली प्रभात
मेरे भावों के मृगों का रंग तो बदले
कि बना रहे जीने का सबब।

मैं लम्हा-लम्हा तेरा
मेरे अन्दर बैठे पहाड़ के लिए
तू बारिश बन
मैं बूँद-बूँद हो जाऊँ
तेरे अन्दर बह रही नदी के संग
हो जाऊँ मैं भी नदी
मेरी नज़र की सुरमई शाम पर
इस अजीब मरहले को
स्मृतियों के बोझ से मुक्त कर दे
तुझे संबोधित होते हुए भी मैं चुप हूँ
मेरे बनवास को और लंबा न कर…
0

ख़ुश्क सागर की रवानगी के लिए ललक

तू पहाड़ बन जा
स्थिर…अडोल… खामोश
पहाड़
कि जिसे पार करते-करते
मेरी उम्र बीत जाए

अगर हमसफ़र नहीं तो
पहाड़ ही बन जा
इस तरह ही सही
तू मेरे सफ़र में शामिल तो हो…

किसी चरवाहे की बंसरी की हूक बनकर
मेरी रूह में घुल जा
घुल जा कि मेरी रूह
युगों-युगों से जमी पड़ी है

मैं रिसना चाहता हूँ
पिघलना चाहता हूँ
पहाड़ पर जमी बर्फ़ की तरह
चश्मे का नीर बनकर

तू मेरी कविता का बिंब बन जा
मैं तुझे सजाना चाहता हूँ
देख, मेरे अन्दर के सारे पुल टूट गए हैं
और मुझे रूह तक पहुँचने के लिए सहारा दे दे
तू मेरी छाती की पीर बन जा
ताकि मैं तुझे महसूस कर सकूँ

तू क्यों नहीं बन जाती
मेरी आँख का आँसू
मैं अपनी डायरी से परे
और भी बहुत कुछ हूँ

हर बार प्रतीक्षा क्यों बनती हो
तू दस्तक बनकर आ
और देख
सभ्यता के अंधेरे में
मैं कितना खो गया हूँ

मुझे अपने आप से
बहुत-सी बातें करनी हैं
अपने बारे में… तेरे बारे में…
खुद से मिले एक मुद्दत हो गई है
बिखर गया हूँ
तलाशना है, संभालना है अपने आप को

मेरे इस सबकुछ के लिए
तेरा मेरे सबकुछ में
शामिल होना बहुत ज़रूरी है।
0

विशाल
प्रकाशित पुस्तकें : ‘तितली ते काली हवा’(कविता- 1992)
‘कैनवस कोल पई बंसरी(कविता-2000)
‘मैं अजे होणा है’ (कविता- 2003)
‘इटली विच मौलदा पंजाब(गद्य)


संपर्क : PZA, MATTEOTTI-34
46020- PEGOGNAGA(MN)
ITLAY
PHONE: 0039-3495172262

रविवार, 22 जून 2008

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता


पाश की कविताओं से गुजरना...

"प्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आया
जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया।"
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"जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही सुखदाई होता है।"
0

"शब्द जो राजाओं की घाटी में नाचते हैं
जो माशूक की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं
जो मेजों पर टेनिस-बॉल की तरह लुढ़कते हैं
जो मंचों की खारी धरती में उगते हैं–
कविता नहीं होते।"

पंजाबी कविता के जुझारू कवि पाश की कविताओं से गुजरना एक अनौखे अनुभव से गुजरना है। पाश की कविताएं मैंने मूल पंजाबी में भी पढ़ीं और उनका हिंदी अनुवाद भी। फरवरी 2008 में नई दिल्ली में आयोजित “विश्व पुस्तक मेले” में सुभाष परिहार द्वारा अनूदित पाश की समग्र कविताओं की किताब “अक्षर-अक्षर” देखने और खरीदने का अवसर मिला। यह किताब पाश की पूरी कविता-यात्रा को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण किताब है(प्रकाशक – परिकल्पना प्रकाशन, डी–88, निरालानगर, लखनऊ–226 006)। सुभाष परिहार जाने-माने लेखक और अनुवादक हैं। इनके किए अनुवाद मूल रचना के बहुत पास होते हैं। इनके अनुवादों में मूल भाषा की गंध और रचना की आत्मा सहज ही अनुभव की जा सकती है। एक अच्छा अनुवाद मूल रचना जैसा ही स्वाद प्रदान करता है। “सेतु साहित्य” के इस अंक में “अक्षर-अक्षर” पुस्तक से पाश की तीन कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं–

पाश की तीन कविताएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष परिहार
सभी चित्र : अवधेश मिश्र

