रविवार, 21 अक्तूबर 2007

अनूदित साहित्य



"सेतु-साहित्य" के सभी पाठकों-दर्शकों को दशहरे की शुभकामनाएं !





फूल
डा. श्याम सुंदर दीप्ति

बहुत कोशिश के बाद भी
खत्म न हो सका मेरा वजूद
मैं तो वो फूल हूँ
जिसको मसलने पर
खुशबू तो फैली ही सारे बाग में
तेरे हाथों में भी रह गई।



नक्शा
डा. श्याम सुंदर दीप्ति

तुझे तो शायद अब याद नहीं होगा
जब हम दोनों ने मिलकर
एक घर का नक्शा तैयार किया था

फूलों की क्यारियों के लिए जगह छोड़कर
सबसे से पहले मेहमान कमरा था
उसके बाद तेरा और मेरा शयनकक्ष
और फिर अपने भविष्य का

उसके बाद थोड़ी-सी जगह बची थी
जिसके लिए अपना झगड़ा भी हुआ था
तूने कहा - स्टोर बनाएंगे
और मैंने कहा था- लायब्रेरी
इसपर तूने फिर कहा था
एक ही बात है
तुम्हारी किताबें स्टोर में ही पड़ी रहेंगी

नक्शे की लकीरें
छतें, दीवारें न बन सकीं
और आज
वह नक्शा मैंने
एक किराये के कमरे की दीवार पर
उलटा लटका छोड़ा है
जो रोज़ नई शक्लों में नज़र आता है
कभी वह तेरी आँखें बन जाता है
मानो वे आसमान को निहार रही हों

और कभी अंग्रेजी बोलते होंठ
और कभी तेरे पैर
किसी कैफे, होटल या रेस्तरां की ओर
जाते प्रतीत होते हैं

और कभी तेरा हाथ
लगता है जैसे अलविदा कह रहा हो।



किताब
डा. श्याम सुंदर दीप्ति

तू कोई सुंदर-सी किताब बन कर मिल
जिसमें न 'घटा' हो, न 'भाग' हो
सिर्फ़ 'जोड़' हो और 'गुणा' हो
कोई ऐसा हिसाब बन कर मिल।

कोई गीता नहीं, कोई कुरान नहीं
किसी भी फलसफे़ का ज्ञान नहीं
किसी काव्य-किस्से का बखान नहीं
जैसे 'पहली कक्षा' में शुरू होता है– 'अ… आ'
जैसे धरती पर उतरती है सूरज की लाली
तू किसी इल्म का आफ़ताब बन कर मिल
कोई प्यारी-सी किताब बन कर मिल।

जैसे इतिहास की सच्ची मिसाल हो
जैसे वैज्ञानिक का कोई कमाल हो
जैसे विज्ञान की कोई पड़ताल हो
सवाल को सवाल बन कर न काट
सवाल का सही जवाब बन कर मिल
तू कोई सोहणी-सी किताब बन कर मिल।

वापस लौट कर उस अस्तित्व को देख
सुकरात का ज़हर और ईशा की सूली देख
कब पंडित, भाई, मुल्ला और आये ये शेख
क्यों सीखा दीवारों को ही खड़ी करना?…
जो रूहों से जुड़ा है, वो पंजाब बन कर मिल
तू कोई सुंदर पठनीय किताब बन कर मिल
कमरे वाला नहीं,
बागों में जो महके, वो गुलाब बन कर मिल।

ज़िन्दगी जीने का एक मसला है
जो भी अकेला है, वही पगला है
सांसों और धड़कनों का इक सिलसिला है
मैं पानी बनूं, तू हवा बन
मैं हवा बनूं, तू आब बन कर मिल
तू कोई बढि़या-सी किताब बन कर मिल
जिसमें सिर्फ़ 'जोड़' हो और 'गुणा' हो
जिसमें लड़ाई का न कोई जिक्र हो
जिसमें प्रेम के किस्से हों, कहानियां हो
मिल तो वो इतिहास बन कर मिल।

अगर मिलना है तो सच्चा-पवित्र ख़्वाब बन कर मिल
'गुणा' और 'जोड़' वाला हिसाब बन कर मिल
कोई पठनीय किताब बन कर मिल।
(इन कविताओं का मूल पंजाबी से हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव़)

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कवि-सम्पर्क :
97, गुरू नानक एवेन्यू,
मजीठा रोड
अमृतसर- 143004
दूरभाष: 098158-08506

8 टिप्‍पणियां:

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

फूल का है यही उसूल
जो कुचले उसे भी दे उपहार
जो सिकोड़े नाक
उसमें भी खुशबू भर दे
जो तोड़े उससे न हो नाराज
सिर्फ करता है सबके दिलों पर राज।

डा. श्याम सुंदर दीप्ति की तीनों कविताएं बेहद भावपूर्ण और गहरा अर्थ समाहित किए हुए हैं।

हरिराम ने कहा…

अति रोचक, संग्रहणीय और संस्तुति योग्य रचनाएँ।

विनीत कुमार ने कहा…

अच्छा अनुवाद है, आपने कविता के शब्दों की नहीं भावों और अनुभूतियों का अनुवाद किया है,परकाया प्रवेश का काम किया है। ....बधाई

मीनाक्षी ने कहा…

तू किसी इल्म का आफ़ताब बन कर मिल
कोई प्यारी-सी किताब बन कर मिल।
--- बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति !

बेनामी ने कहा…

सुभाष नीरव जी
मूल कविताओं की सम्वेदना मन को गहरे तक मथती है। पंजाब के लोकगीतों तक में जो बिम्ब मिलते हैं वे अन्यत्र दुर्लभ माने जाते हैं। उनकी कोमलता का कोई सानी नहीं। अब लम्बे समय से पंजाबी में लिखे जा रहे से मानो वंचित-सी हो गई हूँ। इस साहित्यिक सेतु के बहाने उन्हें पढ़ कर अच्छा लगता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप मूल रचनाकार का ईमेल पता भी डाक पते के साथ उपलब्ध करवा दें?

सहज साहित्य ने कहा…

सेतु साहित्य ने कम समय में सुन्दर रचनाएँ दी हैं। दीप्ति जी की कविताएँ दिल की गहराइयों से निकली दिल को छूने वाली आवाज़ है ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु''

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

दीप्ति जी की कविताएँ बहुत सुंदर और सारगर्भीत है ,नि: संदेह भावपूर्ण है, पढ़कर अच्छा लगा.

बेनामी ने कहा…

अभी-अभी डा0 दीप्ति की कविताएं पढ़ीं। सचमुच अद्भुत कविताएं हैं। अनुवाद भी बहुत सुन्दर!
- अलका सिन्हा