रविवार, 18 दिसंबर 2011

अनूदित साहित्य


गत 9 दिसम्बर 2011 को साहित्य अकादमी, दिल्ली के सभागार में हिंदी कथाकार और कार्टूनिस्ट राजकमल के उपन्यास पर चर्चा गोष्ठी का आयोजन था। वहीं हिंदी के कथाकार मित्र रमेश कपूर से भेंट हुई। उनके हाथ में पंजाबी कवि राजिंदर आतिश की कविताओं की एक पुस्तक थी। मैंने वहीं पुस्तक में से कुछ कविताएं पढ़ीं जो मुझे अच्छी लगीं। मित्र रमेश कपूर स्वयं भी एक अच्छे अनुवादक हैं और उनकी पत्नी वीजय लक्ष्मी जी को भी पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का अच्छा अनुभव है। मैंने तुरन्त रमेश कपूर जी से कहा कि वह राजिंदर आतिश जी की कुछ कविताओं का हिन्दी अनुवाद मुझे “सेतु साहित्य” के लिए भेजें। उन्होंने मेरे अनुरोध पर राजिंदर आतिश की तीन कविताओं का हिंदी अनुवाद भेजा है जिसे यहाँ ‘सेतु साहित्य’ के पाठकों के लिए प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है, आपको भी ये कविताएं पसन्द आएँगी और आप अपनी राय से हमें अवगत कराएंगे…
-सुभाष नीरव



पंजाबी कविता

राजिंदर आतिश की तीन कवितायें
अनुवाद : वीजय लक्ष्मी

दूरी


जितनी दूर जा रहा हूं मैं
धरती और सिकुड़ती जा रही है

अब निपट दूर हूँ
और धरती मेरी मुठ्ठी में है

समझ नहीं सकते आप
नजदीक रह कर
समझना हो मुझे तो
निकल जाओ दूर
भूल जाओ सदा के लिये।



वापसी


मैं लौट आऊंगा
उसी तरह जैसे
लम्बे सफर के बाद लौट आते हैं जहाज
अपने ठिकाने
और बदल जाते हैं मुसाफिर

एक शोर मेरे साथ-साथ
रेंगता है
कभी याद आता है
एक घर
एक गुमशुदा बच्चे का चेहरा
लोरी-सी लय
गूंजती रहती है कानों में
लौट आऊंगा मैं
एक खोये हुए बच्चे की तरह
लम्बे सफर से लौटे
जहाज की तरह
जैसे गुजरे हुए मौसम
लौट आते हैं मुड़-मुड़ क़र

ठूंठ वृक्षों की शाखाओं पर
लौट आते हैं हरिताभ पत्ते।

यायावर


जा चुकी परछाइयों के यायावर !
लौट आ
लौट आ, नंगी सोच के
नंगे सफर ! तू भी लौट आ

परछाईं नंगे बदन की तड़पी
और दौड़ पड़ी
डूब रहे सागर की ओर
नंगे रास्तों का नंगा सफर
परेशान है

इस जंगल में
कभी एक शहर बसता था
शहर कल हंसा और जंगल रो दिया
रेत सागर की खामोश है सदा के लिए
जागता है सिर्फ
खो चुकी राहों पर रुहों का सफर
भटकते हैं निशाचर पल
डावांडोल तकदीर की स्याह राह पर
घर जिसका न सोचो तो सांझी कब्र है
चीखती हुई चुप्पी है या
सिमटा हुआ इक शोर है
जा चुकी परछाइयों के
लौटने की आस लिए चला गया है यायावर
जाने दे, नंगी सोच के नंगे सफर !
तू भी लौट आ ।
00
(अनुवादक सम्पर्क :
ए -4/14, सैक्टर -18,
रोहिणी ,दिल्ली- 110 089
मोबाइल: : 9891252314)


राजिंदर आतिश
जन्म : 8 सितम्बर, 1956, जबलपुर (मध्य प्रदेश)

पंजाबी में नई कविता की अग्रिम पंक्ति के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर। कई रचनाओं का हिन्दी के इलावा अन्य भाषाओं में भी अनुवाद। पंजाबी की कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं के सह-सम्पादक व सम्पादक। पंजाबी चैनलों पर भी रचनाओं का प्रसारण ।

