शनिवार, 29 सितंबर 2007

अनूदित साहित्य


लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
रुपिंदर मान
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)


लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
जब हँसती हैं तो यूं लगती हैं
जैसे अनार ने मुँह खोला हो

रोते समय फव्वारे-सी होती हैं
सहमी हों तो
बिल्ली से डरे कबूतर जैसी
खामोश होती हैं तो
सरोवर में शांत पानी-सी लगती हैं
गुनगुनाती हैं तो
हौले-हौले बहती बयार की
‘सन-सन’ बन जाती हैं
बेचैन होती हैं
दरिया के वेग-सी लगती हैं
ख़रमस्तियाँ करते हुए
समुन्दर की लहरें बन जाती हैं

लड़कियाँ बहुत ही अच्छी होती हैं
धीमे-धीमे चलती हैं तो
टीलों से फिसलकर गुजरती हवाएं लगती हैं
नहा कर निकलती हैं तो
सुल्फे की लपट-सी दहकती हैं
अंधेरे में दौड़ती हैं तो
जलती-बुझती मोमबत्तियाँ लगती हैं
लड़कियाँ तो आग की नदियाँ हैं
सुस्ताती हैं तो और भी हसीन लगती हैं

लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
रूठ जाती हैं तो बड़ा तंग करती हैं
जीत कर भी हारती हैं
हर ज्यादती को सहती हैं
मेमना बन कर पांवों में लेटती हैं
गुस्से-गिले को दूर फेंकती हैं
लड़कियों के बग़ैर लड़के निरे भेड़ा हैं
जंगल में गुम हुए कुत्ते-से
या फिर
शहर में खो गए ग्रामीण-से…

लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं।
·

(‘लकीर-94’ से साभार)



बेटियाँ
सुरिंदर ढिल्लों
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)

मेरी बेटी
गहरी नींद में सो रही है
सूरज अपने पूरे जोबन पर आ चुका है
मैं बेटी को
प्यार से उठाने की कोशिश करता हूँ
पर वह करवट बदल कर
फिर गहरी नींद में सो जाती है

अब मैं खीझ कर
फिर से उसे उठाने लगता हूँ
तो मेरी बेटी उनींदी आँखों से
मेरी ओर देखती है
मानो वास्ता दे रही हो
‘पापा…
मुझे बचपन की नींद तो
जी-भरकर ले लेने दो
फिर तो मैंने
सारी उम्र ही जागना है…।
·
(‘लकीर-98’ से साभार)

अनूदित साहित्य



लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
रुपिंदर मान
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)


लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
जब हँसती हैं तो यूं लगती हैं
जैसे अनार ने मुँह खोला हो

रोते समय फव्वारे-सी होती हैं
सहमी हों तो
बिल्ली से डरे कबूतर जैसी
खामोश होती हैं तो
सरोवर में शांत पानी-सी लगती हैं
गुनगुनाती हैं तो
हौले-हौले बहती बयार की
सन-सनबन जाती हैं
बेचैन होती हैं
दरिया के वेग-सी लगती हैं
ख़रमस्तियाँ करते हुए
समुन्दर की लहरें बन जाती हैं

लड़कियाँ बहुत ही अच्छी होती हैं
धीमे-धीमे चलती हैं तो
टीलों से फिसलकर गुजरती हवाएं लगती हैं
नहा कर निकलती हैं तो
सुल्फे की लपट-सी दहकती हैं
अंधेरे में दौड़ती हैं तो
जलती-बुझती मोमबत्तियाँ लगती हैं
लड़कियाँ तो आग की नदियाँ हैं
सुस्ताती हैं तो और भी हसीन लगती हैं

लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
रूठ जाती हैं तो बड़ा तंग करती हैं
जीत कर भी हारती हैं
हर ज्यादती को सहती हैं
मेमना बन कर पांवों में लेटती हैं
गुस्से-गिले को दूर फेंकती हैं
लड़कियों के बग़ैर लड़के निरे भेड़ा हैं
जंगल में गुम हुए कुत्ते-से
या फिर
शहर में खो गए ग्रामीण-से