मैं अब विदा होता हूँ

मैं अब विदा होता हूँ
मेरी दोस्त, मैं अब विदा होता हूँ
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
जिसे तू सारी उम्र पढ़ती रह सके।

उस कविता में
महकते हुए धनिये का ज़िक्र होना था
ईखों की सरसराहट का ज़िक्र होना था
और सरसों की नाजुक शोखी का ज़िक्र होना था
उस कविता में पेड़ों से टकराती धुन्ध
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झागों का ज़िक्र होना था
और जो भी शेष
मैंने तेरे जिस्म में देखा
उस सबकुछ का ज़िक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों के ‘घट्ठों’ ने मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों के नर्म शाल में से
सेंक की लपटें उठनी थीं।

उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और ज़िन्दगी के सारे रिश्तों के लिए
बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे नक़्शे से निपटना
और अगर मैं लिख भी लेता
वो शगनों भरी कविता
तो उसने यूँ ही दम तोड़ देना था।

तुझे और मुझे छाती पर बिलखते छोड़ कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही शक्तिहीन हो गयी है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आये हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों से युद्ध करना बहुत ज़रूरी हो गया है।

युद्ध में
हर चीज़ को बड़ी आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह...
और इस हालत में
मेरे चुम्बन के लिए बढ़े हुए होंठों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा
या तेरी कमर की लहरन को
सागर के साँस लेने की तुलना देना
बहुत हास्यास्पद-सा लगना था
सो, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुझे,
तेरी मेरे आँगन में बच्चे खिला सकने की ख़्वाहिश को
और युद्ध की समुचता को
एक ही क़तार में खड़ा करना मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ
और मैं अब विदा होता हूँ।

मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्ठी की भाँति तपने वाले
अपने गाँव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चाँदनी में रस भरे ‘टोक’¹ के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना बहुत संगीतमय होता है
हाँ, हमें याद रखना पड़ेगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही सुखदाई लगता है।

मैं इस विदाई की घड़ी में धन्यवाद करना चाहता हूँ
उन सब हसीन चीज़ों का
जो हमारी मुलाकातों पर तम्बू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने पर हसीन हो गयीं
मैं धन्यवाद करता हूँ
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी पवन का
जो मेरा दिल लगाये रखती रही तेरा इन्तज़ार करते
आढ़ पर उगे हुए रेशमी घास का
जो तेरी रूमकती हुई चाल के आगे सदा बिछ-बिछ गया
‘टींडों’ में से झड़ी कपास का
जिन्होंने कभी कोई एतराज़ न किया
और सदा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गयी
ईख पर तैनात पिद्दियों का
जिन्होंने आने-जाने वाले की ख़बर रखी
जवान हुए गेहूं का
जो हमें बैठे न सही, लेटे हुए तो ढँकता रहा।

मैं धन्यवाद करता हूँ सरसों के छोटे-छोटे फूलों का
जिन्होंने मुझे कई बार बख़्शा अवसर
पराग-केसर तेरे बालों में से झाड़ने का
मैं मनुष्य हूँ, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूँ
और उन सब चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाये रखा
मेरे पास बहुत शुक्राना है
मैं धन्यवाद करना चाहता हूँ।

प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को सहते हुए
अपने आप को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी हुई गोली का
किसी झोंपड़ी में पड़े रहकर
ज़ख़्म भरने वाले दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है।
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूँज जाना
जीने का यही सलीका होता है।

प्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आएगा
जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया।

जिस्मों का रिश्ता समझ सकना
ज़िन्दगी और नफ़रत में कभी लीक न खींचना
ज़िन्दगी के फैले हुए आकार पर फ़िदा होना
सहम को चीर कर मिलना और विदा होना
बहुत सूरमगति का काम होता है मेरी दोस्त
मैं अब विदा होता हूँ।

तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक़्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुम्बनों ने कितना खूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा
कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे साँचे में ढाला
तू यह सभी कुछ भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके
कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक ज़िन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना मेरी दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना।
––––––––
¹ रस निकाल लेने के बाद बचा ग्न्ने का छिलका।
वफ़ा