प्रकाशित कृतियाँ :
हुण दी घड़ी कविता संग्रह। 'टुकडे-टुकड़े सूरज' और 'वणगी' में कविताएं संकलित।

सम्प्रति : अपना व्यवसाय तथा दिल्ली प्रदेश के प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव ।
सम्पर्क : एफ - 123, द्वितीय तल, मानसरोवर गार्डन , नई दिल्ली - 110015
मोबाइल-7838393284

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

अनूदित साहित्य


मित्रो, ‘सेतु साहित्य’ के नवम्बर 2011 अंक के लिए जिस पंजाबी कविता का मैंने चयन किया है, वह सुश्री तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग ‘आरसी’ के 14 जुलाई 2010 के अंक में प्रकाशित हुई थी और मैंने तभी निश्चय कर लिया था कि इसे मैं हिंदी में अनुवाद करके अपने ब्लॉग ‘सेतु साहित्य’ के माध्यम से हिंदी के विशाल कविता प्रेमी पाठकों को उपलब्ध कराऊँगा। लेकिन अफ़सोस कि बहुत खोजबीन करने के बाद भी न तो तनदीप तमन्ना जी की ओर से और न ही अपने पंजाबी लेखक/कवि मित्रों की ओर से इस कविता के रचनाकार की कोई जानकारी मुझे मिल पाई है। मुझे तो यह भी नहीं मालूम हो सका कि यह कविता किसी कवि की है अथवा कवयित्री की… मैं जब जब इसे पढ़ता हूँ, यह अपनी गिरफ़्त में मुझे इस तरह ले लेती है कि फिर उससे बाहर निकलना मेरे लिए बहुत कठिन हो जाता है। खैर, मेरे सब्र का प्याला अब भर चुका है और मैं अपने आप को इस कविता को आपसे साझा करने से नहीं रोक पा रहा हूँ। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें कि क्या यह आपको भी उतना ही स्पंदित करती है, जितना मुझे इसने किया है। आपकी राय की प्रतीक्षा में…
-सुभाष नीरव




पंजाबी कविता

मैं कैसे आऊँगा
कंवलजीत ढुडीके
हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव






विदा होते समय
दोस्त ताकीद करते हैं
अगली बार आना तो
लेकर आना
मौसम की सुगन्ध का एक टुकड़ा
लिपे घर की खुशबू
हलों के गीत
घी के तड़के की महक
घरती के कण
बेबे (माँ) की लम्बी टेर के गीत
कच्चे कोठों की तस्वीरें
घर के मक्खन की महक
मथानी की लय के संग-संग
पाठ करती बेबे की याद
बाहर वाले घर में से आती
गोबर की गंध
कूड़े के ढेरों पर उगी
घास की स्मृति…

मन में सोचता हूँ
अगली बार आया
तो कैसे आऊँगा…
00

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

अनूदित साहित्य






पंजाबी कविता

मित्रो, ‘सेतु साहित्य’ के अक्तूबर 2011 अंक में हम पंजाबी के बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि-कथाकार-चित्रकार जगतारजीत की कुछ कविताओं का हिंदी अनुवाद आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, आपको ये कविताएं पसन्द आएंगी। आपकी छोटी-सी प्रतिक्रिया भी हमारा मनोबल बढ़ाती है, इसलिए अपनी प्रतिक्रिया से हमें अवश्य अवगत कराते रहें…
-सुभाष नीरव


जगतारजीत के तीन कविताएँ
(हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव)


खिड़की

उसने आहिस्ता से
खिड़की खोली
सिर बाहर निकाला
आँखें घुमाईं
गली सुनसान थी
तेज़ बहती हवा के साथ
रेतकण थे
नीले आसमान के आगे
रूई के फ़ाहों जैसे बादल
उड़े जा रहे थे
पश्चिम दिशा की ओर

कमरे में दाख़िल हुए
रेतकणों से बेख़बर
वह खिड़की में बैठी
नज़रों से सी रही थी बादल
आँखों से टपकते आँसुओं से
भरती रही उनमें पानी

खिड़की के इस ओर के हिस्से को
घर कहते हैं
जो अपने नियम के अंदर चलता है
खिड़की के दूसरी ओर का हिस्सा
गली से जुड़ा हुआ है
जिसके पार
जंगल-बियाबान है

