शनिवार, 5 जुलाई 2008

अनूदित साहित्य


पंजाबी कविता

विशाल पंजाबी कविता का एक होनहार कवि है जो अपने वतन की मिट्टी से दूर इटली में रहते हुए अपनी माँ-बोली में अपनी संवेदनाओं को कविता में बखूबी व्यक्त कर रहा है। इस कवि की जब मैंने तीन कविताएं अपने दूसरे ब्लाग “गवाक्ष” के प्रथम अंक (जनवरी 2008) में प्रकाशित की थीं तो कविता-प्रेमियों ने उन कविताओं को बेहद पसंद किया था और खूब सराहा था। “सेतु साहित्य” के इस अंक में पंजाबी के इस विशिष्ट कवि की पाँच प्रेम कविताएं जिन्हें उनकी कविता पुस्तक “मैं अजे होणा है” से लिया गया है, ब्लाग और वेब पत्रिकाओं के विशाल हिन्दी पाठकों के सम्मुख रख रहा हूँ, इस आशा और विश्वास के साथ कि ये कविताएं उनके हृदय पर अवश्य दस्तक देंगी-


पाँच प्रेम कविताएं- विशाल
पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव

नदी में तैरते हुए

उससे मैं मिला तो वह गुस्से में
काग़ज़ के टुकड़े फाड़-फाड़ कर
डस्टबिन में फेंके जा रही थी

मैंने पूछा- यह क्या ?
वह ऐसे बोली जैसे सिसक रही हो-
‘ख़त थे कुछ रूहों जैसे
यूँ ही पते गलत लिख बैठी थी’
इस गहरी चुप के दरम्यान
मैंने देखा कि नदियाँ आँखों में कैसे सूख जाती हैं !

फिर मैंने उसे एक ख़त लिखा-
‘ज़रूरी नहीं कि हर छांव तुम्हारे लिए महफूज ही हो
और किसी वक़्त गमलों में लगाते तो फूल हैं
पर उग आता है कैक्टस !’

उसने जवाब भेजा-
‘तूने ख़त तो ठीक पते पर भेजा है
पर इबारत तेरी रूहों से बहुत कच्ची है, माफ करना।’

फिर जब हम मिले तो उसने कहा-
‘बात तो कर कोई,
चुप तो रेता होती है निरी !’

और मैंने कहा-
‘मेरी बात के लिए
तेरे पास कोई डस्टबिन नहीं होगा।’
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बजा हुआ शंख

एक दिन मैंने उससे कहा
कि मुझे तेरा कांधा चाहिए
तो उसने कहा-
‘बात कहने के लिए
तुझे शब्दों की ज़रूरत क्यों पड़ती है?’

और फिर एक दिन आई
और कहने लगी-
‘हवा में तैरती उंगलियों को मैं क्या समझूं
अपने रिश्ते का कोई नाम ही रख दे !’

प्रत्युत्तर में मैंने कहा-
‘समझने के लिए
तुझे अर्थों की ज़रूरत क्यों पड़ती है ?’

वह इतनी ज़ोर से हँसी कि मुझे लगा
कहीं रो ही न दे
उसने हँसते-हँसते हुए कहा-
‘मूर्ख है निरा तू भी
और मैं भी किसी पगली से कम नहीं !’
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अपने आप और तेरे ‘तू’ तक पहुँचने का यत्न

एक रात का अन्तर पार करके
तूने सवेर जीत ली
और मैं हार गया
अपने सारे सूरज एक ही रात में

वैसे मैंने भी कभी नहीं चाहा था
कि अंधियारी गुफाएं
मेरी आदत बनें
पर जब मेरे लिए
सब उजाले वर्जित हो गए
तो मैंने एक जुगनू का
दावेदार बनना चाहा था

मेरे अन्दर सरकने लगी
ऐसे ही एक जलावतन ॠतु
और मैं कुचले हुए गुलाब जेबों में रखकर
जामुनी ॠतु के भरम पालता रहा
मैं बात को कहीं से भी शुरू नहीं करना चाहता
क्योंकि बात
कहीं भी खत्म नहीं होगी
पर तू मेरे पास-पास ही रहना

भीड़ में गुम हो जाऊँगा कभी
डूब जाऊँगा किसी किनारे पर ही
एकाकीपन से भी भर उठूँगा
होऊँगा तन्हा कमरे से ज्यादा
चीख से ज्यादा खामोश भी हो सकता हूँ
मेरे पैरों में आवारगी ही नहीं
तलाश भी है उन बादबानों की
जहाँ कहीं जहाज़ डूबते हैं

बस, तू मेरे पास-पास ही रहना
वैसे ही
जैसे रात कहती है
सवेरा बुलाता है
और मुझे उतना भर रख लेना
कि बाकी कुछ न बचे।
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वार्तालाप की गूंज