लड़कियाँ बहुत अच्छी होती हैं
·
(‘लकीर-94से साभार)


बेटियाँ
सुरिंदर ढिल्लों
(मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)


मेरी बेटी
गहरी नींद में सो रही है
सूरज अपने पूरे जोबन पर चुका है
मैं बेटी को
प्यार से उठाने की कोशिश करता हूँ
पर वह करवट बदल कर
फिर गहरी नींद में सो जाती है

अब मैं खीझ कर
फिर से उसे उठाने लगता हूँ
तो मेरी बेटी उनींदी आँखों से
मेरी ओर देखती है
मानो वास्ता दे रही हो
पापा
मुझे बचपन की नींद तो
जी-भरकर ले लेने दो
फिर तो मैंने
सारी उम्र ही जागना है…।
·
(‘लकीर-98से साभार)

शनिवार, 22 सितंबर 2007

अनूदित साहित्य


सेतु साहित्य के पिछले अंक पर भारत से ही नहीं वरन विदेशों से भी ढेरों ई-मेल प्राप्त हुए हैं, जो नि:संदेह उत्साहवर्धक हैं। जिन्होंने हमारे इस अकिंचन प्रयास पर अपनी राय व्यक्त करके हमारा हौसला बढ़ाया, हम उन सबका हृदय से आभार व्यक्त करते हैं और आशा करते हैं कि भविष्य में भी वे अपना स्नेह-प्यार बनाये रखेंगे और समय-समय पर अपनी बेबाक राय देकर “सेतु साहित्य” को और बेहतर बनाने में अपना योगदान देते रहेंगे। इस संदर्भ में “सेतु साहित्य” को लेखकों, अनुवादकों से भी सहयोग अपेक्षित है। उनसे अनुरोध है कि वे “सेतु साहित्य” के लिए उत्कृष्ट साहित्य का ही अनुवाद भेजें और अनुवाद भेजने से पहले निम्न बातों को भी ध्यान में रखें –

Ø “सेतु साहित्य” एक अव्यवसायिक ब्लाग-पत्रिका है और लेखक-अनुवादकों को किसी भी प्रकार का मानदेय दे पाने की स्तिथि में नहीं है।
Ø रचनायें केवल 'कृतिदेव’ फोन्ट अथवा यूनिकोड(मंगल) में ही ई-मेल से भेजी जानी चाहिएं। अनुवाद किसी भी भारतीय भाषा के साहित्य से हो सकता है। छोटी रचनाओं का ही अनुवाद अपेक्षित है जैसे- लघुकथा, कविता और कहानी।
Ø मूल लेखक की अनुमति-सहमति लेने की जिम्मेदारी अनुवादक की है और उसे इस बारे में स्पष्ट उल्लेख करना होगा कि उसने मूल लेखक की अनुमति-सहमति ले रखी है।
Ø अनुवादक अपना और मूल लेखक का संक्षिप्त परिचय और चित्र भी भेज सकते हैं।
Ø रचनायें अथवा अपनी प्रतिक्रिया subhneerav@gmail.com पर भेजें।
-संपादक

सेतु साहित्य में ‘अनूदित साहित्य’ के अंतर्गत इस बार प्रस्तुत हैं, डा.सुतिंदर सिंह नूर की कविताओं का हिन्दी अनुवाद। डा. सुतिंदर सिंह नूर पंजाबी के वरिष्ठ कवि, गहन चिंतक और प्रखर आलोचक हैं। डा. नूर की पंजाबी में पाँच कविता पुस्तकें (‘विरख निपत्तरे’, ‘कविता दी जलावतनी’, ‘सरदल दे आर-पार’, ‘मौलसिरी’ और ‘नाल-नाल तुरदियाँ’), एक कविता-संग्रह हिंदी में (साथ-साथ चलते हुए) तथा आलोचना की लगभग ढाई दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक पुस्तकों का संपादन किया है। यू.के., अमेरिका, थाईलैंड, पाकिस्तान में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठियों और सेमिनारों में शिरकत की है। डा. नूर भारतीय साहित्य अकादमी, पंजाबी साहित्य अकादमी, दिल्ली, भाषा विभाग, पंजाब के साथ-साथ सफ़दर हाशमी तथा अनेक भारतीय तथा अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं। दिल्ली विश्ववि़द्यालय से सेवा-निवृत्त है और फिलहाल पंजाबी अकादमी, दिल्ली की पत्रिका ‘समदर्शी’ के सम्पादक हैं।