वह दोनों के बीच अटकी
खिड़की के पल्ले की भाँति
हिल रही है।

कपड़े

खुले आसमान के नीचे
घर की स्त्री
टब में से धोए हुए कपड़े उठा
तार पर फैला रही है

तार पर फैलाते समय
उसके मन के अंदर
जी उठता है वह रूप
जिसने मैला वस्त्र उतार
रख दिया था धोने के लिए

हाथों से धुला वस्त्र उठाती
उंगलियों से छूती
आँखों से देखती-देखती
तार के हवाले कर देती
पल भर में उसने सारा परिवार
एक-दूजे के पास-पास
एक जगह पर इकट्ठा कर दिया

परिवार के सदस्य
आजकल ऐसे ही
हफ़्ते में एक-आध बार
अपने-अपने कमरों में से निकल
एक-दूसरे से मिलते हैं
फिर तह होकर जा टिकते हैं
अपनी-अपनी जगहों पर
अगली मुलाकात तक।

धोबी

मैले-कुचैले वस्त्र
चले जा रहे हैं
नदी नहाने
बैठ धोबी के सिर पर

भांत-भांत के रंगों वाले
भिन्न-भिन्न नाप के
जाति कोई, धर्म कोई
बंधे एक ही गठरी
चले जा रहे
बैठ धोबी के सिर पर

पसीने में भीगा कोई
किसी बदन का साथ छोड़
देर बाद
नया-नकोर कोई
रहा हिचकिचाता मैल से
आए बास किसी से
लहू के बूँद की
सभी एक जगह
एक बार नदी चले
बैठ धोबी के सिर पर

बस्ती के बाहर-बाहर
धोबी का घर है

मैले-कुचैले वस्त्र
चले जा रहे हैं
नदी नहाने
बैठ धोबी के सिर पर।
00

जगतारजीत सिंह
जन्म : 12 दिसंबर 1951
शिक्षा : एम.ए., पी. एचडी
प्रकाशित पुस्तकें : कला अते कलाकार(कला), 1992 व 2005(पंजाबी व हिंदी में)। जंगली सफ़र(कविता), 2002(पंजाबी में)। रबाब(कविता),2006(पंजाबी में)। रंग अते लकीरें(कला), 2006(पंजाबी में)। अंधेरे में फूल जैसी सफ़ेद मेज(कविताएँ),2010(हिंदी में)। अद्धी चुंज वाली चिड़ी(बाल कहानियाँ), 2010(पंजाबी में)। अमलतास(कविताएँ), 2011(पंजाबी में)। पेंटर शोभासिंह : एक अध्ययन(प्रैस में)।
अनुवाद : घुन खादा होधा(असमी से) 2002, साहित्य अकादमी के लिए। स्वामी विवेकानन्द : एक जीवनी(हिंदी से) 2005, नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए। जंग खादी तलवार अते दो छोटे नावल(असमी से) 2009( साहित्य अकादमी के लिए)।
सम्मान : भाषा विभाग, पंजाब(1992)। पंजाबी अकादमी, दिल्ली(2002)। हिंदी अकादमी, दिल्ली(2005)। भाषा विभाग, पंजाब(2007)।
सम्पर्क : 118-ए, प्रताप नगर, जेल रोड, नई दिल्ली-110064
मेल : jagtarjeet@rediffmail.com
टेलीफोन : 9899091186

शनिवार, 3 सितंबर 2011

अनूदित साहित्य


मित्रो, सेतु साहित्य ब्लॉग का प्रारंभ 14 अगस्त 2007 को हुआ था यानी इसने चार वर्ष की यात्रा पूरी कर ली है। इस यात्रा के दौरान सेतु साहित्य भारतीय एवं विदेशी भाषाओं(पंजाबी, बंगला, मराठी, मलयालम, ओड़िया, संथाली, रूसी, नेपाली, जापानी, ईरानी, अमेरिकन आदि) के उत्कृष्ट साहित्य (यथा- कविता, लघुकथा, कहानी, पत्र) के हिंदी अनुवाद अन्तर्जाल के विशाल हिन्दी पाठकों को उपलब्ध करवाता रहा है। आगे भी यह सिलसिला यूँ ही जारी रहेगा। हम उन सभी अनुवादक मित्रो से अनुरोध करते हैं कि वे भी भारतीय अथवा विदेशी भाषाओं के साहित्य का हिन्दी अनुवाद सेतु साहित्य के लिए भेंजे। रचनाएं छोटी और सारगर्भित हों, बस इतना खयाल रखें। इस बार हम पंजाबी कवयित्री डा गुरमिंदर सिद्धू की कविता का हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं जिसका पंजाबी रूप सुश्री तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग आरसी के 2 सितम्बर 2011 के अंक में प्रकाशित हुआ है।