वर्षों तड़पकर तेरे लिए
मैं भूल गया हूँ कब से
अपनी आवाज़ की पहचान
भाषा जो मैंने सीखी थी, मनुष्य जैसा लगने के लिए
मैं उसके सारे अक्षर जोड़ कर भी
मुश्किल से तेरा नाम ही बना सका
मेरे लिए वर्ण अपनी ध्वनि खो बैठे बहुत देर से
मैं अब लिखता नहीं–
तेरे धुपहले अंगों की मात्र परछाईं पकड़ता हूँ
कभी तूने देखा है– लकीरों को बगावत करते ?
कोई भी अक्षर मेरे हाथों से
तेरी तस्वीर ही बनकर निकलता है
तू मुझे हासिल है(लेकिन) कदम भर की दूरी से
शायद यह कदम मेरी उम्र से नही
मेरे कई जन्मों से भी बड़ा है
यह कदम फैलते हुए लगातार
घेर लेगा मेरी सारी धरती को
यह कदम माप लेगा मृत आकाशों को
तू देश में ही रहना
मैं कभी लौटूँगा विजेता की तरह तेरे आँगन में
इस कदम को या मुझे
ज़रूर दोनों में से किसी को क़त्ल होना पडे़गा।

कोई तो टुकड़ा

ज़िन्दगी !
तू मुझे यूँ बहलाने की कोशिश मत कर
ये वर्षों के खिलौने बहुत नाजुक हैं
जिसे भी हाथ लगाऊँ
टुकड़ों में बिखर जाता है।
अब इन मुँह चिढ़ाते टुकड़ों को
उम्र कैसे कह दूँ मैं
सखी, कोई तो टुकड़ा
वक़्त के पाँव में चुभ कर
फ़र्श को लाल कर दे !
00
अनुवादक परिचय :
जन्म : 12 अगस्त 1953, कोट कपूरा(पंजाब)
शिक्षा : एम. ए.(कला का इतिहास और इतिहास), पीएच.डी।
अंग्रेजी में पांच पुस्तकें प्रकाशित। इंग्लैंड, इटली, नीदरलैंड, पाकिस्तान तथा भारत की विभिन्न शोध पत्रिकाओं में 40 शोध पत्र प्रकाशित। अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी तथा फारसी की पत्र-पत्रिकाओं में 250 से अधिक लेख प्रकाशित। पाश की समस्त कविताओं का हिंदी अनुवाद “अक्षर-अक्षर” प्रकाशित।
सम्प्रति : प्रभारी, इतिहास विभाग, सरकारी ब्रिजिन्दरा कॉलेज, फरीदकोट(पंजाब)
सम्पर्क : पो.आ. बॉक्स 48, गली नंबर–2, ग्रीन इन्कलेव, कोट कपूरा–151204
दूरभाष : 01635–222418
09872822417
ई मेल : sparihar48@yahoo.co.in

शनिवार, 24 मई 2008

अनूदित साहित्य




पंजाबी कविता

रिश्ता
मनजीत इंदरा

हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र


रिश्ता क्या है ?
इसकी बुनियाद किस पर है ?
कितनी होती है उम्र किसी भी रिश्ते की ?
बहुत लम्बी और शायद बहुत छोटी भी...

रिश्ते दिलों के होते हैं
कभी-कभार दिमाग के भी
पर सिर्फ़ कभी-कभी ही...

रिश्ता रूह, जिस्म या केवल अहसास नहीं होता
रिश्ता पलछिन में नहीं बनता
रिश्ता मज़बूरी भी नहीं होता
और न ही रहम की बुनियाद पर टिकता है रिश्ता
रिश्ते की बुनियाद खोखली नहीं होती
अहसान भी नहीं होता रिश्ता
और न ही फर्ज़...
फर्ज़ी रिश्ते जोड़े जाते हैं
ये बंधन पड़ते नहीं, बांधे जाते हैं...

पर आफ़ताब हमेशा आसमान पर ही रहे
यह भी तो ज़रूरी नहीं
कभी-कभी दिल के आंगन में भी उतर आता है चांद
कभी-कभी माथे पर भी उग आता है सूरज
सेक इस रवि का छाती में सुलगता है, मचता है
पर कभी-कभार यह सेक जलाता है
फ़ना करता है...

पता नहीं किस रिश्ते की अंगुली पकड़ कर चल पड़ी हूँ मैं
पता नहीं किस राह हैं मेरे कदम
पता नहीं इस राह की मंजिल भी होगी कोई कि नहीं ?
दिल कहता है कि मंजिल से क्या लेना
दिमाग वरजता है– निश्चित मंजिल के बिना
रिश्ते या कदमों का
मूल्य ही नहीं कोई...
दिल की दिमाग के आगे कुछ नहीं चलती
जीतता है दिल और हारता भी...

कौन-सा रिश्ता है वह जो पाल रही हूँ मैं ?
कौन-सा पड़ाव है वह जिसकी तलाश में हूँ ?
कौन-से हैं दो पैर जो हमराह हैं मेरे ?
किसकी हैं वो दो आँखें जो मेरे चेहरे पर है ?
और वही आँखें मेरी आमद की प्रतीक्षा करती हैं
वो कान जो मेरे कदमों की आहट के लिए बेचैन है ?