प्यार और किताब
सुतिंदर सिंह नूर


प्यार करने
और किताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता

कुछ किताबों का हम
मुख्य पृष्ठ देखते हैं
अन्दर से बोर करती है
पृष्ठ पलटते हैं और रख देते हैं।

कुछ किताबें हम
रखते हैं सिरहाने
अचानक जब नींद से जागते हैं
तो पढ़ने लगते हैं

कुछ किताबों का
शब्द-शब्द पढ़ते हैं
उनमें खो जाते हैं
बार-बार पढ़ते हैं
और आत्मा तक बसा लेते हैं

कुछ किताबों पर
रंग-बिरंगे निशान लगाते हैं
प्रत्येक पंक्ति पर रीझते हैं
और कुछ किताबों के
नाजुक पन्नों पर
निशान लगाने से भी डरते हैं

प्यार करने
और किताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता।


घरों से चले गये मित्रो
सुतिंदर सिंह नूर


घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
खेत तड़प कर बंजर हो जाएं
मिट्टी की प्यास मर जाए
बालियाँ भूल जाएं मूक जुबां में बोलना
पंछी भूल जाएं परों को तौलना

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
प्रतीक्षा, प्रतीक्षा करते-करते बूढ़ी हो जाए
क्षितिज की ओर ताकती आँखें पथरा जाएं
सपने, उदास शामें, अंधेरी रातें
कभी श्मसान और कभी कब्र बन जाएं

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
सितारे भूल जाएं गर्दिशें
अंतरिक्ष बिखर जाए चिंदी-​चिंदी होकर
रंगों-सुगंधों के अर्थ गुम हो जाएं
रातें सुर्ख सूर्यों को पी जाएं

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
विषधर समय को डस लें
निगल जाएं तुम्हारे कदमों के निशान
और बहुत दूर निकल गये तुम
बिसरा बैठो पंगडंडियाँ, चरागाह और मुंडेरें

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सुतिंदर सिंह नूर


कविता को उगने दो अपने अंदर
एक वृक्ष की तरह
और वृक्ष को करने दो बातें
हवा से, धूप से,
बरसते पानी से
तूफानों से।

वृक्षों के खोड़ों में
पंछियों को खो जाने दो
चिहु-चिहु करने दो
और घोंसले बनाने दो।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरजमुखी के फूल की तरह
जो आकाश की ओर देखता है
महकता है, विकसित होता है
आज़ाद हवाओं में साँस लेता
किसे का मोहताज नहीं होता
और वीरान जंगलों में
कोसों दूर जाते कारवां को भी
हांक मार लेता है।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरज की तरह
जो क्षणों में
वनों, तृणों, दरियाओं
और समुन्दरों पर फैल जाता है।
सीने में अग्नि संभाले
ब्रह्मांड से बातें करता
किरण दर किरण
निरंतर चले जाता है।

कविता को उगने दो अपने अंदर
चांदनी की तरह
जिसके मद्धम-मद्धम सरोद में
हम रूह तक भीग जाते हैं
क्षितिज तक फैली
शांत गहरी रात में
दूधिया किरणों के जाम
दिल के अँधेरे कोनों तक
एक सांस में पी जाते हैं।

कविता को उगने दो अपने अंदर
वृक्ष की तरह
सूरजमुखी की तरह
सूरज की तरह
चांदनी की तरह!
00
(हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव)