आपकी छोटी-सी प्रतिक्रिया भी हमारा मनोबल बढ़ाती है, इसलिए अपनी प्रतिक्रिया से हमें अवश्य अवगत कराते रहें…

सुभाष नीरव


पंजाबी कविता

बेटियों के चाँद-सूरज

डा गुरमिंदर सिद्धू

(हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव)

बेटियों के लिए

पिता होता है सूरज

ऊबड़-खाबड़ राहों में रौशनी बिखेरता

थके पैरों के सफ़र को ऊर्जा देता

कड़कड़ाते जाड़े में

गुनगुनी धूप सा

और कभी-कभी जेठ-हाड़ की

तीखी दुपहरी जैसा भी

जिसके धुर अन्दर बेटियों के लिए

शीतल छांव का सपना

बो रखा होता है

और एक दिन

किरणों की गठरी

बेटियों के सिर पर रख कर

किसी दूर देश की ओर भेज देता है।

बेटियों के लिए माँ

होती है चाँद

तपते सिर पर

चन्द्र-किरणों का शामियाना तानती

हथेलियों के छालों के लिए

चन्दन का लेप बनती

चीस मारते अटणों के लिए

शहद मीठा चुम्बन

दमघोंटू काली रातों में

दुधिया चाँदनी-सी

और

कभी-कभी

गूंगे साधु की कुटिया जैसी भी

जिसके अन्दर

बेटियों की सात खैरों के वास्ते

एक धूनी तपती रहती है

और एक दिन

माँ बनने का वरदान

बेटियों के माथे पर रख कर

किसी दूर देश की ओर चली जाती है…

बुधवार, 11 मई 2011

अनूदित साहित्य



पंजाबी कविता


प्रभजोत सोही की दो कविताएँ
हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव

जब चुप बोलती है…

अक्सर चुप नहीं बोलती
पर जब कभी
चुप बोलती है तो
दर्द का अनुवाद होती है
हाथों से फिसल गए अवसरों
अथवा
चोरी किए पलों की
मीठी खारिश होती है

अक्सर चुप नहीं बोलती
पर जब कभी
चुप बोलती है
तो सैलाब होती है
बह जाते हैं मुकुट
गल जाती हैं पदवियाँ
बगावती सीनों में से निकली
ललकार… हू-ब-हू
इंकलाब होती है

अक्सर चुप नहीं बोलती
पर जब कभी
चुप बोलती है तो
कई बार
अन्दर उतर जाती है
सांसों के संग तैरती
महीन पलों को पकड़ती
दायरे और बिन्दु तक का
सफ़र तय करती
कुछ अनकहा भी
कह जाती है

अक्सर चुप नहीं बोलती…
0

अनहद

ज़िन्दगी शिकायत बनी
खड़ी है सामने
जज्बात पर काबिज़
‘अक्ल’
फेंक चुकी है
आख़िरी हथियार
ताकत का नशा…
अक्ल का गर्व
कमज़ोरी की शर्मिन्दगी
सब तरह के भाव
ज़िन्दगी को
कह गए हैं अलविदा

अब तो शून्य है सिर्फ़
और इस शून्य की चीख़
गूँज रही है
अन्दर… बाहर
और मैं कर रहा हूँ प्रतीक्षा
किसी अनहद नाद की…
00
(प्रभजोत सोही की कुछ पंजाबी कविताएं तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग “आरसी’ के 8 मई 2011 के अंक में प्रकाशित हुई हैं। उन्हीं में से इन दो कविताओं का हिंदी अनुवाद हम ‘सेतु साहित्य’ के हिंदी पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। आशा है, हिंदी के पाठक इन्हें पसन्द करेंगे।)





पंजाब के ज़िला-लुधियाना के एक गाँव सोहियां में निवास।
एक कविता संग्रह पंजाबी में “किवें कहां” वर्ष 2005 में प्रकाशित।

