शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

अनूदित साहित्य


इरानी कविता

“मैं कविता को सम्मान का वही दर्ज़ा देती हूँ, धार्मिक लोग जो धर्म को देते हैं…”
-फ़रोग फ़रोखज़ाद

1935 में तेहरान में एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी फ़रोग ने अपने 32 वर्षों के छोटे से जीवनकाल में पाँच काव्य संकलन(अन्तिम संकलन उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित), अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही गई डाक्युमेंटरी फ़िल्म "द हाउस इज़ ब्लैक"(1962), नाटक (लेखन और प्रस्तुति), पेंटिंग और स्केचिंग जैसी अनेक विधाओं में काम किया। उन्हें आधुनिक इरानी कविता के हिरावल दस्ते का महत्वपूर्ण सदस्य माना जाता है। शाह के सत्तापलट के बाद अयातोल्ला खोमेनी की सरकार ने उनकी कविताओं पर पाबंदी लगा दी, उनके प्रकाशक को दंडित किया गया, पर धीरे-धीरे जनभावनाओं को देखते हुए ये पाबंदियाँ कम कर दी गईं। आज भी उनकी कई किताबों के नए संस्करण निकल रहे हैं। उन पर फ़िल्में बनाई जा रही हैं और नाटकों का मंचन हो रहा है और इरानी ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में प्रगतिशील महिला आंदोलन के प्रेरणास्रोत के तौर पर उन्हें याद किया जा रहा है।

यहाँ प्रस्तुत है फ़रोग फ़रोखज़ाद की अंग्रेजी में अनूदित चार कविताओं का हिंदी अनुवाद।


फ़रोग फ़रोखज़ाद की चार कविताएं
अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र
कविताओं के साथ सभी चित्र : अवधेश मिश्र

अभिवादन सूर्य का

एकबार फिर से मैं अभिवादन करती हूँ सूर्य का
मेरे अंदर जो बह रही है नदी
मेरी अंतहीन सोच के घुमड़ते मेघों का सिलसिला
बाग में चिनार की अनगढ़ बढ़ी हुईं क्यारियाँ
गर्मी के इस मौसम में भी
सब मेरे साथ-साथ चल रहे हैं।

खेतों में रात में आने वाली गंध
मुझ तक पहुँचाने वाले कौवों के झुंड भी
मेरी माँ भी जिसका
इस आईने में अब अक्स दिखता है
और मुझे खूब मालूम है
बुढ़ापे में दिखूँगी मैं हू-ब-हू वैसी ही।

एक बार मैं फिर से धरती का अभिवादन करूँगी
जिसकी आलोकित आत्मा में
जड़े हुए है मेरे अविराम आवेग के हरे-भरे बीज।

मैं लौटूँगी, ज़रूर लौटूँगी, मुझे लौटना ही होगा
अपनी लटों के साथ, नम माटी की सुगंध के साथ
अपनी आँखों के साथ,
अंधकार की गहन अनुभूतियों के साथ,
उन जंगली झाड़ियों के साथ
जिन्हें दीवार के उस पार से
चुन चुनकर मैंने इकट्ठा किया था।

मैं लौटूँगी, ज़रूर लौटूँगी, मुझे लौटना ही होगा
प्रवेश द्वार सजाया जाएगा प्रेम के बंदनवार से
और वहीं खड़ी होकर मैं एकबार फिर से
उन सबका स्वागत करूँगी
जो प्रेम में हैं डूबे हुए आकंठ
देखो तो एक लड़की अब भी खड़ी है वहाँ
प्रेम से सिरे तक आकुल।
(‘गुलाम रज़ा सामी गोरगन रूडी’ के अंग्रेजी अनुवाद से)
0

बंदी

मैं तुम्हें चाहती हूँ हालाँकि मालूम है
कभी अपने सीने से लगा नहीं पाऊँगी तुम्हें
स्वच्छ और चमकीले आकाश हो तुम
और मैं अपने पिंजरे के इस कोने में
दुबकी हुई एक बंदी चिड़िया।

सर्द और काली सलाखों के पीछे से
बढ़ती हैं तुम्हारी ओर
लालसापूर्ण मेरी कातर निगाहें
आतुर होकर देखती रहती हूँ बाट उस बांह की
जो मुझ तक पहुँचे और मैं फड़फड़ाकर खोल दूँ
अपने सारे पंख तुम्हारी ओर।

सोचती हूँ, गफ़लत के पल भी आएँगे
और मैं इस सन्नाटे की क़ैद से उड़ जाऊँगी फुर्र से
पहरेदार की आँखों के इर्द-गिर्द करूँगी चुहलबाजियाँ
और नए सिरे से श्रीगणेश करूँगी
जीवन का तुम्हारे साथ-साथ।

ऐसी ही बातें सोचती रहती हूँ
हालाँकि मालूम है
है नहीं मुझमें इतना साहस
कि मुक्ति के आकाश में उड़ चलूँ
कालकोठरी से बाहर –
पहरेदार बहुत मेहरबान भी हो जाएँ
नहीं मिलेगी मुझे इतनी साँस और हवा
कि फड़फड़ाकर उड़ सकें मेरे पंख।

हर एक चटक सुबह सलाखों के पीछे से
मेरी आँखों में आँखें डालकर मुस्कुराता है एक बच्चा
और जब मैं उन्मत्त होकर गाना शुरू करती हूँ खुशी के गीत
बढ़ आते हैं उसके मुरझाए हुए होंठ मुझ तक चूमने को मुझे।

मेरे आकाश, जब कभी मैं चाहूँ
इस सन्नाटे की कालकोठरी से भाग कर तुम तक पहुँचना
क्या सफाई दूँगी कलपते हुए उस बच्चे की आँखों को
कि बंदी चिड़ियों का ही मालिक होता है
एक ही मालिक
क़ैदखाना।

मैं वह शमा हूँ
जो आत्मदाह से रौशन करते है अपने घोंसले
यदि मैं बुझा दूँगी अपनी आग और लौ
तो फिर कहाँ बचेगा
यह अदद घोंसला भी।
(इराज़ बशीरी के अंग्रेजी अनुवाद से)
0

स्नान

अठखेलियाँ करती हवा में मैंने अपने कपड़े उतारे
कि नहा सकूँ कलकल बहती नदी में
पर स्तब्ध रात ने बाँध लिया मुझे अपने मोहपाश में
और ठगी-सी मैं
अपने दिल का दर्द सुनाने लगी पानी को।

ठंडा था पानी और थिरकती लहरों के साथ बह रहा था
हल्के से फुसफुसाया और लिपट गया मेरे बदन से
और जागने-कुलबुलाने लगीं मेरी चाहतें

शीशे जैसे चिकने हाथों से
धीरे-धीरे वह निगलने लगा अपने अंदर
मेरी देह और रूह दोनों को ही।

तभी अचानक हवा का एक बगूला उठा
और मेरे केशों में झोंक गया धूल-मिट्टी
उसकी साँसों में सराबोर थी
जंगली फूलों की पगला देने वाली भीनी ख़ुशबू
यह धीरे-धीरे भरती गई मेरे मुँह के अंदर।

आनंद में उन्मत्त हो उठी मैंने
मूँद लीं अपनी आँखें
और रगड़ने लगी बदन अपना
कोमल नई उगी जंगली घास पर
जैसी हरकतें करती है प्रेमिका
अपने प्रेमी से सटकर
और बहते हुए पानी में
धीरे-धीरे मैंने खो दिया अपना आपा भी
अधीर, प्यास से उत्तप्त और चुंबनों से उभ-चुभ
पानी के काँपते होंठों ने
गिरफ़्त में ले लीं मेरी टांगें
और हम समाते चले गए एक दूसरे में…
देखते – देखते
तृप्ति और नशे से मदमत्त
मेरी देह और नदी की रूह
दोनों ही जा पहुँचे – गुनाह के कटघरे में।
(‘मीतरा सोफिया’ के अंग्रेजी अनुवाद से)
0


पाप

मैंने पाप किया पर पाप में था निस्सीम आनंद
समा गई गर्म और उत्तप्त बाँहों में
मुझसे पाप हो गया
पुलकित, बलशाली और आक्रामक बाँहों में।

एकांत के उस अँधेरे और नीरव कोने में
मैंने उसकी रहस्यमयी आँखों में देखा
सीने में मेरा दिल ऐसे आवेग में धड़का
उसकी आँखों की सुलगती चाहत ने
मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया।

एकांत के उस अँधेरे और नीरव कोने में
जब मैं उससे सटकर बैठी
अंदर का सब कुछ बिखर कर बह चला
उसके होंठ मेरे होंठों में भरते रहे लालसा
और मैं अपने मन के
तमाम दुखों को बिसराती चली गई।

मैंने उसके कान में प्यार से कहा –
मेरी रूह के साथी, मैं तुम्हें चाहती हूँ
मैं चाहती हूँ तुम्हारा जीवनदायी आलिंगन
मैं तुम्हें ही चाहती हूँ मेरे प्रिय
और सराबोर हो रही हूँ तुम्हारे प्रेम में।

चाहत कौंधी उसकी आँखों में
छलक गई शराब उसके प्याले में
और मेरा बदन फिसलने लगा उसके ऊपर
मखमली गद्दे की भरपूर कोमलता लिए।

मैंने पाप किया पर पाप में था निस्सीम आनंद
उस देह के बारूद में लेटी हूँ
जो पड़ा है अब निस्तेज और शिथिल
मुझे यह पता ही नहीं चला हे ईश्वर !
कि मुझसे क्या हो गया
एकांत के उस अँधेरे और नीरव कोने में।
(‘अहमद करीमी हक्काक’ के अंग्रेजी अनुवाद से)
00

अपने परिचय-स्वरूप यादवेन्द्र जी का कहना है कि यूँ तो वह रहने वाले बनारस के हैं पर उनका बचपन बीता है बिहार में और बिहार के हाजीपुर, भागलपुर और पटना में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है, इसलिए प्राय: दफ़्तर या अन्य जगहों पर इस बात पर अक्सर विवाद कर बैठते हैं कि बिहार के मायने केवल लालू ही नहीं होता। जन्म- 1957 में। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद थोड़े समय कोरबा(छत्तीसगढ़) में रहे, फिर 1979 से निरंतर रुड़की में हैं। यहाँ सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इन्स्टीच्यूट में एक वैज्ञानिक और उप-निदेशक के तौर पर काम कर रहे हैं। ‘दिनमान’, ‘रविवार’, ‘आविष्कार’, ‘जनसत्ता’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘हिंदुस्तान’, ‘समकालीन जनमत’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘कथादेश’, और ‘कादम्बिनी’ जैसी अनेक हिंदी की शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में मुख्यतौर पर विज्ञान लेखन करते रहे हैं। गत कुछ वर्षों से अनुवाद की ओर रुख किया है। अपनी माँ को अंग्रेजी में लिखी एक भारतीय कहानी पढ़वाने के लिए अनुवाद शुरू किया और अब इसमें उनका खूब मन रमता है।
सम्पर्क : ए-24, शांति नगर, रुड़की-247667,उत्तराखंड
फोन : 01332- 283245, 094111 11689
ई-मेल : yaa_paa@rediffmail.com

20 टिप्‍पणियां:

Gurpreet ने कहा…

ਇਹਨਾਂ ਖੂਬਸੂਰਤ ਕਵਿਤਾਵਾਂ ਨੂੰ ਪੰਜਾਬੀ ਚ ਅਨੁਵਾਦ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ ,ਆਗਿਆ ਦੇ ਦੇਵੋ !

सुभाष नीरव ने कहा…

गुरप्रीत जी, आपने अपनी टिप्पणी दी और "सेतु साहित्य" में प्रकाशित फ़िरोग की इरानी कविताओं का पंजाबी में अनुवाद करने की अनुमति मांगी है, इसके लिए आभारी हूँ। आप इन कविताओं का पंजाबी में अनुवाद कर सकते हैं। बस, इतना अनुरोध है कि जहाँ भी प्रकाशित हो उसकी सूचना मुझे और अनुवादक यादेवेन्द्रजी को अवश्य दें, उनका ईमेल आई डी और फोन नंबर ब्लाग पर दिया हुआ है।

ਤਨਦੀਪ 'ਤਮੰਨਾ' ने कहा…

Neerav saheb..Forugh Farrokhzad ki khoobsurat nazmon ka anuvaad karke Yadvendra ji ne bahut achha kaam kiya hai. Main inki bahut ziada fan hoon..maine unki har rachna ka English mein anuvaad padha hai..aur Punjabi mein kuch nazmein Aarsi ke liye Punjabi mein anuvaad karke rakhi huyee hain directly English se..jald hi Aarsi par lagaoongi.

My friend, Sahar, who is from Iran, is visiting her country these days, and she has promised to bring back a complete volume of Forugh Farrokhzad's poetry translated into English for me. Iran ke mahila writers mein se mujhey Forugh bahut pasand hai.

Unki rachnayein Setu par lagane ke liye aapko aur anuvaad ke liye Yadvendra ji ko bahut bahut badhai ho.

Best regards
Tandeep Tamanna
Vancouver, Canada
punjabiaarsi.blospot.com

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया रचनाएं प्रेषित की हैं।आभार।

PRAN SHARMA ने कहा…

SABHEE KAVITAAYEN ACHCHHEE HAIN.
SUNDAR ANUVAAD KE LIYE ANUVAADAK
KO BADHAAEE.

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

सुभाष जी बहुत ख़ास ब्लॉग है आपका! मेरी बधाई स्वीकार करें. यादवेंद्र जी के लिए क्या कहूँ - वे बहुत प्यारे और आदरणीय बड़े भाई हैं - उन्हें सलाम, उनके काम को सलाम ! आपके ब्लॉग का लिंक अपने ब्लॉग में लगा रहा हूँ. अब आना-जाना लगा रहेगा!

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

प्रिय सुभाष,

फ़रोग की कविताओं का यादवेन्द्र जी द्वारा किया गया अनुवाद पढ़ाकर तुमने महत्वपूर्ण कार्य किया है. तुम इतना सब कर कैसे पाते हो ! ईर्ष्या होती है.

चन्देल

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

मैं लौटूँगी, ज़रूर लौटूँगी, मुझे लौटना ही होगा
प्रवेश द्वार सजाया जाएगा प्रेम के बंदनवार से
और वहीं खड़ी होकर मैं एकबार फिर से
उन सबका स्वागत करूँगी
जो प्रेम में हैं डूबे हुए आकंठ
देखो तो एक लड़की अब भी खड़ी है वहाँ
प्रेम से सिरे तक आकुल।

गहरे भाव लिए सुन्दर कविता...अनुवाद सराहनीय है...!!

मैं तुम्हें चाहती हूँ हालाँकि मालूम है
कभी अपने सीने से लगा नहीं पाऊँगी तुम्हें
स्वच्छ और चमकीले आकाश हो तुम
और मैं अपने पिंजरे के इस कोने में
दुबकी हुई एक बंदी चिड़िया।


वाह......!
ये कविता बेहद पसंद आई....!!

अठखेलियाँ करती हवा में मैंने अपने कपड़े उतारे
कि नहा सकूँ कलकल बहती नदी में
पर स्तब्ध रात ने बाँध लिया मुझे अपने मोहपाश में
और ठगी-सी मैं
अपने दिल का दर्द सुनाने लगी पानी को।

अदभुत शब्दवाली.....!!

नीरव जी,
बहोत सुन्दर रचनाये हैं , बहोत अच्छा लिखती हैं फ़रोग फ़रोखज़ाद जी...यादवेन्द्र जी आपने अनुवाद बहोत बढ़िया किया है...बधाई सविकारें.....!!

अक्षर जब शब्द बनते हैं ने कहा…

स्वर्गवासी युवा क्रांतिधर्मी इरानी कवयित्री फ़रोग फ़रोखज़ाद की चारो कवितायें मैने एक सूर में पढ़ ली है। जितनी उद्यीप्त और संवेगमय ये कवितायें हैं,उतना ही सुघड़ अनुवाद कर्म भी।इन कविताओं के शिल्प से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।ये मुझे पाब्ला नेरूदा की याद दिलाते हैं।अनुवादक यादवेन्द्र जी बधाई के पात्र हैं और सुभाष भाई आपने इतनी उत्कृष्ट कविता को स्थान दिया,पढ़वाय अपने ब्लॉग पर ,उसके लिये आपका भी आभारी हूं।- सुशील कुमार। (sk.dumka@gmail.com)

भारत भूषण तिवारी ने कहा…

शिरीष भाई की बात अनुमोदन करता हूँ. अच्छी कवितायेँ पढ़वाने के लिए शुक्रिया!

बेनामी ने कहा…

Itnee sundar kavitaon se parichit karane ka shukriya keise ada karoon naheen jantee.
Rekha Maitra
rekha.maitra@gmail.com

batkahi ने कहा…

sabhi sathiyon ko(ye liberty main un sab se le raha hun,jinse niji parichay nahi hai)shukriya,jinhone mere anuvad sarahe....jab kavita me itna dam ho to anuvad to bahut mamuli sadhan ban jata hai.jab se maine FOROGH ko padha,tab se ek ajeeb bechaini man me bhar gayee hai...kitni bandishen ho,junoon to junoon hota hai...bharat ho ya iran...kya hamare desh me ISMAT CHUGTAYI ka hai koi jawab?mitron ko ye batana chahta hun ki abhi hafte das din pahle FOROGH ki kuchh kavitaon ke anuvad bhai SHIRISH MAURYA ke hindi blog anunaad par bhi aye hain...unhe bhi dekhiye

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

देखते – देखते
तृप्ति और नशे से मदमत्त
मेरी देह और नदी की रूह
दोनों ही जा पहुँचे – गुनाह के कटघरे में।
(‘मीतरा सोफिया

बाली साहब ,

आपकी पसंद और यादवेन्द्र जी के अनुवाद का जवाब नहीं । फरोख फरोखजद ki सूक्छ्म अभिव्यक्ति और अश्लीलता रहित देह आवेगों का चित्रण मन मोहक है ,

बधाई

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

देखते – देखते
तृप्ति और नशे से मदमत्त
मेरी देह और नदी की रूह
दोनों ही जा पहुँचे – गुनाह के कटघरे में।

ठंडा था पानी और थिरकती लहरों के साथ बह रहा था
हल्के से फुसफुसाया और लिपट गया मेरे बदन से
और जागने-कुलबुलाने लगीं मेरी चाहतें

(‘मीतरा सोफिया

बाली साहब ,

आपकी पसंद और यादवेन्द्र जी के अनुवाद का जवाब नहीं । फरोख फरोखजद के सूक्छ्म अभिव्यक्ति और अश्लीलता रहित देह आवेगों का चित्रण मन मोहक है ,

बधाई

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

रन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चाँद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी

तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!


बाली साहब ।

अमरजीत जी के लिए टिप्पणी कहाँ देनी है ,

बहुत ही अच्छी कविताएँ हैं । क्या अमरजीतजी और आप आखिल भारतीय साहित्य परिषद से सम्बद्ध है?

ढेर बधाइयाँ ।

बेनामी ने कहा…

Subhashji!
Forugh ki "snaan" kavita ne hila kar rakh diya. Bahut aanand aaya sab -kuchh parh kar.Thanx!
Shubhaakaankshi....
Veena Vij "Udit"
vij.veena@gmail.com

naveen kumar naithani ने कहा…

पहली बार आपके ब्लोग तक पहुंचा. बहुत उम्दा काम कर रहे हैं.फ़रोग की कविताओं का अनुवाद यादवेंद्र्जी ने बेहद संवेदनशीलता के साथ किया है.
आपका और यादवेंद्र्जी का आभार

बेनामी ने कहा…

मैं तुम्हें चाहती हूँ हालाँकि मालूम है
कभी अपने सीने से लगा नहीं पाऊँगी तुम्हें
स्वच्छ और चमकीले आकाश हो तुम
और मैं अपने पिंजरे के इस कोने में
दुबकी हुई एक बंदी चिड़िया।

सर्द और काली सलाखों के पीछे से
बढ़ती हैं तुम्हारी ओर
लालसापूर्ण मेरी कातर निगाहें
आतुर होकर देखती रहती हूँ बाट उस बांह की
जो मुझ तक पहुँचे और मैं फड़फड़ाकर खोल दूँ
अपने सारे पंख तुम्हारी ओर।
bahut hi pyari poems padne ko di abne subhash ji....anuvad b bahut hi khubsurat hai....punjabi anuvad PRATIMAAN k naye ank me laga raha hun....chhapne par suchit karunga.......amarjeet kaunke

बेनामी ने कहा…

यादवेन्‍द्र जी कविताओं के बहुत सुंदर और सहज अनुवाद कर रहे हैं। आजकल की नई कविताओं को एक बार समझने के लिए‍ कई-कई बार पढ़ना होता है। पर इन कविताओं को कई-कई बार पढ़ने का मन करता है। और वे हर बार नई तरह से समझ आती हैं। निश्चित ही यह कवि का कमाल तो है ही, पर हिन्‍दी में जिस तरह से यादवेन्‍द्र जी ने प्रस्‍तुत किया वह सोने में सुहागा है। यह एक वैज्ञानिक और साहित्‍यकार का अद्भुत संगम है। सुभाष जी आपको भी बधाई। utsahi.blogspot.com ‍‍‍

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बहुत बढिया ....
आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....