कवि सम्पर्क-
डी-132, मान सरोवर गार्डन
नई दिल्ली-110015
दूरभाष : 092120-68229, 098113-05661

अनूदित साहित्य

सेतु साहित्य के पिछले अंक पर भारत से ही नहीं वरन विदेशों से भी ढेरों ई-मेल प्राप्त हुए हैं, जो नि:संदेह उत्साहवर्धक हैं। जिन्होंने हमारे इस अकिंचन प्रयास पर अपनी राय व्यक्त करके हमारा हौसला बढ़ाया, हम उन सबका हृदय से आभार व्यक्त करते हैं और आशा करते हैं कि भविष्य में भी वे अपना स्नेह-प्यार बनाये रखेंगे और समय-समय पर अपनी बेबाक राय देकर “सेतु साहित्य” को और बेहतर बनाने में अपना योगदान देते रहेंगे। इस संदर्भ में “सेतु साहित्य” को लेखकों, अनुवादकों से भी सहयोग अपेक्षित है। उनसे अनुरोध है कि वे “सेतु साहित्य” के लिए उत्कृष्ट साहित्य का ही अनुवाद भेजें और अनुवाद भेजने से पहले निम्न बातों को भी ध्यान में रखें

Ø “सेतु साहित्य” एक अव्यवसायिक ब्लाग-पत्रिका है और लेखक-अनुवादकों को किसी भी प्रकार का मानदेय दे पाने की स्तिथि में नहीं है।
Ø रचनायें केवल 'कृतिदेव’ फोन्ट अथवा यूनिकोड(मंगल) में ही ई-मेल से भेजी जानी चाहिएं। अनुवाद किसी भी भारतीय भाषा के साहित्य से हो सकता है। छोटी रचनाओं का ही अनुवाद अपेक्षित है जैसे- लघुकथा, कविता और कहानी।
Ø मूल लेखक की अनुमति-सहमति लेने की जिम्मेदारी अनुवादक की है और उसे इस बारे में स्पष्ट उल्लेख करना होगा कि उसने मूल लेखक की अनुमति-सहमति ले रखी है।
Ø अनुवादक अपना और मूल लेखक का संक्षिप्त परिचय और चित्र भी भेज सकते हैं।
Ø रचनायें अथवा अपनी प्रतिक्रिया subhneerav@gmail.com पर भेजें।
-संपादक

सेतु साहित्य मेंअनूदित साहित्य’ के अंतर्गत इस बार प्रस्तुत हैं, डा.सुतिंदर सिंह नूर की कविताओं का हिन्दी अनुवाद। डा. सुतिंदर सिंह नूर पंजाबी के वरिष्ठ कवि, गहन चिंतक और प्रखर आलोचक हैं। डा. नूर की पंजाबी में पाँच कविता पुस्तकें (‘विरख निपत्तरे’, ‘कविता दी जलावतनी’, ‘सरदल दे आर-पार’, ‘मौलसिरी’ और ‘नाल-नाल तुरदियाँ’), एक कविता-संग्रह हिंदी में (साथ-साथ चलते हुए) तथा आलोचना की लगभग ढाई दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक पुस्तकों का संपादन किया है। यू.के., अमेरिका, थाईलैंड, पाकिस्तान में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठियों और सेमिनारों में शिरकत की है। डा. नूर भारतीय साहित्य अकादमी, पंजाबी साहित्य अकादमी, दिल्ली, भाषा विभाग, पंजाब के साथ-साथ सफ़दर हाशमी तथा अनेक भारतीय तथा अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं। दिल्ली विश्ववि़द्यालय से सेवा-निवृत्त है और फिलहाल पंजाबी अकादमी, दिल्ली की पत्रिका ‘समदर्शी’ के सम्पादक हैं।

प्यार और किताब
सुतिंदर सिंह नूर


प्यार करने
और किताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता

कुछ किताबों का हम
मुख्य पृष्ठ देखते हैं
अन्दर से बोर करती है
पृष्ठ पलटते हैं और रख देते हैं।