मंगलवार, 29 मार्च 2011

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता

विशाल की दो कविताएँ
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


पुरखे
समझ - नासमझ की उम्र थी मेरी उस वक़्त
दादा, पिता से कहते -
अब वो समय नहीं रहे
हमारे समय बात और होती थी
मेरा क्या पता कब आँखें मूंद जाऊं
अपना आगा-पीछा संभाल
सयाना बन।

पिता ने भी ऐसी ही हिदायतें
मेरे आगे रखीं
हमारे समय अच्छे होते थे
अब वो बातें नहीं रहीं
समय बहुत नाज़ुक है
ध्यान से क़दम उठाना
लोग कहते कु और हैं
करते कुछ और हैं
बुरे-भले की पहचान करना।

पिता के माथे की त्यौरियां
हो गईं मेरे में ज़रब
और मुझे लगा
कि समय वाकई बड़ा नाज़ुक है
समझ कर चलने की ज़रूरत है

अपने जवान हो रहे बेटे को
देखकर मैंने सोचा
मेरा भी फ़र्ज़ बनता है
कि इसको कुछ समझाऊँ -
समय बदलता जा रहा है
आने वाला कल पता नहीं कैसा हो
अपने पैरों पर खड़ा हो ...

बेटे ने बात काटी -
आप बात कल की करते हो
मैं तो आज को लेकर भी नहीं सोचता
सोचता हूँ तो
उन ख़ूबसूरत पलों के बारे में
जो मैं अब जी रहा हूँ।

इससे पहले कि मैं उसकी तरफ देखता
वह आकाश की ओर देख रहा था।

वार्तालाप की गूँज

मैं आजक अक्सर
तेरे बारे मैं सोचने लग पड़ा हूँ
जैसे कोई पानियों में
पानी होकर सोचता है।

तुझे गुनगुनाने लग पड़ा हूँ इस तरह
जैसे प्रात:काल के 'शबद' का आलाप
तेरी तलाश का सफ़र
किसी अनहद राग का मार्ग
तेरी याद तेरा मिलन
सरगम के सारे सुर
अधूरे सिलसिले
कुछ संभ, कुछ असंभव
अतृप्त मन की कथा।

अथाह पानियों में घिरा हूँ तब भी
मेरे लिबास की तपिश वैसी ही
तू बर्फ की तरह मेरे पास रह
मेरी रेतीली प्रभात
मेरे भावों के मृगों का रंग तो बदले
कि बना रहे जीने का सबब।

मैं लम्हा -लम्हा तेरा
मेरे अन्दर बैठे पहाड़ के लिए
तू बारिश बन
मैं भीग भीग जाऊं
तेरे अन्दर बह रही नदी के संग
हो जाऊं मैं भी नदी
मेरी नज़र की सुरमई शाम पर
इस अजीब मरहले को
स्मृतियों के भार से मुक्त कर दे
तुझे संबोधित होते हुए भी चुप हूँ
यह सबकुछ मैं तुझसे कह रहा हूँ...
००
(यह दोनों कवितायेँ विशाल के सद्य प्रकाशित पंजाबी कविता संग्रह 'त्रेह'(प्यास) से ली गईं हैं)

पंजाबी कविता में पाश, पात्तर के बाद जिन कवियों ने अपनी कविता की बदौलत एक खास पहचान बनाई, उनमें विशाल एक प्रमुख नाम है अब तक चार पंजाबी में चार कविता पुस्तकें - 'तितली ते काली हवा (१९९२,२००५)', 'कैनवस कोल पई बंसरी (१९९९)', 'मैं अजे होणा है(२००३)' और 'त्रेह (२०११)' तथा दो गद्य पुस्तकें - 'थारी याद चौखी आवे (२००५,२००६)' और 'इटली विच मौल्दा पंजाब (२००२)' प्रकाशित
संपर्क : Milono 116 B, Breesica- 25100, Italy
फ़ोन :
0039-3661818889

