जालों वाली छ्त
दर्शन जोगा
हिन्दी रूपान्तर: सुभाष नीरव
आज फिर दोनों बहू और ससुर दफ्तर पहुँचे हैं।  पहाड़ जैसी चोट का मारा बेचारा बुज़ुर्ग अधिक उम्र और कमजोर सेहत होने के कारण, थोड़ा दम भरने के लिए कमरे के बाहर बिछी बैंच की ओर बढ़ा तो बहू ने हाँफ रहे ससुर की हालत देखकर कहा, “आप बैठ जाओ बापू जी, मैं करती हूँ पता।”
          कमरे में घुसते हुए पहले की भांति उसकी नज़र तीन-चार मेजों पर गयी। जिस मेज पर से वे कई बार आकर लौटते रहे थे, उस पर आज मरियल से बाबू की जगह भरवें शरीर वाली एक लड़की गर्दन झुकाये कागजों को उलट-पलट रही थी। लड़की को देखकर उसने राहत महसूस की।
          “सतिश्री अकाल जी!” कमरे में बैठे सभी लोगों को उसने साझा नमस्कार किया। एक-दो ने रूखी निगाहों से उसकी ओर देखा, पर नहीं दिया। जब वह उसी मेज की ओर बढ़ी तो क्लर्क लड़की ने पूछा, “हाँ, बताओ?”
          “बहन जी, मेरा घरवाला सरकारी  मुलाजिम था, पिछ्ले दिनों सड़क हादसे में  मारा गया। भोग वाले दिन महकमेवाले कहते थे कि रुपये-पैसे की जो मदद गोरमिंट से मिलनी है, वो तो मिल ही जाएगी, साथ में उसकी जगह पर नौकरी भी मिलेगी। पर मरने वाले पर निर्भर वारिसों का सर्टिफिकेट लेकर देना होगा। पटवारी से लिखवाकर कागज यहाँ भेजे हुए हैं, अगर हो गए हों तो देख लो जी।”
          “क्या नाम है मृतक का?” क्लर्क लड़की ने संक्षिप्त और खुश्क भाषा में पूछा।
          “जी, सुखदेव सिंह।”
          कुछेक कागजों को इधर-उधर करने के बाद एक रजिस्टर खोलकर लड़की बोली, “करमजीत कौर विधवा सुखदेव सिंह?”
          “  हाँ जी, यही है।” वह जल्दी-जल्दी इस तरह बोली जैसे सब कुछ मिल गया हो।
          “साहब के पास अन्दर भेजा है केस।”
          “पास करके जी?” उसी उत्सुकता से  विधवा ने पूछा।
          “नहीं, अभी तो अफ़सर के पास भेजा है। क्या पता, वह क्या लिखकर भेजे। जैसा वह लिखेगा, उसी तरह कार्रवाई होगी।”
          “बहन जी, अन्दर जाकर आप खुद करा दो।” उसने विनती की।
          “लो, अन्दर कौन-सा एक तुम्हारा ही कागज है। ढेर लगा पड़ा है। और फिर एक-एक कागज के पीछे घूमते रहे तो शाम तक हम पागल हो जाएंगे।”
          “देख लो जी। हम रब के मारों को तो आपका ही आसरा है।” विधवा ने कांपती आवाज़  में  लगभग रोते हुए याचना की।
          “तेरी बात सुन ली मैंने, हमारे पास ऐसे ही केस आते हैं।”
          विधवा औरत भारी हो उठे पैरों को बमुश्किल उठाती, अपने आप को सम्भालती,  बैंच पर पीठ टिकाये बैठे ससुर के पास आकर खड़ी हो गयी।
          “क्या हुआ?” देखते ही ससुर बोला।
          “बापू जी, हमारे भाग इतने अच्छे होते तो वो ही क्यों चला जाता शिखर-दुपहरी।”
          बुजुर्ग को उठने के लिए कहकर धुंधली आंखों से दफ्तर की छत के नीचे लगे जालों को निहारती वह धीरे-धीरे बरामदे से बाहर की ओर चल दी।
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पंजाबी उपन्यास
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यू.के. निवासी हरजीत अटवाल पंजाबी के सुप्रसिद्ध कथाकार और उपन्यासकार हैं। 
इनके लेखन में एक तेजी और निरंतरता सदैव देखने को मिलती रही है। लेकिन यह तेजी 
और न...
8 वर्ष पहले
 
 

 
 
 
 
 