कुछ किताबें हम
रखते हैं सिरहाने
अचानक जब नींद से जागते हैं
तो पढ़ने लगते हैं

कुछ किताबों का
शब्द-शब्द पढ़ते हैं
उनमें खो जाते हैं
बार-बार पढ़ते हैं
और आत्मा तक बसा लेते हैं

कुछ किताबों पर
रंग-बिरंगे निशान लगाते हैं
प्रत्येक पंक्ति पर रीझते हैं
और कुछ किताबों के
नाजुक पन्नों पर
निशान लगाने से भी डरते हैं

प्यार करने
और किताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता।


घरों से चले गये मित्रो
सुतिंदर सिंह नूर


घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
खेत तड़प कर बंजर हो जाएं
मिट्टी की प्यास मर जाए
बालियाँ भूल जाएं मूक जुबां में बोलना
पंछी भूल जाएं परों को तौलना

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
प्रतीक्षा, प्रतीक्षा करते-करते बूढ़ी हो जाए
क्षितिज की ओर ताकती आँखें पथरा जाएं
सपने, उदास शामें, अंधेरी रातें
कभी श्मसान और कभी कब्र बन जाएं

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
सितारे भूल जाएं गर्दिशें
अंतरिक्ष बिखर जाए चिंदी-​चिंदी होकर
रंगों-सुगंधों के अर्थ गुम हो जाएं
रातें सुर्ख सूर्यों को पी जाएं

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
विषधर समय को डस लें
निगल जाएं तुम्हारे कदमों के निशान
और बहुत दूर निकल गये तुम
बिसरा बैठो पंगडंडियाँ, चरागाह और मुंडेरें

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सुतिंदर सिंह नूर


कविता को उगने दो अपने अंदर
एक वृक्ष की तरह
और वृक्ष को करने दो बातें
हवा से, धूप से,
बरसते पानी से
तूफानों से।

वृक्षों के खोड़ों में
पंछियों को खो जाने दो
चिहु-चिहु करने दो
और घोंसले बनाने दो।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरजमुखी के फूल की तरह
जो आकाश की ओर देखता है
महकता है, विकसित होता है
आज़ाद हवाओं में साँस लेता
किसे का मोहताज नहीं होता
और वीरान जंगलों में
कोसों दूर जाते कारवां को भी
हांक मार लेता है।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरज की तरह
जो क्षणों में
वनों, तृणों, दरियाओं
और समुन्दरों पर फैल जाता है।
सीने में अग्नि संभाले
ब्रह्मांड से बातें करता
किरण दर किरण
निरंतर चले जाता है।

कविता को उगने दो अपने अंदर
चांदनी की तरह
जिसके मद्धम-मद्धम सरोद में
हम रूह तक भीग जाते हैं
क्षितिज तक फैली
शांत गहरी रात में
दूधिया किरणों के जाम
दिल के अँधेरे कोनों तक
एक सांस में पी जाते हैं।

कविता को उगने दो अपने अंदर
वृक्ष की तरह
सूरजमुखी की तरह
सूरज की तरह
चांदनी की तरह!
00
(हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव)


कवि सम्पर्क-
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नई दिल्ली-110015दूरभाष : 092120-68229, 098113-05661

रविवार, 16 सितंबर 2007

अनूदित साहित्य

सेतु साहित्य ब्लाग-पत्रिका का आरम्भ भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य को अनुवाद के माध्यम से विश्वभर के हिन्दी प्रेमियों को अंतर्जाल पर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 14 अगस्त, 2007 को किया गया था। शुरुआत हमने केवल ‘लघुकथा’ विधा से की थी लेकिन अब हम साहित्य की हर विधा यथा- कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, लघुकथा, संस्मरण आदि में किसी भी भारतीय भाषा में लिखे गये उत्कृष्ट साहित्य के अनुवाद को प्रकाशित करना चाहते हैं। इस संदर्भ में “सेतु साहित्य” को लेखकों, अनुवादकों से सहयोग अपेक्षित है। “सेतु साहित्य” के लिए भेजे गये अनुवाद का हम स्वागत और सम्मान करेंगे। लेखकों, अनुवादकों से अनुरोध है कि वे “सेतु साहित्य” के लिए उत्कृष्ट साहित्य का ही अनुवाद भेजें और अनुवाद भेजने से पहले निम्न बातों को भी ध्यान में रखें –

