रविवार, 16 सितंबर 2007

अनूदित साहित्य

सेतु साहित्य ब्लाग-पत्रिका का आरम्भ भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य को अनुवाद के माध्यम से विश्वभर के हिन्दी प्रेमियों को अंतर्जाल पर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 14 अगस्त, 2007 को किया गया था। शुरुआत हमने केवल ‘लघुकथा’ विधा से की थी लेकिन अब हम साहित्य की हर विधा यथा- कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, लघुकथा, संस्मरण आदि में किसी भी भारतीय भाषा में लिखे गये उत्कृष्ट साहित्य के अनुवाद को प्रकाशित करना चाहते हैं। इस संदर्भ में “सेतु साहित्य” को लेखकों, अनुवादकों से सहयोग अपेक्षित है। “सेतु साहित्य” के लिए भेजे गये अनुवाद का हम स्वागत और सम्मान करेंगे। लेखकों, अनुवादकों से अनुरोध है कि वे “सेतु साहित्य” के लिए उत्कृष्ट साहित्य का ही अनुवाद भेजें और अनुवाद भेजने से पहले निम्न बातों को भी ध्यान में रखें –

Ø “सेतु साहित्य” एक अव्यवसायिक ब्लाग-पत्रिका है और लेखक-अनुवादकों को किसी भी प्रकार का मानदेय दे पाने की स्तिथि में नहीं है।
Ø रचनायें केवल 'कृतिदेव’ फोन्ट अथवा यूनिकोड(मंगल) में ही ई-मेल से भेजी जानी चाहिएं।
Ø मूल लेखक की अनुमति-सहमति लेने की जिम्मेदारी अनुवादक की है और उसे इस बारे में स्पष्ट उल्लेख करना होगा कि उसने मूल लेखक की अनुमति-सहमति ले रखी है।
Ø अनुवादक अपना और मूल लेखक का संक्षिप्त परिचय और चित्र भी भेज सकते हैं।
Ø रचनायें www.subhneerav@gmail.com पर ही भेजी जायें।
-संपादक
सेतु साहित्य में ‘अनूदित साहित्य’ के अंतर्गत इस बार प्रस्तुत हैं, विशाल और बलबीर माधोपुरी की कविताओं का हिन्दी अनुवाद-

जब मैं लौटूंगा
विशाल

माँ ! जब मैं लौटूंगा
उतना नहीं होऊँगा
जितना तूने भेजा होगा
कहीं से थोड़ा...कहीं से ज्यादा
उम्र जितनी थकावट
युगों–युगों की उदासी
आदमी को खत्म कर देने वाली राहों की धूल
बालों में आई सफ़ेदी
और क्या वापस लेकर आऊँगा...

क्या मैं तुझे बता सकूँगा
कि रोज मेरे अंदर
एक कब्र सांस लेती थी
कि कैसे अपने आप को
जिंदा भ्रम में रखने के लिए
अपने ही कमरे में
प्रवेश करते समय दरवाजा थपथपाता था
यह जानते हुए भी कि
कोई दरवाजा नहीं खोलेगा
और न ही किसी ने आलिंगन में लेना है
न ही किसी ने घूर कर देखना है
न ही किसी ने नाराज होना है
और न ही किसी ने माफ करना है
बस, एक आलम पैदा होना है
जहाँ आदमी अपने आप को टोह कर देखता है।

माँ ! ज्यादा से ज्यादा क्या ले आऊँगा
बाप के गले में लटकाने वाली घड़ी
या मेज पर रखने वाला टाइमपीस
कि बहुत तड़के अलार्म के साथ
वह दो वक्त की रोटी के लिए
अपनी आँखों पर चढ़ा कर चश्मा
घर का चक्कर लगाता रहे
या फिर तेरी वास्तव में ही
खत्म होती जा रही नज़र के लिए
कोई रांगला सा फ्रेम
ताकि तेरे जे़हन में से
कहीं बेटे का फ्रेम टूट न जाए।

तुझे कैसे बताऊ ए माँ
तेरे इस भागे हुए पुत्र को
कहीं भी टिकाव नहीं था
रोज रात में
चौके में पकती मक्की की रोटी की महक
जब याद आती थी
एक बार तो इस तरह लगता था
कि तू बुरकियाँ तोड़–तोड़ मुँह में डाल रही है
उन पलों में मैं
एक आह से बढ़कर कुछ नहीं होता था

माँ, तू तो मुझे हमेशा
अपना सुशील बेटा ही कहती रही थी
यह जानते हुए भी
कि सुबह की पहली किरण से लेकर
रात की आखिरी हिचकी तक
मैंने तेरे लिए छोटे–छोटे दुख पैदा किए थे
मुझे वे सब कुछ अच्छी तरह याद है
कि मेरी रातों की आवारगी को लेकर
कैसे तू सूली पर टंगी रहती थी
बस इस आस में
कि मेरा बेटा कभी तो कोख का दर्द पहचानेगा
कभी तो बेटों की तरह दस्तक देगा...

पर माँ जब मैं लौटूंगा
ज्यादा से ज्यादा क्या लेकर आऊँगा
मेरी आँखों में होंगे मृत सपने
मेरे संग मेरी हार होगी
और वह थोड़ा सा हौसला भी
जब अपना सब कुछ गवां कर भी
आदमी सिकंदर होने के भ्रम में रहता है
और फिर तेरे लिए छोटे–छोटे खतरे पैदा करुँगा
छोटे–छोटे डर पैदा करुँगा
और मैं क्या लेकर आऊँगा।

(हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)

कवि संपर्क –
Vishal
PZA, MATTEOTTI-34
46020-PEGOGNAGA(MN)
ITALY


जात
बलबीर माधोपुरी

जात, इस तरह मेरे संग
जैसे मेरा रंग
मेरा साया
इतना मेल–सुमेल
कि मैं मनफी
वह मेरी पहचान
गाँव में होऊँ या शहर
समुंदर के आर या पार।

बहुत छिपाता हूँ
सौ परदे डालता हूँ मैं
पर वह फिर
आ खड़ी होती है बार-बार
जैसे कुल्फ़ के दिनों के बाद
धूप जैसे बाल
फटे चीथड़ों में से
जिस्म जैसे ख़याल।

चाहता हूँ उसका त्याग
जैसे कोई चाहता है तलाक
पर वे मुझे बताते हैं
समझाते-सुझाते हैं
यह तो जन्म-जन्म का है साथ
नहीं कोई ख़ास बात।

आखि़र-
तर्कश पर चढ़ते हैं तर्क के तीर
वर्तमान को जानकर, अतीत को चीरकर
आता है लहू में उबाल
जैसे धरती के अन्दर भूचाल
और फिर
भरते दिखाई देते हैं फासले
चढ़ते–उतरते, दायें–बायें।

जात, इस तरह मेरे संग
जैसे मेरा रंग
मेरा साया
इतना मेल–सुमेल
कि मैं मनफी़
वह मेरी पहचान
गाँव में होऊँ या शहर
समुंदर के आर या पार।
(पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)



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