शनिवार, 22 दिसंबर 2007

अनूदित साहित्य


दलित चेतना और संवेदना के प्रमुख
पंजाबी कवि बलबीर माधोपुरी की तीन कविताएं
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव


(1) अभिलाषा


ज़िन्दगी-
मैं तेरे संग ऐसे जीना चाहता हूँ
जैसे मिट्टी संग पौधा
पत्ते संग हरियाली
और आँखों संग दृश्य ।

ज़िन्दगी-
मैं तेरे साथ रखना चाहता हूँ
ऐसा मोह
जैसे सागर संग मछली
सूरज संग गरमाहट
फूल संग खुशबू ।

ज़िन्दगी-
मैं ढलानों को, शिखरों को
यूँ करना चाहता हूँ पार
जैसे सागर की लहरों को किश्ती
ऊँची-ऊँची पहाडि़यों को
कोई पहाड़ी गडरिया ।

ज़िन्दगी-
मैं चाहता हूँ रात-दिन
कि तपते मरुस्थल पर
छा जाऊँ बादल बन कर
गरमाहट भरे पंख बन जाऊँ
ठिठुरते-सिकुड़ते बोटों के लिए ।

ज़िन्दगी-
मैं इस तरह विशाल होना चाहता हूँ
जैसे सात समुन्दरों का एक रूप
सतरंगी किरनों की एक धूप
अनेक टहनियों-पत्तों वाला
हरा-भरा एक पेड़ ।

ज़िन्दगी-
मैं तेरे संग ऐसे जीना चाहता हूँ
जैसे मिट्टी संग पौधा,
पत्ते संग हरियाली
और आँखों संग दृश्य !


(2) काव्य-इच्छा

मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
बरसाती नालों की भाँति
किसी नदी में गिर कर
खो बैठें अपनी पहचान ।

मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसके धर्मग्रंथ
एक विशाल खेत को
बाँटते हैं टुकड़ों में
मखमली घास की हरियाली
आरक्षित करते हैं चोटी-टोपी के लिए
वर्जित करते हैं तीसरा नेत्र खोलना
मेरे जैसे लाखे रंग के लोगों के लिए ।

मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उन परिन्दों के नाम हों
जो गाँव की बस्तियों-मुहल्लों को पार कर
चुग्गा चुगने के लिए उतर आते हैं
इन-उन आँगनों में
घरों की ऊँची-नीची
छतों की परवाह किए बगैर ।

बस, मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसमें एकलव्य, बंदाबहादुर की वीर गाथाएँ हैं
पीर बुद्धूशाह का जूझना हैपाब्लो नेरूदा की वेदना है ।




(3) तिनके से हल्का आदमी

कई बार
सरकलम किए पेड़ की तरह
हो जाता हूँ बौना
जिसके ऊपर से गुज़रती है
बिजली की तार ।

छांग दिया जाता हूँ बेमौसम
जब अकस्मात ही
कोई पूछ लेता है मेरा धर्म ।

कई बार
पानी से भी पतला
हो जाता है माटी का यह पुतला ।

शब्द–
जुबान का छोड़ जाते हैं साथ
जैसे पतझड़ में पेड़ों से पत्ते ।

सिर पर से गुज़र जाता है पानी
धरती देती नहीं जगह
जब अचानक ही
कोई पूछ लेता है मेरी जात ।

कई बार
मन के आकाश पर
चढ़ आते हैं
घोर उदासियों के बादल
जब महानगरीय हवा में
पंख समेट कर बैठ जाता है
उड़ाने भरता, कल्लोल करता
चुग्गा चुगने आया कोई परिंदा
पूछे जब कोई सहसा
उसका मूल प्रदेश
पहले गाँव, फिर मुहल्ला ।

कई बार क्या, अक्सर ही
बिंध जाता है उड़ता हुआ परिंदा
कभी धर्म, कभी जात, कभी मुहल्ले से
तो कभी
अवर्ण के बाण से ।

कवि सम्पर्क :
आर ज़ैड ए-44, महावीर विहार
पालम, नई दिल्ली-110045
ई मेल : madhopuri@yahoo.co.in.
दूरभाष : 011-25088112(निवास)
09350548100(मोबाइल)


एक सूचना

सेतु साहित्यसाप्ताहिक को जनवरी 2008 से मासिक किया जा रहा है। जनवरी 2008 से अब यह माह में एक बार पोस्ट हुआ करेगा।

4 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

भाई बलबीर जी की तीनो कवितायें अनूठी हैं. एक से बढ़ कर एक. शब्द और भाव का ऐसा अद्भुत संगम विरले ही देखने को मिलता है. ऐसे नायाब कवितायें रचने के लिए बलबीर जी को साधुवाद और आप को कोटिश धन्यवाद जिनके माध्यम से ये हम तक पहुँची.
नीरज

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

इस बीर की कविताओं में
खूब बल है
सबल हैं
बल जो उलझा नहीं
सुलझा सुलझा सा है
हर अभिलाषा
प्रत्येक इच्छा
और एक
सच्चाई का बोध
तिनके से हल्का आदमी
सच्चा आदमी
जिसमें आदमीयत हो
बरकरार है बेकरार
तिनके से अणु
अणु से परमाणु
होने तथा विलीन
होने के लिए
परमसत्ता में
संघर्षरत आदमी।

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

Priya Subash,

Balbir ki kavitayoan ne man mugdh kar diya. Man me bas gayin teeno rachnayen : Abhilash aur Kavya ichha to kabhi n bhulai jane wali rachnayen hain. Badhai tumbhe aur Balbir ko .

Chandel

Devi Nangrani ने कहा…

Subhash ji

setu sahitya ke ek ek rachna ek prerna ban jaati hai , acha padne ke baad kuch aur acha padne ki pyaas rahti hai. anokha setu hai yeh manch.

Devi