Ø “सेतु साहित्य” एक अव्यवसायिक ब्लाग-पत्रिका है और लेखक-अनुवादकों को किसी भी प्रकार का मानदेय दे पाने की स्तिथि में नहीं है।
Ø रचनायें केवल 'कृतिदेव’ फोन्ट अथवा यूनिकोड(मंगल) में ही ई-मेल से भेजी जानी चाहिएं।
Ø मूल लेखक की अनुमति-सहमति लेने की जिम्मेदारी अनुवादक की है और उसे इस बारे में स्पष्ट उल्लेख करना होगा कि उसने मूल लेखक की अनुमति-सहमति ले रखी है।
Ø अनुवादक अपना और मूल लेखक का संक्षिप्त परिचय और चित्र भी भेज सकते हैं।
Ø रचनायें www.subhneerav@gmail.com पर ही भेजी जायें।
-संपादक
सेतु साहित्य में ‘अनूदित साहित्य’ के अंतर्गत इस बार प्रस्तुत हैं, विशाल और बलबीर माधोपुरी की कविताओं का हिन्दी अनुवाद-

जब मैं लौटूंगा
विशाल

माँ ! जब मैं लौटूंगा
उतना नहीं होऊँगा
जितना तूने भेजा होगा
कहीं से थोड़ा...कहीं से ज्यादा
उम्र जितनी थकावट
युगों–युगों की उदासी
आदमी को खत्म कर देने वाली राहों की धूल
बालों में आई सफ़ेदी
और क्या वापस लेकर आऊँगा...

क्या मैं तुझे बता सकूँगा
कि रोज मेरे अंदर
एक कब्र सांस लेती थी
कि कैसे अपने आप को
जिंदा भ्रम में रखने के लिए
अपने ही कमरे में
प्रवेश करते समय दरवाजा थपथपाता था
यह जानते हुए भी कि
कोई दरवाजा नहीं खोलेगा
और न ही किसी ने आलिंगन में लेना है
न ही किसी ने घूर कर देखना है
न ही किसी ने नाराज होना है
और न ही किसी ने माफ करना है
बस, एक आलम पैदा होना है
जहाँ आदमी अपने आप को टोह कर देखता है।

माँ ! ज्यादा से ज्यादा क्या ले आऊँगा
बाप के गले में लटकाने वाली घड़ी
या मेज पर रखने वाला टाइमपीस
कि बहुत तड़के अलार्म के साथ
वह दो वक्त की रोटी के लिए
अपनी आँखों पर चढ़ा कर चश्मा
घर का चक्कर लगाता रहे
या फिर तेरी वास्तव में ही
खत्म होती जा रही नज़र के लिए
कोई रांगला सा फ्रेम
ताकि तेरे जे़हन में से
कहीं बेटे का फ्रेम टूट न जाए।

तुझे कैसे बताऊ ए माँ
तेरे इस भागे हुए पुत्र को
कहीं भी टिकाव नहीं था
रोज रात में
चौके में पकती मक्की की रोटी की महक
जब याद आती थी
एक बार तो इस तरह लगता था
कि तू बुरकियाँ तोड़–तोड़ मुँह में डाल रही है
उन पलों में मैं
एक आह से बढ़कर कुछ नहीं होता था

माँ, तू तो मुझे हमेशा
अपना सुशील बेटा ही कहती रही थी
यह जानते हुए भी
कि सुबह की पहली किरण से लेकर
रात की आखिरी हिचकी तक
मैंने तेरे लिए छोटे–छोटे दुख पैदा किए थे
मुझे वे सब कुछ अच्छी तरह याद है
कि मेरी रातों की आवारगी को लेकर
कैसे तू सूली पर टंगी रहती थी
बस इस आस में
कि मेरा बेटा कभी तो कोख का दर्द पहचानेगा
कभी तो बेटों की तरह दस्तक देगा...