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

अनूदित साहित्य


प्रिय मित्रो
गत 20 जनवरी 2011 को मेरे चार ब्लॉग्स – “सेतु-साहित्य”, “वाटिका”, “गवाक्ष” और “साहित्य-सृजन” एकाएक गायब हो गए। डैशबोर्ड पर केवल वही ब्लॉग्स दिख रहे थे जो मेरे नहीं थे लेकिन मैं शेयर कर रहा था। हैरत हुई और एक गहरा आघात भी लगा कि ऐसा कैसे हो गया। लगा कि पिछले ढाई-तीन वर्षों के मेरे श्रम पर पानी फिर गया हो। कम्प्यूटर और नेट की दुनिया का अच्छा ज्ञान रखने वाले अपने कुछ मित्रो से अपनी इस समस्या को साझा किया। तथ्यों का पता लगाने कि कोशिश की गई कि ऐसा क्यों हुआ? और अब ये ब्लॉग्स कैसे रेस्टोर हो सकते हैं? भाई रवि रतलामी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु और कनिष्क कश्यप ने आगे बढ़कर मेरी इस समस्या को सुलझाने की पुरज़ोर कोशिश की। यह उन्हीं की कोशिशों का नतीजा है कि 3 फरवरी 2011 को मेरे उक्त ब्लॉग्स पुन: जीवित हो उठे। इन्हें पुन: पाकर मुझे जो अपार खुशी हुई है, उसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। मैं भाई रवि रतलामी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु और कनिष्क कश्यप का हृदय से कृतज्ञ हूँ।

जिन दिनों मेरे उक्त ब्लॉग्स गायब थे, उन्हीं दिनों भाई यादवेन्द्र जी ने मुझे अमेरिकी कवयित्री निक्की जियोवानी की कुछ प्रेम कविताओं का बहुत खूबसूरत हिंदी अनुवाद “सेतु साहित्य” में प्रकाशित करने के लिए प्रेषित किया था। उन्हीं कविताओं में से कुछ कविताएं मैं भाई यादवेन्द्र जी की टिप्पणी के संग ‘सेतु साहित्य’ के इस अंक में आपके समक्ष रख रहा हूँ, इस उम्मीद के साथ कि आपको भी निक्की की ये प्रेम कविताएं अवश्य पसन्द आएंगी…
-सुभाष नीरव


अमेरिका की प्रमुख और बेहद मुखर अश्वेत कवयित्री
निक्की जिओवानी की कुछ प्रेम कवितायेँ
प्रस्तुति एवं हिंदी अनुवाद : यादवेन्द्र

निक्की जियोवानी अमेरिका की बेहद संजीदा, प्रतिष्ठित और विवादास्पद अश्वेत कवयित्री, विचारक और मानव अधिकार एक्टिविस्ट हैं. उनके तीस से ज्यादा संकलन प्रकाशित हैं.
हाल में छपी अपनी किताब “बाईसाइकिल्स” में निक्की जियोवानी ने अपनी 65 प्रेम कवितायेँ संकलित की हैं जो उनके 65वें जन्मदिन के प्रतीक हैं. उनका मानना है कि ‘साइकिलें’ भरोसे और संतुलन का सबसे सटीक प्रतिरूप हैं और प्रेम इसी को कहते हैं. अपनी मुखर प्रेम कविताओं के लिए विख्यात निक्की जियोवानी प्रेम कवितायेँ लिखने के बारे में बेबाकी से कहती हैं: ‘अच्छी प्रेम कविता लिखना उतना ही नाजुक काम है जैसे अच्छा प्रेमी होना. आपको देह को छूने और चूम कर स्वाद चखने के साथ-साथ गहरे इत्मीनान के साथ इसकी सच्चाई को परखने के विभिन्न चरणों से गुजरना पड़ता है… क्योंकि प्रेम में आप न तो हड़बड़ी कर सकते हैं और न ही इसका दिखावा कर सकते हैं.’

उन्होंने प्रेम कविता लिखने के पांच सूत्र बताये हैं-
- यदि कोई आपके लिए प्रेम कविता लिखे तो आपको मुंहफट होकर कहना पड़ेगा कि कविता अच्छी नहीं है. यह वैसा ही होगा जैसे कोई आपसे बोले कि फलाँ ड्रेस आपके ऊपर खूब फबती है और आप तुरंत जवाब दे दो कि अरे, तो आप उस बरसों पुरानी ड्रेस की बाबत बात कर रहे थे? वाजिब ढंग तो ये होगा कि आप उसकी ओर मुखातिब होकर मुस्कुरा दें और शुक्रिया अदा करें. यदि आपके मन में भी प्रेम के भाव हैं तो आपके मुंह पर लज्जा भरी लालिमा आ ही जाएगी.