रेत के घर नहीं होते रिश्ते
बारिश की बूंदों को
हथेलियों पर इकट्ठा करने का नाम भी नहीं होता रिश्ता
रिश्ता फूल के खिलने का नाम होता होगा ?
भ्रम-सा... ख़ुदी ही शायद... अहं...
सागर-सी लहर जैसे होते होंगे रिश्ते... शायद नहीं...
ढलते सायों के संग ढल भी जाते होंगे रिश्ते...
नहीं जानती
क्या हैं रिश्ते ? कैसे हैं ?
यह रिश्ता जो पास बैठा है मेरे
मेरे दिल के करीब
नहीं सच तो यह है– मेरे दिल के अंदर
मेरी हस्ती को लपेटे बैठा है
मेरी तमाम ज़िंदगी के हासिल जैसा
क्या है यह ?

कौन-सा उड़ता पंछी या तेज बहती हवा
पल्लू में बांध रही हूँ जिसको ?
किसका दामन है यह
जिसे कसकर पकड़ रही हूँ ?
खुदाया ! तौफ़ीक दे... हिम्मत और हौसला भी...
पार हो जाऊँ इस भंवर में से
पर शायद यह भंवर हो ही न
पानी की लहर भर हो
गुजर जाएगी सिर के ऊपर से
सिर्फ़ भिगोकर ही...

आज का दिन
आज की धूप
आज की आमद
ठंडी शीत फुहार हो...
और यह आज शायद सहज ही कल में बदल जाए
और यह कल जे़हन की चीस बन जाए
यह माथे का सूरज छाती की जलन हो जाए
यह दिल का चंद्रमा अंगारा बन
सब कुछ फूंक दे...

मैं आज हूँ
जो कल भी थी
और कल भी होऊँगी
कल– काला, कड़वा, कुरूप रहा
आज– आजाद परिंदे की तरह उड़ाने भरता...
आज– वर्तमान मेरा
आज– मेरी जुस्तजू, मेरी सुंदरता,
मेरा रूप,
मेरा राह
रौनक मेरी
जिसके पैरों पर उड़ रही हूँ...
यह मेरी जन्नत
मेरा ज़ौक और शौक
उंमगें मेरी
अनंत राहों का उजाला...
भला पूछो, कहाँ उड़ चली हूँ मैं ?
किस अनुपम दुनिया की ओर ले जा रही है यह उड़ान ?
मेरा भ्रम या सच...
सच ! जो सदा सपना हुआ
सच, जो शाश्वत रहा ही नहीं
और फिर कौन-सा सच है यह
जिसे अपने केशों में सजा रही हूँ ?
कौन-सा सच है जिसकी टिकली
सजी मैं मेरे माथे पर ?
कहीं भ्रमजाल ही तो नहीं... छलावा ?... संकट ?...सज़ा ?
इतने सवालिया निशान ????
शायद, इसलिए कि भरोसा तिड़क गया हो... टूट गया हो...
कयास करें तो विश्वास छलावे नहीं होते
पर कई बार भ्रम विश्वास लगता है
और जब टूटता है, उफ !
कोई पूछे– क्यों सह रही हूँ यह संताप ?
किस रिश्ते का कर रही हूँ बार-बार जाप ?
या किस रिश्ते की बुनियाद पर करती हूँ किंतु-परंतु ?

रिश्ता ब्रोच नहीं होता
निर्जीव वस्तु नहीं होता रिश्ता
अनिश्चितता पर आधारित नहीं होता रिश्ता
यह कोई ‘बाय-वे’ नहीं
हाई-वे होता है रिश्ता
सर्वव्यापक
आनंदमयी...
0

(कवयित्री की लंबी कविता ‘तू आवाज़ मारी है’ का आरंभिक अंश है जिसे उनके कविता संग्रह ‘तू आवाज़ मारी है’ से लिया गया है)

कवयित्री संपर्क :
3934, सेक्टर–22–डी
चंडीगढ़
दूरभाष :09876423934

गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

अनूदित साहित्य




पाँच जापानी कविताएं - ज्यून तकामी

हिंदी अनुवाद : अनिल जनविजय
(इस पोस्ट के सभी चित्र : अवधेश मिश्र)

मैं कमज़ोर हूँ

मैं कमज़ोर हूँ
मैं लड़ नहीं सकता
ख़ुद जीने के लिए मैं दूसरों को
जाल में नहीं फँसा सकता

मैं कमज़ोर हूँ
लेकिन मुझे इतना नीचे गिरने में
आती है शरम
कि कत्ल करूँ दूसरों का
ख़ुद जीने के लिए

मैं कमज़ोर हूँ
लेकिन मुझे इतना नीचे गिरने में
आती है शरम
कि दूसरों के शब्दों को कह सकूँ
अपने शब्दों की तरह

मैं कमज़ोर हूँ
0


पैंसिल



बहुत उदास है पैंसिल...

दूर नहीं रही मुझ से कभी जो
मेरी सब कविताओं की माँ है वो
अब घिस गई...

पैंसिल ओ पैंसिल !
मेरे लिए घिस दिया तूने अपना शरीर
सारा जीवन चाकू की झेली तूने पीर
मरने से पहले भी हुई न अधीर
आत्मत्यागी है तू जैसे कोई फकीर

ओ पैंसिल मेरी !
मन में है मेरे विचार कुछ ऎसा
कि बन जाऊँ मैं बिल्कुल तुझ जैसा ।
0


जैसे अंगूर में बीज़ होता है


अंगूर के दाने में जैसे
छिपा होता है बीज़
मेरे मन के भीतर भी वैसे
छिपी है खीज ।


खट्टे अंगूर से बनती है
तेज़ मादक शराब
ओ खीज मेरे दिल की
बन जा तू भी ख़ुशी की आब ।
0

ब्लैक-बोर्ड

अस्पताल के हमारे इस कमरे में
परदे सफ़ेद हैं
शाम का डूबता हुआ सूरज
उनमें रंग भरता है

यह कमरा बिल्कुल वैसा ही है
जैसे हमारे स्कूल का कमरा था
मुझे याद आते हैं अपने वे अध्यापक
अंग्रेज़ी पढ़ाते थे जो हमें
ब्लैक-बोर्ड को ढंग से साफ़ करके
अपनी बगल में दबाकर क़िताब
हमसे विदा लेते थे वे--
"फिर मिलेंगे, दोस्तो !"

जब कक्षा से बाहर निकलते थे वे
शाम के डूबते हुए सूरज की रोशनी
उनके कंधों पर लहराती थी

मैं भी जाना चाहता हूँ जीवन से
सब कुछ पूरी तरह साफ़ कर
"फिर मिलेंगे, दोस्तो !" कहते हुए
वैसे ही जैसे मेरे अध्यापक
पाठ ख़त्म करके कक्षा से निकलते थे।


जैसे एन्कू ने बुद्ध की मूर्ति बनाई



मैं वैसे ही कविता
लिखना चाहता हूँ
जैसे एन्कू ने बुद्ध की मूर्ति बनाई

मैं वैसे ही रिरियाना
चाहता हूँ कविता में
जैसे कोई चोट खाया कुत्ता किंकियाता है

मैं चाहता हूँ कि वैसी ही
चमकदार हों मेरी कविताएँ
जैसे पीले-पीले चमकते हैं गेंदे के फूल

मैं वैसी ही सरलता के साथ
लिखना चाहता हूँ कविताएँ
जैसे उड़ते-उड़ते चिड़िया गिराती है बीट

और कभी-कभी मैं इतनी ज़ोर से
कविताएँ पढ़ना चाहता हूँ
जैसे गूँजती है सीटी जलयान की रवाना होने से पहले।
0


अनुवादक संपर्क :
अनिल जनविजय
मास्को विश्वविद्यालय, मास्को
ई मेल : aniljanvijay@gmail.com

मंगलवार, 18 मार्च 2008

अनूदित साहित्य

दो मराठी कविताएं – सिसिलिया कार्व्हालो
हिंदी अनुवाद : अनामिका

(1)


गठिया से दुखती उंगलियों पर
उम्मीद रख कर आयोडेक्स मलने जैसे निरर्थक
इस सालते अपने मन पर मैं
कविता चुपड़ना चाहती हूँ फिर
सब के प्रति कड़वा गुस्सा भर आता है…
इस लादे हुए औरतपन पर घृणा करते-करते
क्यों संभालने लगती हूँ अपने कंधे का पल्लू ?
इस विचार से मैं खुद ही को कोसती हूँ
यह भाषा मुझे पराई लगती है
पुरुष की नज़रों की तरह
मेरे अनजाने ही मुझे गढ़ने का हक
भूतकाल के पास गिरवी पड़ा है
इस बात पर भी झुंझलाहट…

इस झुंझलाने का कोई अर्थ नहीं शायद!

फिर भी मुझे दिखाई देती है
यह कविता विराट माया है
पुरुषार्थ को गोद में लिए
स्तनपान कराती हुई।

(2)


अपने पर सारा विश्वास मर जाए तो
हे परमेश्वर !
आत्महत्या का मार्ग बचा कर रख
यह खूबसूरत ज़िंदगी
एक-दूसरे को कठिन व अशक्य बनाने वाले
इन दिनों में
सारे रिश्ते तोड़ते समय
भीतर शांति तो बनाए रख।
बचा ले अपने लोहारी फेफड़ों से
मेरी बची हुई सांसें
और तख़्ती को कोरा-साफ़ रख
न जन्म लिख्नने के वास्ते।
0
(अनामिका द्वारा संपादित और इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित पुस्तक "कहती हैं औरतें" से साभार)


अनुवादक संपर्क :
डी–।।/83, किदवई नगर वेस्ट,
नई दिल्ली।
दूरभाष : 011–24105588
ई मेल : anamika1961@yahoo.co.in

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

अनूदित साहित्य

तीन ओड़िया कविताएं
ओड़िया से हिंदी अनुवाद : महेन्द्र शर्मा


काली लड़की
दुर्गाप्रसाद पण्डा


काली लड़की
अकेली कालेज जाए
गोरी लड़कियों की विद्रूप हंसी पार कर
कोई भी नहीं रखे हिसाब
उसके आने-जाने का।

काली लड़की आये तो क्या, जाए तो क्या
वह चले तो आये नहीं, चाय-कप में तूफान
चमके नहीं बिजली
काली लड़की हँसे तो
उठें नहीं किसी के मन में लहरें।

किसी गरम आलोचना में नहीं होता
काली लड़की का नाम
सबके अपमान को सहज
हज़म कर दे काली लड़की।

दु:ख को साथ लिए घूमे
दीवारों से बातचीत करे
कोई भूल से भी पड़े नहीं
काली लड़की के प्रेम में।

सपने देखने से खूब डरे काली लड़की
और सुबह दर्पण से
उसको लगे सबसे अधिक भय।
0
दुर्गाप्रसाद पण्डा- ओड़िया के नव दृष्टि-संपन्न कवि। दो काव्य-संकलन प्रकाशित। हिंदी-अंग्रेजी में कुछ कविताओं का अनुवाद प्रकाशित। संपर्क : जगन्नाथ कालोनी, बूढ़ा राजा, संबलपुर(ओड़िसा)।

प्रस्तुति
सुचेता मिश्र

एक खुशखबरी लाने गया इन्सान
एक दिन ज़रूर लौटेगा !

उससे तुमने कहा है-
राजा-रानी का विवाद
चाँद पर पहुँचे आदमी की असुविधाएं
मानचित्र को रौंदती
शीत युद्ध की समस्या

उसने तुमसे सिर्फ
एक सवाल पूछा है-
खेत से जाकर शस्य कहाँ रहते हैं?

तुमने उसे किस ठिकाने भेजा है
अधगढ़े भाग्य
एक संकल्प का व्यंग्य लिए
वह गया तो गया है।

अगर वह थक गया है
तुम खुश मत होओ
अगर मर गया है
तो भी नहीं
पुनर्जन्म की तरह लौटेगा वह।

तुम छिपा रखो
सारे अस्त्र-शस्त्र
वह अपनी छाती भीतर परमाणु को
युद्ध में लगाना सीख चुका होगा।

कविता को बदलो मत
सुचेता मिश्र

कुल्हाड़ी-सी
तमाम अमानवीय चमक के खिलाफ
खड़ी होना चाहे कविता।

तुम अपार करुणा की बात करते हो
कविता अपने भीतर
जलाये रखना चाहे आग
अकाल पीड़तों का शव-संस्कार कर
तुम लौट आ सकते हो
एक पवित्र संग्राम का
दृष्टांत तलाशने
मृत लोगों के घर तक भी
पहुँचना चाहे कविता।

अत्याचार तब्दील होता समाचार में
कभी भी छ्पता नहीं
मनुष्य का अपमान
कविता को बदलो मत
तुम्हारे अपमान को
एक शाश्वत नाम देने
लड़ना चाहे कविता।

जब रिलीफ कापी में लिखा जाए
मृत आदमी का नाम
और उसके भाग्य का चावल जाए
भव्य रसोई में
जब भाषण में सुनाई दे
कविता की नकल
फसल और पंक्तियों को बचाये रखने
जिस किसी विस्फोटक के सामने
खड़ी हो सकती है कविता।

कविता को बदलो मत
सारे दिग्विजय
सारे राज्याभिषेक के बाद भी
इतिहास में सिर्फ रह जाए
जो थोड़ी-सी कम जगह
वहाँ रहना चाहे कविता
कविता को बदलो मत।
0
सुचेता मिश्र- ओड़िया की प्रखर कवयित्री। कविता की आठ-नौ पुस्तकें प्रकाशित। हिंदी-अंग्रेजी में बहुत-सी कविताएं अनूदित-प्रकाशित। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित। संपर्क : ओल्डलीड बैंक लेन, पुलिस लाइन, पुरी-1, ओड़िसा।


अनुवादक संपर्क :
महेन्द्र शर्मा, नं-6/503, आइ आर सी विलेज
भुवनेश्वर-15(ओड़िसा)

(उपर्युक्त तीनों कविताएं “वर्तमान साहित्य” के फरवरी 2008 अंक से साभार)

रविवार, 13 जनवरी 2008

अनूदित साहित्य

कवि, कथाकार और साहित्यिक अनुवादक :
कुप्रियानफ़ विचिस्लाव ग्लेबाविच

“विचिस्लाव कुप्रियानफ़ का जन्म 1939 में नवासिबीर्स्क नगर में हुआ। 1958 से 1960 तक वे लेनिनग्राद के उच्च नौसेना कालेज में हथियार इंजीनियरिंग की शिक्षा लेते रहे। फिर 1967 में उन्होंने मास्को विदेशी भाषा संस्थान के अनुवाद संकाय से एम.ए. किया। लम्बे समय तक वे 'ख़ुदोझेस्तविन्नया लितरातूरा' (ललित साहित्य) प्रकाशन गृह के लिए अनुवाद और सम्पादन का कार्य करते रहे। फिर सोवियत लेखक संघ में कार्यरत रहे। इसके अलावा राष्ट्रीय किशोर पुस्तकालय द्वारा आयोजित 'लाल परचम' साहित्य सभा के संयोजक रहे।

विचिस्लाव कुप्रियानफ़ ने छात्र जीवन में ही अनुवाद करना शुरू कर दिया था। सबसे पहले उन्होंने रेनर मारिया रिल्के की कविताओं का मूल जर्मन से रूसी में अनुवाद किया। इसके अलावा सीधे जर्मन, अंग्रेज़ी, फ़्रांसिसी और स्पानी भाषाओं से 'ललित साहित्य' प्रकाशन गृह के लिए उन्होंने दर्जनों कवियों की ढेरों पुस्तकों के अनुवाद किए। इसके अलावा अरमेनियाई, लातवियाई, लिथुआनियाई तथा एस्तोनियाई लेखकों की रचनाओं का भी रूसी में अनुवाद
किया ।

1961 में कुप्रियानफ़ की कविताएँ पहली बार प्रकाशित हुईं। 1970 से वे गद्य भी लिखने लगे। 1981 में उनका पहला कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक था- 'सीधे-सीधे'। आलोचकों ने बड़े जोश से इस क़िताब का स्वागत किया। जल्दी ही सभी यूरोपीय भाषाओं में इनकी कविताओं के अनुवाद छपने लगे। हिन्दी की पत्रिकाओं में सबसे पहले 1984-85 में अनिल जनविजय ने और फिर 1990 के आसपास वरयाम सिंह ने कुप्रियानफ़ की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित कराए। श्रीलंका में इनकी कविताओं की एक पुस्तक तमिल भाषा में प्रकाशित हो चुकी है। अब तक तीस से ज़्यादा भाषाओं में कुप्रियानफ़ की कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। विचिस्लाव कुप्रियानफ़ को रूसी आलोचक रूस में छ्न्द रहित नई कविता का प्रवर्तक मानते हैं।" विचिस्लाव कुप्रियानफ़ के विषय में यह टिप्पणी और उनकी दस कविताओं का हिंदी अनुवाद “सेतु साहित्य” के लिए हिंदी के जाने-माने लेखक, कवि और अनुवादक अनिल जनविजय से हमें प्राप्त हुआ है।


दस रूसी कविताएं -विचिस्लाव कुप्रियानफ़
प्रस्तुति व हिंदी अनुवाद : अनिल जनविजय

1. साँप

अन्त नहीं है उसका
कि ठहर जाए कहीं
और पंख नहीं हैं
कि उड़ जाए
धीरे-धीरे सरकता है वह
छाती से छाती पर
००

2. अमरीका

सागर के उस किनारे पर
रहने वाले
कुछ अदृश्य लोग
शोर कर रहे हैं
बहुत ज़्यादा
००

3. तुम

तुम जब गुज़रती हो पास से
तुम्हारे कन्धे पर होती है चिड़िया
या तितली
या फिर कोई सितारा
या बोझ