पर माँ जब मैं लौटूंगा
ज्यादा से ज्यादा क्या लेकर आऊँगा
मेरी आँखों में होंगे मृत सपने
मेरे संग मेरी हार होगी
और वह थोड़ा सा हौसला भी
जब अपना सब कुछ गवां कर भी
आदमी सिकंदर होने के भ्रम में रहता है
और फिर तेरे लिए छोटे–छोटे खतरे पैदा करुँगा
छोटे–छोटे डर पैदा करुँगा
और मैं क्या लेकर आऊँगा।

(हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)

कवि संपर्क –
Vishal
PZA, MATTEOTTI-34
46020-PEGOGNAGA(MN)
ITALY


जात
बलबीर माधोपुरी

जात, इस तरह मेरे संग
जैसे मेरा रंग
मेरा साया
इतना मेल–सुमेल
कि मैं मनफी
वह मेरी पहचान
गाँव में होऊँ या शहर
समुंदर के आर या पार।

बहुत छिपाता हूँ
सौ परदे डालता हूँ मैं
पर वह फिर
आ खड़ी होती है बार-बार
जैसे कुल्फ़ के दिनों के बाद
धूप जैसे बाल
फटे चीथड़ों में से
जिस्म जैसे ख़याल।

चाहता हूँ उसका त्याग
जैसे कोई चाहता है तलाक
पर वे मुझे बताते हैं
समझाते-सुझाते हैं
यह तो जन्म-जन्म का है साथ
नहीं कोई ख़ास बात।

आखि़र-
तर्कश पर चढ़ते हैं तर्क के तीर
वर्तमान को जानकर, अतीत को चीरकर
आता है लहू में उबाल
जैसे धरती के अन्दर भूचाल
और फिर
भरते दिखाई देते हैं फासले
चढ़ते–उतरते, दायें–बायें।

जात, इस तरह मेरे संग
जैसे मेरा रंग
मेरा साया
इतना मेल–सुमेल
कि मैं मनफी़
वह मेरी पहचान
गाँव में होऊँ या शहर
समुंदर के आर या पार।
(पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)



कवि-संपर्क :
आर. जै़ड ए–44, महावीर विहार,
पालम, नई दिल्ली–110045
ई–मेल : madhopuri@yahoo.co.in
दूरभाष : 011-25088112(निवास), 09350548100(मोबाईल)

रविवार, 9 सितंबर 2007

अनूदित साहित्य

अनूदित साहित्य” के अंतर्गत इसबार पंजाबी के जाने-माने लघुकथाकार और पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका “मिनी” के संपादक डा0 श्यामसुंदर दीप्ती की दो चर्चित लघुकथाएं-

हद

एक अदालत में मुकदमा पेश हुआ।
“साहब, यह पाकिस्तानी है। हमारे देश में हद पार करता हुआ पकड़ा गया है।"
“तू इस बारे में कुछ कहना चाहता है?” मजिस्ट्रेट ने पूछा।
“मैंने क्या कहना है, सरकार। मैं तो खेतों में पानी लगा कर बैठा था, ‘हीर’ के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े, मैं उन्हीं बोलों को सुनता इधर चला आया। मुझे तो कोई हद नज़र नहीं आयी।"
0

मूर्ति

वह बाज़ार से गुजर रहा था। एक फुटपाथ पर पड़ी मूर्तियाँ देखकर वह रुक गया।
फुटपाथ पर पड़ी खूबसूरत मूर्तियाँ! बढ़िया तराशी हुई! रंगों के सुमेल में मूर्तिकला का अनुपम नमूना थीं वे!

