शनिवार, 22 सितंबर 2007

अनूदित साहित्य

सेतु साहित्य के पिछले अंक पर भारत से ही नहीं वरन विदेशों से भी ढेरों ई-मेल प्राप्त हुए हैं, जो नि:संदेह उत्साहवर्धक हैं। जिन्होंने हमारे इस अकिंचन प्रयास पर अपनी राय व्यक्त करके हमारा हौसला बढ़ाया, हम उन सबका हृदय से आभार व्यक्त करते हैं और आशा करते हैं कि भविष्य में भी वे अपना स्नेह-प्यार बनाये रखेंगे और समय-समय पर अपनी बेबाक राय देकर “सेतु साहित्य” को और बेहतर बनाने में अपना योगदान देते रहेंगे। इस संदर्भ में “सेतु साहित्य” को लेखकों, अनुवादकों से भी सहयोग अपेक्षित है। उनसे अनुरोध है कि वे “सेतु साहित्य” के लिए उत्कृष्ट साहित्य का ही अनुवाद भेजें और अनुवाद भेजने से पहले निम्न बातों को भी ध्यान में रखें

Ø “सेतु साहित्य” एक अव्यवसायिक ब्लाग-पत्रिका है और लेखक-अनुवादकों को किसी भी प्रकार का मानदेय दे पाने की स्तिथि में नहीं है।
Ø रचनायें केवल 'कृतिदेव’ फोन्ट अथवा यूनिकोड(मंगल) में ही ई-मेल से भेजी जानी चाहिएं। अनुवाद किसी भी भारतीय भाषा के साहित्य से हो सकता है। छोटी रचनाओं का ही अनुवाद अपेक्षित है जैसे- लघुकथा, कविता और कहानी।
Ø मूल लेखक की अनुमति-सहमति लेने की जिम्मेदारी अनुवादक की है और उसे इस बारे में स्पष्ट उल्लेख करना होगा कि उसने मूल लेखक की अनुमति-सहमति ले रखी है।
Ø अनुवादक अपना और मूल लेखक का संक्षिप्त परिचय और चित्र भी भेज सकते हैं।
Ø रचनायें अथवा अपनी प्रतिक्रिया subhneerav@gmail.com पर भेजें।
-संपादक

सेतु साहित्य मेंअनूदित साहित्य’ के अंतर्गत इस बार प्रस्तुत हैं, डा.सुतिंदर सिंह नूर की कविताओं का हिन्दी अनुवाद। डा. सुतिंदर सिंह नूर पंजाबी के वरिष्ठ कवि, गहन चिंतक और प्रखर आलोचक हैं। डा. नूर की पंजाबी में पाँच कविता पुस्तकें (‘विरख निपत्तरे’, ‘कविता दी जलावतनी’, ‘सरदल दे आर-पार’, ‘मौलसिरी’ और ‘नाल-नाल तुरदियाँ’), एक कविता-संग्रह हिंदी में (साथ-साथ चलते हुए) तथा आलोचना की लगभग ढाई दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक पुस्तकों का संपादन किया है। यू.के., अमेरिका, थाईलैंड, पाकिस्तान में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठियों और सेमिनारों में शिरकत की है। डा. नूर भारतीय साहित्य अकादमी, पंजाबी साहित्य अकादमी, दिल्ली, भाषा विभाग, पंजाब के साथ-साथ सफ़दर हाशमी तथा अनेक भारतीय तथा अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं। दिल्ली विश्ववि़द्यालय से सेवा-निवृत्त है और फिलहाल पंजाबी अकादमी, दिल्ली की पत्रिका ‘समदर्शी’ के सम्पादक हैं।

प्यार और किताब
सुतिंदर सिंह नूर


प्यार करने
और किताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता

कुछ किताबों का हम
मुख्य पृष्ठ देखते हैं
अन्दर से बोर करती है
पृष्ठ पलटते हैं और रख देते हैं।

कुछ किताबें हम
रखते हैं सिरहाने
अचानक जब नींद से जागते हैं
तो पढ़ने लगते हैं

कुछ किताबों का
शब्द-शब्द पढ़ते हैं
उनमें खो जाते हैं
बार-बार पढ़ते हैं
और आत्मा तक बसा लेते हैं

कुछ किताबों पर
रंग-बिरंगे निशान लगाते हैं
प्रत्येक पंक्ति पर रीझते हैं
और कुछ किताबों के
नाजुक पन्नों पर
निशान लगाने से भी डरते हैं

प्यार करने
और किताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता।


घरों से चले गये मित्रो
सुतिंदर सिंह नूर


घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
खेत तड़प कर बंजर हो जाएं
मिट्टी की प्यास मर जाए
बालियाँ भूल जाएं मूक जुबां में बोलना
पंछी भूल जाएं परों को तौलना

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
प्रतीक्षा, प्रतीक्षा करते-करते बूढ़ी हो जाए
क्षितिज की ओर ताकती आँखें पथरा जाएं
सपने, उदास शामें, अंधेरी रातें
कभी श्मसान और कभी कब्र बन जाएं

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
सितारे भूल जाएं गर्दिशें
अंतरिक्ष बिखर जाए चिंदी-​चिंदी होकर
रंगों-सुगंधों के अर्थ गुम हो जाएं
रातें सुर्ख सूर्यों को पी जाएं

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

इससे पहले कि
विषधर समय को डस लें
निगल जाएं तुम्हारे कदमों के निशान
और बहुत दूर निकल गये तुम
बिसरा बैठो पंगडंडियाँ, चरागाह और मुंडेरें

घरों से चले गये मित्रो
अब लौट भी आओ।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सुतिंदर सिंह नूर


कविता को उगने दो अपने अंदर
एक वृक्ष की तरह
और वृक्ष को करने दो बातें
हवा से, धूप से,
बरसते पानी से
तूफानों से।

वृक्षों के खोड़ों में
पंछियों को खो जाने दो
चिहु-चिहु करने दो
और घोंसले बनाने दो।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरजमुखी के फूल की तरह
जो आकाश की ओर देखता है
महकता है, विकसित होता है
आज़ाद हवाओं में साँस लेता
किसे का मोहताज नहीं होता
और वीरान जंगलों में
कोसों दूर जाते कारवां को भी
हांक मार लेता है।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरज की तरह
जो क्षणों में
वनों, तृणों, दरियाओं
और समुन्दरों पर फैल जाता है।
सीने में अग्नि संभाले
ब्रह्मांड से बातें करता
किरण दर किरण
निरंतर चले जाता है।

कविता को उगने दो अपने अंदर
चांदनी की तरह
जिसके मद्धम-मद्धम सरोद में
हम रूह तक भीग जाते हैं
क्षितिज तक फैली
शांत गहरी रात में
दूधिया किरणों के जाम
दिल के अँधेरे कोनों तक
एक सांस में पी जाते हैं।

कविता को उगने दो अपने अंदर
वृक्ष की तरह
सूरजमुखी की तरह
सूरज की तरह
चांदनी की तरह!
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(हिन्दी रूपान्तर : सुभाष नीरव)


कवि सम्पर्क-
डी-132, मान सरोवर गार्डन
नई दिल्ली-110015दूरभाष : 092120-68229, 098113-05661