- किसी भी प्रेम कविता में एक आतंरिक लय होनी ही चाहिए… इतनी प्रखर कि कामनाएं खुद-ब-खुद प्रस्फुटित होने लगें. बहुत सारे लोग गलती ये करते हैं कि कविता की पीठ पर विचारों की भारी गठरी लाद देते हैं...मन की बेचैनी और लालसा को सहज रूप में बाहर आने देने में मददगार छवियों तक पहुँच पाना सबसे जरुरी है.

- ऐसी कविताओं को लिखने में सबसे बड़ी बाधा होती है- उलझी हुई जटिलता. कोई पाठक इनके बीच हाथ पाँव मार कर आपका मंतव्य समझने की मशक्कत नहीं करना चाहता...न ही आपकी प्रेमिका को ये मकड़जाल मंजूर होगा. अपनी बात सीधे बेलाग लपेट ढंग से कहना जरुरी है.

- प्रेम और जीवन दोनों के लिए सरलता सबसे जरुरी शर्त होती है… मन में सबसे पहले ये संकल्प करना चाहिए कि आप जो भी कहेंगे साफ़-साफ़ और भरपूर समझ के साथ कहेंगे. मन की बेचैनी, तलाश और लालसा को महसूस किया जाना जरुरी है.

- यदि प्रेम कविता लिखने के बारे में मुझे इकलौती सलाह देने को कहा जाये तो मैं कवियों को आगाह करुँगी कि प्रेम, प्रेम करने वाले को मुखातिब होता है न कि प्रेम प्राप्त करने वाले को. आपके लिए यह जरुरी है कि प्रेम करने के दौरान आप अपने मनोभावों को महसूस करें, न कि इस पर गौर करें कि प्रेम लेने वाला किस तरह की प्रतिक्रिया देता है. यदि आप ऐसा करने के लिए अपने मन को मुक्त छोड़ देंगे तो यह ख़ुशी से पागल होकर नाचने लगेगा...दुनिया में ऐसा कोई माई का लाल नहीं है जो इसको काबू में कर सके.
-यादवेन्द्र


साइकिलें

आधी रात लिखी जानेवाली कवितायेँ
साइकिलें होती हैं
ये हमें ऐसी निरापद यात्राओं पर ले जाती हैं
जो जेट उड़ानों से भी ज्यादा सुरक्षित हैं
ऐसी झटपट यात्राओं पर ले जाती हैं
जो पैदल चलने से भी ज्यादा द्रुत हैं...
पर उतनी मनमोहक तो नहीं होतीं ये यात्रायें
जैसे रजाई के अंदर ही अंदर
मेरी नंगी पीठ को छू कर
कर लेते हो तुम.

आधी रात लिखी जाने वाली कवितायेँ
छेड़ती रहतीं हैं मधुर-मधुर तान
बार-बार ये दुहराते हुए
कि उचित और बिलकुल सही हो रहा है
यहाँ पर सब कुछ.
यहाँ पर सब कुछ
हम दोनों के लिए ही है
मैं हाथ बढ़ाती हूँ
और पकड़ लाती हूँ खिलखिलाहटें
पास बैठे कुत्ते को लगता है
जैसे मैं यहाँ-वहां तलाश रही हूँ
कोई चुम्बन.

साइकिलें आगे बढती हैं
अपनी सहज गति के साथ
धरती के ऊपर जैसे
तैरते रहते हैं बादल
गुमसुम शरद ऋतु में
जैसे कोन के अंदर जमाई हुई
रसीली आइसक्रीम चूस ले कोई..
जैसे तुम्हें जानना पहचानना
ऐसे ही अपनी पहुँच में रहेगा
सदा-सदा के लिए.

दिन भर बेसब्री से
मैं सूरज डूबने की राह देखती हूँ
कब उगेगा पहला तारा
और कब सिर पर आ खड़ा होगा चाँद.

फिर पलक झपकते ही मैं पहुँच जाती हूँ
आधी रात में लिखी जाने वाली कविता के पास
इसको तुम्हारा नाम देती हूँ
मालूम है जो लपक कर थाम लेगी
मुझे जैसे ही सामने आ जाएगी कोई अनहोनी विपत्ति।


दोस्ती की कविता

हम प्रेमी नहीं हैं
सिर्फ इसलिए कि
हम टूटकर कर लेते हैं प्रेम
बल्कि इसलिए हैं कि
हमें एक दूसरे से प्यार है भरपूर.
हम दोस्त नहीं हैं
सिर्फ इसलिए कि
एक दूसरे पर लुटा देते हैं
ढेर सारी हँसी
बल्कि इसलिए हैं कि
साथ-साथ होकर बचा लेते हैं
हम ढेर सारे आँसू.

मैं आना नहीं चाहती निकट तुम्हारे
महज इसलिए कि मिलती है हमारी ज्यादातर सोच
बल्कि आना इसलिए चाहती हूँ कि
बहुतेरे शब्द हैं हमारे बीच
साथ रहते हुए पड़ती नहीं दरकार
जिन्हें बोलने की...कभी भी.

मैं कभी भूल नहीं पाउंगी तुम्हे
सोचते हुए कि क्या-क्या किया हमने साथ मिलकर
बल्कि याद करुँगी इसलिए कि बन जाते थे
हम क्या से क्या एक दूसरे के साथ होकर.

मैं अकेली कहाँ हूँ

मैं अकेली कहाँ हूँ
अलग थलग अलसाती उनींदी-सी
तुम समझते हो मुझे लगता है डर
पर अब मैं बड़ी हो गयी हूँ
अब मैं न रोती हूँ, न बिसूरती हूँ.
मेरे पास एक बड़ा-सा बिस्तर है
लपेट कर रखने को
बड़ी-सी जगह में
अब मैं बुरे सपने भी नहीं देखती आये दिन
सोच-सोच कर कि तुम मुझे छोड़ कर
अलग जा रहे हो.
अब जब तुम चले गए
मैं सपने नहीं देखती
और कोई फर्क नहीं पड़ता
कि तुम क्या सोचा करते हो मेरे बारे में
मैं अकेली कहाँ हूँ
सोते हुए भी
अलग थलग.


तुम भी आ गए

मैं भीड़ में शामिल हुई कि ढूंढ़ लूँ दोस्ती
मैं भीड़ में शामिल हुई कि ढूंढ़ लूँ प्यार
मैं भीड़ में शामिल हुई कि ढूंढ़ लूँ समझ
और मुझे तुम मिल गए.

मैं भीड़ में शामिल हुई कि रो सकूँ
मैं भीड़ में शामिल हुई कि हँस सकूँ
तुमने पोंछ दिए मेरे आंसू
तुमने साझा कर लिए मेरे सुख

मैंने भीड़ से बाहर निकल कर तुम्हे ढूंढा
मैंने भीड़ से बाहर निकला कर खुद को ढूंढा
और निकल आई भीड़ से बाहर
सदा-सदा के लिए.

मेरे पीछे-पीछे
तुम भी आ गए.


मेरा देना

मैं कामना हूँ
तुम्हारे दीपों की लौ के ऊपर तैरती हुई
जब वे गाते हैं
जन्मदिन के कोरस...
मैं तुम्हारी हूँ
वह सब कुछ तुम्हें देती हुई
जिनकी तुम्हें दरकार होती है.
अब तुम्हीं बताओ
ऐसा क्यों होता है
कि इन सबके बाद भी
तुम खुश नहीं होते?


तुम्हारा शॉवर

मेरी चाह है
कि बन जाऊं तुम्हारा बाथरूम का शॉवर
खूब मल-मल कर साबुन से
साफ़ करूँ तुम्हारे केश
छेड़ते गुदगुदाते हुए
पहुँच जाऊं तुम्हारे होंठों तक
फिर चढ़ जाऊं तुम्हारे कन्धों पर
फिसलती हुई तुम्हारी पीठ से
कमर को लपेट लूँ चारों ओर से
घुटनों को थपथपा-गुदगुदाते
गिर पडूं तुम्हारे पैर की
उँगलियों की नोंक पर...
इसके बाद शुरू करूँ
वापसी की यात्रा
बार-बार
गुनगुनी गीली तरबतर
चिपचिपी लुभावनी और मोहक
ऊपर की ओर और नीचे की ओर
लिपटती हुई चारों ओर
लिपटती हुई चारों ओर
लिपटती हुई चारों ओर
तब तक अनवरत
कि रीत न जाये
सारा गुनगुना पानी
जब तक.