वह मूर्तिकला का कद्रदान था। उसने सोचा कि एक मूर्ति ले जाए। उसे गौर से मूर्तियाँ देखता पाकर मूर्तिवाले ने कहा- “ले जाओ साहब, भगवान कृष्ण की मूर्ति है।"

“भगवान कृष्ण?” उसके मुँह से यह एक प्रश्न की तरह निकला।
“हाँ, साहब, भगवान कृष्ण! आप तो हिन्दू हैं, आप तो जानते ही होंगे।"
वह खड़े-खड़े सोचने लगा कि यह मूर्ति तो आदमी को हिन्दू बनाती है।
“क्या सोच रहे हैं साहब? यह मूर्ति तो हर हिन्दू के घर होती है। ज्यादा मंहगी नहीं है।” मूर्तिवाला बोला।

“नहीं चाहिए…” कहकर वह वहाँ से चला गया।
0(हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव)

मंगलवार, 4 सितंबर 2007

अनुदित साहित्य

'अनूदित साहित्य' के अन्तर्गत इसबार प्रस्तुत हैं, पंजाबी के जाने-माने लघुकथाकार और "मिनी" त्रैमासिक पत्रिका के संपादक श्यामसुंदर अग्रवाल की दो उत्कृष्ट लघुकथाओं का हिन्दी अनुवाद -
संतू
प्रौढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बाल्टी उठा जब सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो मैंने उसे सचेत किया, "ध्यान से चढ़ना ! सीढ़ियों में कई जगह से ईंटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।"
"चिन्ता न करो जी… मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।"
और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बाल्टियाँ पानी ढोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला।
दो रुपये का नोट और चाय का कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा- "तू रोज आकर पानी भर जाया कर।"
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए संतू ने खुश होकर सोचा- 'रोज बीस रुपये बन जाते हैं पानी के। कहते हैं, अभी नहर में महीनाभर पानी नहीं आने वाला। मौज हो गई अपनी तो!'
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगले दिन सीढ़ियाँ चढ़कर जब संतू ने पानी के लिए बाल्टी मांगी तो पत्नी ने कहा- " अब तो ज़रूरत नहीं। रात को ऊपर की टूटी में पानी आ गया था।"
"नहर में पानी आ गया !" संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियाँ उतरने लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों में गिर पड़ने की आवाज़ हुई। मैंने दौड़कर देखा- संतू आंगन में औंधे मुँह पड़ा था। मैंने उसे उठाया। उसके माथे पर चोट लगी थी।
अपने माथे को पकड़ते हुए संतू बोला- "कल बाल्टी उठाये तो गिरा नही, आज खाली हाथ गिर पड़ा।"
मुझे लगा, उसको कल नहीं, आज सचेता करने की ज़रूरत थी!
यतीम
यतीम लड़के के दूध -से उजले कपड़ों की ओर ध्यान से देखते हुए जग्गू ने पूछा- "तू स्कूल जाता है?"
"हाँ, यतीमखाने के सारे बच्चे जाते हैं।"
"बड़ा किस्मत वाला है तू !" जग्गू ने यतीम लड़के को हसरतभरी दृष्टि से देखते हुए कहा।
"यतीम के साथ मज़ाक नहीं किया करते।" यतीम लड़का दु:खी मन से बोला।
"किस्मतवाला तो है ही ! मेरे पास न तेरे जैसे कपड़े हैं, न मैं स्कूल जा सकता हूँ।" जग्गू की आँखें भर आयीं।
"तू स्कूल नहीं जाता?… फिर सारा दिन क्या करता है?" यतीम लड़के ने हैरान होकर पूछा।
"होटल में बर्तन मांजता हूँ।"
"तू यतीमखाने क्यों नहीं आ जाता?"
"मन तो बहुत करता है, पर वे मुझे रखते नहीं।
"क्यों?…" यतीम लड़का हैरान था।
"मेरे मां-बाप जो जिंदा हैं।" कहते हुए जग्गू की आँखों में से आँसू टपकने लगे।
(हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव)