शनिवार, 25 अगस्त 2007

जालों वाली छ्त
दर्शन जोगा
हिन्दी रूपान्तर: सुभाष नीरव

आज फिर दोनों बहू और ससुर दफ्तर पहुँचे हैं। पहाड़ जैसी चोट का मारा बेचारा बुज़ुर्ग अधिक उम्र और कमजोर सेहत होने के कारण, थोड़ा दम भरने के लिए कमरे के बाहर बिछी बैंच की ओर बढ़ा तो बहू ने हाँफ रहे ससुर की हालत देखकर कहा, “आप बैठ जाओ बापू जी, मैं करती हूँ पता।”
कमरे में घुसते हुए पहले की भांति उसकी नज़र तीन-चार मेजों पर गयी। जिस मेज पर से वे कई बार आकर लौटते रहे थे, उस पर आज मरियल से बाबू की जगह भरवें शरीर वाली एक लड़की गर्दन झुकाये कागजों को उलट-पलट रही थी। लड़की को देखकर उसने राहत महसूस की।
“सतिश्री अकाल जी!” कमरे में बैठे सभी लोगों को उसने साझा नमस्कार किया। एक-दो ने रूखी निगाहों से उसकी ओर देखा, पर नहीं दिया। जब वह उसी मेज की ओर बढ़ी तो क्लर्क लड़की ने पूछा, “हाँ, बताओ?”
“बहन जी, मेरा घरवाला सरकारी मुलाजिम था, पिछ्ले दिनों सड़क हादसे में मारा गया। भोग वाले दिन महकमेवाले कहते थे कि रुपये-पैसे की जो मदद गोरमिंट से मिलनी है, वो तो मिल ही जाएगी, साथ में उसकी जगह पर नौकरी भी मिलेगी। पर मरने वाले पर निर्भर वारिसों का सर्टिफिकेट लेकर देना होगा। पटवारी से लिखवाकर कागज यहाँ भेजे हुए हैं, अगर हो गए हों तो देख लो जी।”
“क्या नाम है मृतक का?” क्लर्क लड़की ने संक्षिप्त और खुश्क भाषा में पूछा।
“जी, सुखदेव सिंह।”
कुछेक कागजों को इधर-उधर करने के बाद एक रजिस्टर खोलकर लड़की बोली, “करमजीत कौर विधवा सुखदेव सिंह?”
“ हाँ जी, यही है।” वह जल्दी-जल्दी इस तरह बोली जैसे सब कुछ मिल गया हो।
“साहब के पास अन्दर भेजा है केस।”
“पास करके जी?” उसी उत्सुकता से विधवा ने पूछा।
“नहीं, अभी तो अफ़सर के पास भेजा है। क्या पता, वह क्या लिखकर भेजे। जैसा वह लिखेगा, उसी तरह कार्रवाई होगी।”
“बहन जी, अन्दर जाकर आप खुद करा दो।” उसने विनती की।
“लो, अन्दर कौन-सा एक तुम्हारा ही कागज है। ढेर लगा पड़ा है। और फिर एक-एक कागज के पीछे घूमते रहे तो शाम तक हम पागल हो जाएंगे।”
“देख लो जी। हम रब के मारों को तो आपका ही आसरा है।” विधवा ने कांपती आवाज़ में लगभग रोते हुए याचना की।
“तेरी बात सुन ली मैंने, हमारे पास ऐसे ही केस आते हैं।”
विधवा औरत भारी हो उठे पैरों को बमुश्किल उठाती, अपने आप को सम्भालती, बैंच पर पीठ टिकाये बैठे ससुर के पास आकर खड़ी हो गयी।
“क्या हुआ?” देखते ही ससुर बोला।
“बापू जी, हमारे भाग इतने अच्छे होते तो वो ही क्यों चला जाता शिखर-दुपहरी।”
बुजुर्ग को उठने के लिए कहकर धुंधली आंखों से दफ्तर की छत के नीचे लगे जालों को निहारती वह धीरे-धीरे बरामदे से बाहर की ओर चल दी।
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पुण्य
अणिमेश्वर कौर
हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव

“विलैत से कब आए टहल सिंह?”
“हो गये कोई पन्द्रह-बीस दिन। अपना विवाह करवाने आया था, अब कल सुबह की फ्लाइट है मेरी।”
“वाह, भाई वाह! टहल सिंह, अगर मैं गलत नहीं तो यह तेरी तीसरी शादी है।” बात को जारी रखते हुये सरवण पूछने लगा, “भाई यह तो बता, तू जल्दी-जल्दी शादियाँ किये जा रहा है, पहली वाली दो क्या हुआ?”
“होना क्या था, पहली विवाह के बाद इंडिया में ठीक-ठाक थी। जब इंग्लैंड गयी तो सिर फिर गया--- और तलाक हो गया। फिर दूसरी जगह गाँव की लड़की से विवाह करवा लिया। उसे भी गोरों की धरती पर पैर रखते ही पंख लग गये--- रोज लड़ती थी मेरे से ससुरी! कहती थी- तू भी काम किया कर घर का। बस, कुछ महीनों के बाद तलाक हो गया। रहती हैं दोनों अपने-अपने कौंसलों के फ्लैटों में।”
“पर यह बात तो बहुत खराब है टहल सिंह। माँ-बाप बड़ी हसरतों से पालते-पोसते हैं बेटियों को और विलैत में जाकर कुछ और ही हो जाता है।”
इस पर टहल सिंह ने दाढ़ी-मूँछों को संवारते हुये जवाब दिया, “अरे सरवण, तुझे क्या समझ वहाँ की? दुख तो क्या होना है, तलाक लेकर चाहे जितनी बार विवाह करवायें। यह क्या कम है कि गाँव से निकलकर विलैत में जगह मिल गयी। मैं तो निरा पुण्य कर रहा हूँ, नहीं तो गाँव में ही उम्र गल जाती इनकी।” फिर गले को साफ करता हुआ कहने लगा, “भई देखो न, इतनी दूर से किराया-भाड़ा खर्च करके आते हैं यहाँ--- नहीं तो वहाँ क्या लड़कियों का कोई घाटा है? बहुत मिल जाती हैं, पर हम तो यहाँ से ले जाकर निरा पुण्य ही कर रहे हैं।”
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अनूदित साहित्य

सेतु साहित्य में अनूदित साहित्य के अन्तर्गत सबसे पहले हम “लघुकथा” विधा को ले रहे है। प्रस्तुत है- पंजाबी की एक लघुकथा का हिन्दी अनुवाद…

छुटकारा
जसबीर ढंड

अनुवाद : सुभाष नीरव

माँ बियासी बरस की हो गई है। कई बार मौत के मुँह से बची है। अब हालत खस्ता ही है।

दिल्ली वाले मामा को गुजरे कई साल हो गये हैं। मामी विद्यावंती मामा की पेंशन से गुज़ारा करती है। दो बेटे हैं, पर दोनों की आपस में अनबन रहती है। मामा जीवित रहते आधा-आधा मकान दोनों बेटों के नाम कर गये थे। छोटा कस्टम अफसर तो तभी अपने हिस्से का मकान किराये पर देकर अलग होकर पटेल नगर रहने लग पड़ा था।

पिछले साल मामी गुसलखाने में फिसलकर गिर पड़ी थी और कूल्हा टूट जाने के कारण बिस्तर पर पड़ गई थी। छोटे कस्टम अफसर ने तो यह कहकर मामी को संग रखने से इन्कार कर दिया था कि उसके बच्चे छोटे हैं, इन्फैक्शन का डर है। बड़े ने मामी को मिलने वाली पेंशन में से हजार रुपये महीने पर एक माई रख दी थी। वही चौबीस घंटे उसको संभालती। स्वयं उन्हें काम-धंधों से फुर्सत कम ही मिलती थी।

मैं कल अंधेरा होने पर बाजार से लौटा तो बेटे ने कहा- “डैडी, दिल्ली से फोन आया था। आपकी मामी विद्यावती का स्वर्गवास हो गया।"

“दादी को तो नहीं बताया ।" मैंने बेटे से पूछा।
मुझे डर था कि माँ के लिए यह सदमा सहन करना कठिन होगा। औरतें चाहें बूढ़ी हो जायें, पर मायके की तरफ से भाइयों–भाभियों की चिंता करती ही रहती हैं। यों ही सुनकर विलाप करेगी।

“दादी को तो बता दिया।" बेटे ने जैसे सरसरी तौर पर कहा।
“फिर?… माँ रोई–कलपी नहीं…?"
“नहीं, वह तो कहती थी– चलो, छूट गई दोजख से।"
मेरे सिर पर से मानो बोझ–सा उतर गया।
माँ के कमरे में गया तो वह अंधेरे में ही पड़ी थी।
लाइट जलाई तो देखा वह मुँह–सिर लपेटे पड़ी–पड़ी धीरे–धीरे सिसक रही थी। सिरहाने का एक किनारा गीला था।
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शनिवार, 18 अगस्त 2007

अनूदित साहित्य

पुण्य
अणिमेश्वर कौर
हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव

“विलैत से कब आए टहल सिंह?”
“हो गये कोई पन्द्रह-बीस दिन। अपना विवाह करवाने आया था, अब कल सुबह की फ्लाइट है मेरी।”
“वाह, भाई वाह! टहल सिंह, अगर मैं गलत नहीं तो यह तेरी तीसरी शादी है।” बात को जारी रखते हुये सरवण पूछने लगा, “भाई यह तो बता, तू जल्दी-जल्दी शादियाँ किये जा रहा है, पहली वाली दो क्या हुआ?”
“होना क्या था, पहली विवाह के बाद इंडिया में ठीक-ठाक थी। जब इंग्लैंड गयी तो सिर फिर गया--- और तलाक हो गया। फिर दूसरी जगह गाँव की लड़की से विवाह करवा लिया। उसे भी गोरों की धरती पर पैर रखते ही पंख लग गये--- रोज लड़ती थी मेरे से ससुरी! कहती थी- तू भी काम किया कर घर का। बस, कुछ महीनों के बाद तलाक हो गया। रहती हैं दोनों अपने-अपने कौंसलों के फ्लैटों में।”
“पर यह बात तो बहुत खराब है टहल सिंह। माँ-बाप बड़ी हसरतों से पालते-पोसते हैं बेटियों को और विलैत में जाकर कुछ और ही हो जाता है।”
इस पर टहल सिंह ने दाढ़ी-मूँछों को संवारते हुये जवाब दिया, “अरे सरवण, तुझे क्या समझ वहाँ की? दुख तो क्या होना है, तलाक लेकर चाहे जितनी बार विवाह करवायें। यह क्या कम है कि गाँव से निकलकर विलैत में जगह मिल गयी। मैं तो निरा पुण्य कर रहा हूँ, नहीं तो गाँव में ही उम्र गल जाती इनकी।” फिर गले को साफ करता हुआ कहने लगा, “भई देखो न, इतनी दूर से किराया-भाड़ा खर्च करके आते हैं यहाँ--- नहीं तो वहाँ क्या लड़कियों का कोई घाटा है? बहुत मिल जाती हैं, पर हम तो यहाँ से ले जाकर निरा पुण्य ही कर रहे हैं।”
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जालों वाली छ्त
दर्शन जोगा
हिन्दी रूपान्तर: सुभाष नीरव

आज फिर दोनों बहू और ससुर दफ्तर पहुँचे हैं। पहाड़ जैसी चोट का मारा बेचारा बुज़ुर्ग अधिक उम्र और कमजोर सेहत होने के कारण, थोड़ा दम भरने के लिए कमरे के बाहर बिछी बैंच की ओर बढ़ा तो बहू ने हाँफ रहे ससुर की हालत देखकर कहा, “आप बैठ जाओ बापू जी, मैं करती हूँ पता।”
कमरे में घुसते हुए पहले की भांति उसकी नज़र तीन-चार मेजों पर गयी। जिस मेज पर से वे कई बार आकर लौटते रहे थे, उस पर आज मरियल से बाबू की जगह भरवें शरीर वाली एक लड़की गर्दन झुकाये कागजों को उलट-पलट रही थी। लड़की को देखकर उसने राहत महसूस की।
“सतिश्री अकाल जी!” कमरे में बैठे सभी लोगों को उसने साझा नमस्कार किया। एक-दो ने रूखी निगाहों से उसकी ओर देखा, पर नहीं दिया। जब वह उसी मेज की ओर बढ़ी तो क्लर्क लड़की ने पूछा, “हाँ, बताओ?”
“बहन जी, मेरा घरवाला सरकारी मुलाजिम था, पिछ्ले दिनों सड़क हादसे में मारा गया। भोग वाले दिन महकमेवाले कहते थे कि रुपये-पैसे की जो मदद गोरमिंट से मिलनी है, वो तो मिल ही जाएगी, साथ में उसकी जगह पर नौकरी भी मिलेगी। पर मरने वाले पर निर्भर वारिसों का सर्टिफिकेट लेकर देना होगा। पटवारी से लिखवाकर कागज यहाँ भेजे हुए हैं, अगर हो गए हों तो देख लो जी।”
“क्या नाम है मृतक का?” क्लर्क लड़की ने संक्षिप्त और खुश्क भाषा में पूछा।
“जी, सुखदेव सिंह।”
कुछेक कागजों को इधर-उधर करने के बाद एक रजिस्टर खोलकर लड़की बोली, “करमजीत कौर विधवा सुखदेव सिंह?”
“ हाँ जी, यही है।” वह जल्दी-जल्दी इस तरह बोली जैसे सब कुछ मिल गया हो।
“साहब के पास अन्दर भेजा है केस।”
“पास करके जी?” उसी उत्सुकता से विधवा ने पूछा।
“नहीं, अभी तो अफ़सर के पास भेजा है। क्या पता, वह क्या लिखकर भेजे। जैसा वह लिखेगा, उसी तरह कार्रवाई होगी।”
“बहन जी, अन्दर जाकर आप खुद करा दो।” उसने विनती की।
“लो, अन्दर कौन-सा एक तुम्हारा ही कागज है। ढेर लगा पड़ा है। और फिर एक-एक कागज के पीछे घूमते रहे तो शाम तक हम पागल हो जाएंगे।”
“देख लो जी। हम रब के मारों को तो आपका ही आसरा है।” विधवा ने कांपती आवाज़ में लगभग रोते हुए याचना की।
“तेरी बात सुन ली मैंने, हमारे पास ऐसे ही केस आते हैं।”
विधवा औरत भारी हो उठे पैरों को बमुश्किल उठाती, अपने आप को सम्भालती, बैंच पर पीठ टिकाये बैठे ससुर के पास आकर खड़ी हो गयी।
“क्या हुआ?” देखते ही ससुर बोला।
“बापू जी, हमारे भाग इतने अच्छे होते तो वो ही क्यों चला जाता शिखर-दुपहरी।”
बुजुर्ग को उठने के लिए कहकर धुंधली आंखों से दफ्तर की छत के नीचे लगे जालों को निहारती वह धीरे-धीरे बरामदे से बाहर की ओर चल दी।
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मंगलवार, 14 अगस्त 2007

अनूदित साहित्य

सेतु साहित्य में सर्वप्रथम हम "लघुकथा" विधा को ले रहे हैं। इस बार प्रस्तुत है- एक पंजाबी लघुकथा का हिन्दी अनु्वाद-

छुटकारा

लेखक- जसवीर ढंड
हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव

माँ बियासी वर्ष की हो गयी है।
कई बार मौत के मुँह से बची है। अब हालत खस्ता ही है।
दिल्लीवाले मामा को गुजरे कई साल हो गये हैं। मामी विद्यावती मामा की पेंशन से गुजारा कर रही है। दो बेटे हैं, पर दोनों की आपस में अनबन रहती है। मामा जीते-जी आधा-आधा मकान दोनों के नाम लिखवा गया था। छोटा जो कस्टम-अफ़सर है, तभी अपने हिस्से का मकान किराये पर उठाकर अलग रहने लगा था- पटेल नगर में।
पिछले साल मामी गुसलखाने में फिसलकर गिर पड़ी थी और कूल्हा टूट जाने के कारण चारपाई से बंध गयी थी। कस्टम अफ़सर बेटे ने तो यह कहकर मामी को रखने से इनकार कर दिया था कि उसके बच्चे छोटे हैं, इन्फेक्शन का डर है। बड़े ने मामी को मिलनेवाली पेंशन में से हज़ार रुपये महीना पर एक माई रख दी थी। वही दिन-रात मामी को सम्भालती। बेटे-बहू को तो फुरसत ही न मिलती, अपने काम-धंधों से।
मैं कल अन्धेरा होने पर बाज़ार से घर लौटा तो मेरे बेटे ने कहा- "डैडी ! दिल्ली से फोन आया था, आपकी मामी जी का स्वर्गवास हो गया।"

"दादी को तो नहीं बताया?" मैंने बेटे से पूछा।
मुझे डर था कि माँ यह सदमा सहन नहीं कर पायेगी। औरतें चाहे कितनी ही बूढ़ी क्यों न हो जायें, मायकेवालों - भाई-भाभियों का मोह कुछ अधिक ही किया करती हैं, यूँ ही सुनकर माँ विलाप करेगी।
"दादी को तो बता दिया।" बेटे ने जैसे सरसरी तौर पर कहा।

"फिर? दादी रोई- कुरलाई नहीं?"

"नहीं, वो तो बोली- चलो, छूट गयी बेचारी दोजख से।"
मेरे सिर पर से जैसे बोझ-सा उतर गया।
माँ के कमरे में गया तो वह अन्धेरे में ही पड़ी हुई थी। लाइट जलाई तो देखा, वह मुँह-सिर लपेटे धीरे-धीरे बेआवाज़ सुबक रही थी।
सिरहाने का एक हिस्सा गीला था।

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