मैं आजकल अक्सर
तुझे सोचने लग पड़ा हूँ
जैसे कोई पानियों में पानी होकर सोचता है।

तुझे गुनगुनाने लग पड़ा हूँ इस तरह
जैसे प्रात:काल के ‘सबद’ का अलाप
तेरी तलाश का सफ़र
किसी अनहद राग का मार्ग
तेरी याद, तेरा मिलन
सरगम के सारे सुर
अधूरे सिलसिले
कुछ संभव, कुछ असंभव
अतृप्त मन की कथा
अथाह पानियों में घिरा हुआ भी
मेरे लिबास की तपिश वैसी ही

तू बर्फ़ की तरह मेरे करीब रह
मेरी रेतीली प्रभात
मेरे भावों के मृगों का रंग तो बदले
कि बना रहे जीने का सबब।

मैं लम्हा-लम्हा तेरा
मेरे अन्दर बैठे पहाड़ के लिए
तू बारिश बन
मैं बूँद-बूँद हो जाऊँ
तेरे अन्दर बह रही नदी के संग
हो जाऊँ मैं भी नदी
मेरी नज़र की सुरमई शाम पर
इस अजीब मरहले को
स्मृतियों के बोझ से मुक्त कर दे
तुझे संबोधित होते हुए भी मैं चुप हूँ
मेरे बनवास को और लंबा न कर…
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ख़ुश्क सागर की रवानगी के लिए ललक

तू पहाड़ बन जा
स्थिर…अडोल… खामोश
पहाड़
कि जिसे पार करते-करते
मेरी उम्र बीत जाए

अगर हमसफ़र नहीं तो
पहाड़ ही बन जा
इस तरह ही सही
तू मेरे सफ़र में शामिल तो हो…

किसी चरवाहे की बंसरी की हूक बनकर
मेरी रूह में घुल जा
घुल जा कि मेरी रूह
युगों-युगों से जमी पड़ी है

मैं रिसना चाहता हूँ
पिघलना चाहता हूँ
पहाड़ पर जमी बर्फ़ की तरह
चश्मे का नीर बनकर

तू मेरी कविता का बिंब बन जा
मैं तुझे सजाना चाहता हूँ
देख, मेरे अन्दर के सारे पुल टूट गए हैं
और मुझे रूह तक पहुँचने के लिए सहारा दे दे
तू मेरी छाती की पीर बन जा
ताकि मैं तुझे महसूस कर सकूँ

तू क्यों नहीं बन जाती
मेरी आँख का आँसू
मैं अपनी डायरी से परे
और भी बहुत कुछ हूँ

हर बार प्रतीक्षा क्यों बनती हो
तू दस्तक बनकर आ
और देख
सभ्यता के अंधेरे में
मैं कितना खो गया हूँ

मुझे अपने आप से
बहुत-सी बातें करनी हैं
अपने बारे में… तेरे बारे में…
खुद से मिले एक मुद्दत हो गई है
बिखर गया हूँ
तलाशना है, संभालना है अपने आप को

मेरे इस सबकुछ के लिए
तेरा मेरे सबकुछ में
शामिल होना बहुत ज़रूरी है।
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विशाल
प्रकाशित पुस्तकें : ‘तितली ते काली हवा’(कविता- 1992)
‘कैनवस कोल पई बंसरी(कविता-2000)
‘मैं अजे होणा है’ (कविता- 2003)
‘इटली विच मौलदा पंजाब(गद्य)


संपर्क : PZA, MATTEOTTI-34
46020- PEGOGNAGA(MN)
ITLAY
PHONE: 0039-3495172262

5 टिप्‍पणियां:

सतीश पंचम ने कहा…

अच्छी कविताएं हैं, जारी रखें।

शायदा ने कहा…

अच्‍छी लगी कविताएं, अनुवाद भी बढि़या। बधाई।

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

प्रिय सुभाष,

विशाल की कविताएं उनके अच्छे कवि की पहचान हैं. तुम महत्वपूर्ण काम कर रहे हो -- हिन्दी वालों को पंजाबी के कवियों से जोड़ने का. ब्लॉग के इतिहास में तुम्भारा काम याद किया जायेगा .

चन्देल

बेनामी ने कहा…

Setu Sahitya se guzarna bahut sukhad anubhav raha. pash mere priy kavi rahe hain. unki kavitayen dekhkar bahut khushi hui. vividhtapurn anudit kavitayen bhi kabile-tarif hain.
Devmani Pandey
devmanipandey@gmail.com

बेनामी ने कहा…

satish panchim , shayada and roop singh chandel ji meri koshish hogi ke aur acha likhu aur app ka pyar mujhe milta rahe
Vishal [ Italy]
0039 349 5172262