तुम्हारे इन ख़ूबसूरत कंधों को
छू सकता है अपनी हथेलियों से
सिर्फ़ तुम्हारा पति
या प्रेमी

बाक़ी दूसरे लोग
बस देख सकते हैं इन्हें
या सुन सकते हैं इनके बारे में
उन लोगों से
जो गुज़र चुके हैं कभी
तुम्हारे निकट से
००

4. ख़ून का रिश्ता

मैं कुछ देखना नहीं चाहता
मैं कुछ सुनना भी नहीं चाहता
और कुछ कहूंगा भी नहीं

होंठ काटता हूँ अपने
महसूस करता हूँ
ख़ून का स्वाद

आँखें बन्द करता हूँ
देखता हूँ रंग
ख़ून का

कान बन्द करता हूँ
सुनता हूँ ख़ून की आवाज़

नहीं, सम्भव नहीं है
ख़ुद में ही सिमट जाना
और तोड़ लेना इस दुनिया से
ख़ून का नाता

सिर्फ़ एक ही रास्ता है
हमेशा हम
बोलते और सुनते रहें
सुनते और बोलते रहें
शब्द बसे हैं हर किसी के ख़ून में

5. गायन-पाठ (एक)

आदमी ने ईजाद किया पिंजरा
पंखों से पहले
और अब पिंजरों में गाते हैं पंख
गीत स्वतन्त्र उड़ान का

जबकि पिंजरों के सामने
गाते हैं पंखहीन
पिंजरों के न्याय के गीत

पक्षी और पिंजरा
गा सकते हैं एक साथ
लेकिन उड़ नहीं सकते

उड़ सकते हैं एक साथ
सिर्फ़ पंख और आकाश ही
००

6. गायन-पाठ (दो)

पक्षी गा रहे हैं
हम लोगों से डरते हैं
और हम गाते हैं
डर के मारे

मछलियाँ गा रही हैं
हम लोगों से डरती हैं
और हम चुप हैं
डर के मारे

जानवर गा रहे हैं
हम लोगों से डरते हैं
और हम गुर्रा रहे हैं
डर के मारे

लोग गा रहे हैं
हम जानवर नहीं हैं
डरिए नहीं

पर भाग गए सब
उड़ गए इधर-उधर
तैर गए इधर-उधर
डर के मारे
और लोग गा रहे हैं
००

7. पुरूष का हाथ

पुरूष का हाथ
स्त्री और बच्चे की हथेलियाँ थाम
उठता है पक्ष में या विरोध में

और विरोध में ठहरकर
निर्माण करता है
क़िताबों के पन्ने पलटता है
सहारा देता है स्वप्नरहित सिर को
फिर ढूंढता है दूसरी हथेली
सम्बन्ध के लिए
००

8. दम्भ

हर रात मृतक
उठ खड़ा होता है कब्र से
और छू कर देखता है कब्र का पत्थर

कहीं किसी ने
मिटा तो नहीं दिया
पत्थर पर से उसका नाम
००

9. सफ़ेद लबादा

कवि को दीजिए सफ़ेद लबादा
छद्म आवरण
जब आक्रमण करती है बर्फ़ीली ठंड

गुप्त टोही है वह
शत्रु की ख़बर लाता है
देता है आशा की गुनगुनी गरमाहट
फूलों की गुप्त भाषा में

कवि को दीजिए सफ़ेद लबादा
वह उपचारक है, चिकित्सक है, विरला विशेषज्ञ है
आत्मा का रक्षक है
अकेला ठीक कर सकता है जो
मानव के टूटे हुए पंख

यह वायदा करने की
जल्दी मत कीजिए
कि आप उसे देंगे ईनाम

कवि को दीजिए सफ़ेद लबादा
उसका श्रम
मांगता है सफ़ाई
००

10. समय की आत्मकथा

मेरे बारे में हमेशा कहा जाता है कि
मैं नहीं हूँ
पर मैं चलता रहता हूँ हमेशा

मैं उनकी प्रतीक्षा नहीं करता
जो मुझे ढूंढ नहीं पाते
उनके पास से दूर चला जाता हूँ
जो चाहते हैं मुझे मूर्ख बनाना

ठहर जाता हूँ मैं उनके पास
जिनके पास महसूस करता हूँ अपनापन
जिनके प्यार भरे दिल में जगह है मेरे लिए
और मेरी सुइयों की कद्र है

आख़िर
मेरी पहुँच में है
सब कुछ
००


अनुवादक संपर्क :
अनिल जनविजय
मास्को विश्वविद्यालय, मास्को
ई मेल : aniljanvijay@gmail.com